सामान नागरिक संहिता जरूरी क्यों है?

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पहली बात यूनिफार्म सिविल कोड (सामान नागरिक संहिता) के लिए उठने वाली आवाज का श्रेय ना तो संघ संघ को जाता है और नाही भारत सरकार को| सबसे पहले यह साफ़ होनी चाहिए| सुप्रीम कोर्ट ने एक केस के सिलसिले में भारत सरकार से इसके बारे में रिपोर्ट माँगा| सरकार के कानून मंत्री ने लॉ कमीशन को इसपर जाँच करके उसके मुताबिक टिपण्णी देने को निर्देश दिया| लॉ कमीशन ने इसपर सकारात्मक रिपोर्ट दिया|

यह एक कानूनी प्रक्रिया है जिसे लोगो को समझना चाहिए| कोई भी सरकार होती तो यही नियम फॉलो करती| कानून मंत्री लॉ कमिसन से हमेशा रिपोर्ट मांगता है और लॉ कमीशन अपने रिसोर्सेज और वर्तमान की स्तिथि के आधार पर रिपोर्ट सौपती है| कोर्ट हमेशा से संविधान के आधार पर फैसला सुनाती है जो भी उससे सम्बंधित नियम कानून उसके पास है|

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दूसरी सबसे ज्यादा शर्म की बात यह है कि हमारे जैसे धर्मनिरपेक्ष और दुनिया के बड़े लोकतान्त्रिक देश होने के बाद भी अपनी बात को सपोर्ट करने के लिए मुस्लिम देशों का सहारा लेना पड़ता है| ऐसे कहा जाता है कि बहुत सारे मुस्लिम देश में यह सब ख़त्म हो गया है हमें भी कर देना चाहिए| होना यह चाहिए था कि उनसे पहले हमें ऐसे रिफार्म ले आना चाहिए था| क्युकी हमारा देश एक धर्मनिरपेक्ष देश है| महिला मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के अध्यक्ष साहिबा का मानना है कि फैसला कोर्ट ही करे लेकिन उनके खुद के बनाए कानून के आधार पर करे| ऐसे कैसे संभव है? देश का न्यायपालिका संविधान के अलावां किसी भी फर्जी किताब को आधार नहीं मान सकता|

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तीसरी बात आखिर यूनिफार्म सिविल कोड में हर्ज क्या है? मैंने एक दो लोगो को सुना जो इसके विपक्ष में है ताकि उनकी राय जान सकु लेकिन उनके पास कोई तर्क नहीं है| कहते है विभिन्नता वाला देश में संभव नहीं है धार्मिक चीजे खतरे में पड जाएंगी| यहाँ पर एक चीज है जिसे लोग उलझाने की कोशिश कर रहे है वो यह कि धार्मिक अस्मिता और नागरिको का हक़ दोनों अलग अलग चीजें है इसे एकसाथ मिलाना नहीं चाहिए| हिन्दू धर्म में विवाह कैसे करे? मुस्लिम धर्म में निकाह कैसे करे?

यह प्रश्न धार्मिक अस्मिता से जुडा है इसपर निसंदेह लोगो का हक़ है| लेकिन तलाक, इनहेरिटेंस जैसी चीजे सामाजिक अस्मिता से जुडी है इसलिए संविधान इसमें दखल दे सकती है| इसके पीछे मै यह कारण दूंगा कि अगर कोई भी आदमी आचानक घरेलु पत्नी को तलाक दे देता है तो उसपर सामाजिक प्रतिकूल प्रभाव ही पड़ता है, जिसके लिए हम सरकार को ही जिम्मेदार मानते है| जैसे मानिये औरत के पास गुजारा भत्ता नहीं है, आर्थिक स्तिथि बेहद नाजुक है ऐसे में सरकार और संविधान दखल दे सकती है|

चौथी बात यह कि ‘मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड’ या किसी भी धर्म का पर्सनल लॉ बोर्ड है क्या? कौन लोग है? क्या किसी जनता ने इन्हें चुना है नहीं ह? तो सरकार और संविधान के सामानांतर धर्म के आड़ पर अपनी संस्था कैसे चला सकते है? यह कानूनन वैध नहीं है| इनकी हरकते और तर्क इतने गंदे और जाहिलाना है कि मैं उन चीजों को लिखना उचित नहीं समझ रहा| अपने तर्क देते है कि औरतों के पास दिमाग कम है इसलिए मर्दों को फैसले लेने का हक़ है| अपने ऑफिसियल स्टेटमेंट में कहते है कि अगर ट्रिपल तलाक हट गया तो लोग अपनी पत्नी से छुटकारा पाने के लिए हत्या कर सकते है|

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पहली बात गोवा में नहीं है| क्या वहाँ के मुस्लिम अपनी पत्नी से छुटकारा पाने के लिए हत्या करते है? नहीं न? मुझे पूरा विश्वास है हमारे देश के मुस्लिम मुर्ख नहीं है जितना आप लोग समझते है| वो ऐसी गन्दी हरकते नहीं करते| आप लोग जरूर ये सब करवा दोगे| इसी संस्था की एक मैडम को राज्यसभा पर सुन रहा था| एक कॉलेज की लड़की ने पूछा कि नेतृत्व में हम लड़कियों का क्या रोल है मुस्लिम समाज में? जवाब देती है कि “Allah has given some exemptions like biological differences” जब ऐसे तर्क आते है तो डिबेट वही ख़त्म हो जाता है|

पांचवीं बात एक धर्मनिरपेक्ष लोकतान्त्रिक देश संविधान से चलता है शरिया से नहीं| आजादी के वक्त सरदार पटेल ने गाँधी जी से कहा कि जिन्ना मुस्लिम कंट्री बना रहे है वो हिन्दुओं को बिल्कुल भी अधिकार नहीं देंगे| हमें भी ऐसे ही कदम उठाने चाहिए| गाँधी जी ने उनका बड़ा ही प्यारा जवाब दिया था प्रिय सरदार पटेल आप जिन्ना नहीं हो न? आप तो उनसे अलग हो न| हमारे देश में मुस्लिम लोग के पूर्वजों ने अपने साथियों का हाथ झटक तक बोला नहीं मुझे भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश में ही रहना है| अगर इनके पूर्वजों को शरिया पसंद होता तो वो भी पकिस्तान चले गए होते| कम से कम अपने पूर्वजो के फैसलों का तो सम्मान करना ही चाहिए|

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