70 सालों के बाद भी ‘महात्मा गाँधी’ को लेकर समझें उलझी क्यों है ?

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आजादी के आज 70 साल पूरे हो चुके है लेकिन ऐतिहासिक मुद्दों पर आज भी अटकलें बनी ही हुई है| आज भी लोगों के मन में अपने आजादी के हीरो को लेकर वैचारिक असमानताएं है| बिलकुल सही बात है होनी भी चाहिए लेकिन गलत तथ्यों के सहारे तो बिल्कुल भी नहीं| 21 वीं शताब्दी की खासियत यह है कि किसी ख़ास विचार को प्रोत्साहित करने के लिए गलत तथ्यों का प्रयोग बहुत ज्यादा होता है| या कभी कभी सही तथ्यों को गलत ढंग से विश्लेषण भी किया जाता है| ऐसा कब होता है जब अपने पास सार्थक तथ्य ना हो| इस विषय पर बातें करने के लिए ‘बापू जी’ सबसे हॉट टॉपिक बन जाते है| जन्म से लेकर मृत्यु तक की घटनाओं पर अलग अलग प्रकार के विचार और प्रोपगंडा है| दुसरे फ्रंट को अक्सर शिकायत रहती है कि इतिहासकार अपने ढंग से इतिहास लिखा है जिसमे कुछ सच्चाईयां अछूती रह गई है| जैसे सबसे पहली चिंता यही रहती है कि इतिहासकार ने महात्मा गाँधी जी की सिर्फ एक पहलु पर लिखा है और भगवान के तौर पर हमारे समक्ष प्रस्तुत किया है| दूसरी बिंदु हास्यापद रूप से सवाल बनाकर लोगों के बीच उछाली जाती है “चरखे से आजादी कैसे मिल सकती है?” आजादी में उनकी भूमिका को लेकर वृहत पैमाने पर चर्चे होते रहे है|

आज एक मित्र ने त्रिमूर्ति भवन के संग्रहालय का एक फोटो पोस्ट किया है| विषय का नाम था “ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति मेरी वफादारी”| इसे ऐसा समझा जाता है कि महात्मा गाँधी का ब्रिटिशों के प्रति कबूलनामा टाइप कुछ दस्तावेज है| मूल रूप से यह नोट जो था जिसमे महात्मा गाँधी के ब्रिटिश के प्रति एक विचार था| इस दस्तावेज का उपयोग ‘सावरकर का माफीनामे’ से तुलना करने के लिए किया गया था| पहली बात कि तुलना ही उचित नहीं है| इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं है कि मै किसी भी प्रकार के पर्सनाल्टी कल्ट का बढ़ावा दे रहा हूँ| इस बात से भी मै सहमत हूँ कि किसी भी चीज को लिखते वक्त दोनों पक्षों का ध्यान रखना जरूरी होता है| इसमें कोई भी दो राय नहीं कि कोई भी व्यक्ति अंतिम सत्य नहीं हो सकता है लेकिन ‘अंतिम सत्य नहीं होने’ को सिद्ध करने के लिए कुछ भी पेश नहीं किया जा सकता है| कुछ ठोस चीजें होनी चाहिए जिसे सब लोग पहले पढ़े फिर आत्मावलोकन करे और फिर विचार को ग्रहण करे| कोई भी विचार सिर्फ पढ़कर ग्रहण करने मेरे समझ से मुर्खता का एक हिस्सा है|

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अब एक एक करके मुद्दे पर बातें करते है| सबसे पहला सवाल यही है कि देश की आजादी में महात्मा गाँधी की क्या भूमिका थी? मुझे ऐसा लगता है कि देश के सभी आवाम को यह पता होगा कि उनकी क्या भूमिका थी| लेकिन कैसे थी? इसपर बृहत् पैमाने पर कभी सोचने की चेष्टा नहीं की| इस विषय पर नहीं सोचना दुसरे फ्रंट के लोगों को मौका दे देता है कि हास्यापद रूप से ऐसी बातें उछालें कि ‘अहिंसा, अनशन और चरखे से आजादी कैसे मिल सकती है?’| मेरे समझ से बिल्कुल मिल सकती है| यह सोचने वाली बात है कि आखिर महात्मा गाँधी अग्रेजों की हिंसात्मक कार्यवाई का जवाब उसी रूप में देने से क्यों मना करते थे? चुकी महात्मा गाँधी जानते थे कि अगर हमारे तरफ से हिंसात्मक कार्यवाई की जाती है तो उनके पास असीमित कानूने थी जो हमें जेल में डालने, प्रताड़ित करने और फांसी देने के लिए काफी थे| लेकिन अगर जवाबी कार्यवाई अहिंसक रूप से होती है तो यह अंग्रेजों को मुश्किलों में डाल सकता है| ऐसा ही हुआ भी था|

हमारा जवाबी कार्यवाई हिंसात्मक रूप से ना देना एक बहुत बड़ा मुद्दा बन गया| ब्रिटिश मीडिया के लिए बहुत ज्यादा अहम् हो गया| उनदिनों इंग्लैंड में सत्ता ‘कंजर्वेटिव पार्टी’ के हाथों में थी| विपक्ष में बैठी ‘लेबर पार्टी’ के लिए अहम् मुद्दा मिल गया| भारत में हो रहे अत्याचार की चीजें जो ज्यादातर पहुच नहीं पाती थी वो पहुचीं और लेबर पार्टी ने इसको चुनावी हिस्सा बनाया| इसका पूरा-पूरा फायदा भारत की स्वतंत्रता में मिला| क्या इसमें महात्मा गाँधी की कोई भूमिका नहीं थी? दूसरी बात आती है चरखे को लेकर| क्या चरखे का कोई मतलब नहीं था? जो आत्मसम्मान मिला अपने लोगों को क्या वो वो काफी नहीं था? क्या इसका सम्बन्ध अर्थव्यवस्था से नहीं था? आत्मसम्मान से लेकर अर्थव्यवस्था तक को प्रभावित करने वाले माध्यम ‘चरखे’ को कोई कैसे हास्यापद रूप से पेश कर सकता है? पिछले साल डेढ़ साल के पढ़े अखबार के अनुभव के आधार पर मै यह कह सकता हूँ कि एक महात्मा गाँधी के विपक्ष में एक ऐसा बल तैयार करने की कोशिश की जा रही है जिससे इतिहास के साथ छेड़-छाड़ की जा सके| इसका एक प्रतिबिम्ब दक्षिण अफ्रीका में भी देखने को मिल चूका है|

कुछ सही घटनाएँ है जिसको गलत तरीके से पेश किया गया था| शुरूआती दिनों में महात्मा गाँधी के भीतर अंग्रेजों को लेकर एक अलग विचार था जो बाद में जाकर बदला| महात्मा गाँधी को लगता था कि अगर विश्व युद्ध में हम अंग्रेजी हुकूमत का साथ देते है तो शायद विश्वयुद्ध के बाद हम आजाद हो सकते है| यही कारण था कि महात्मा गाँधी शुरूआती दिनों में अंग्रेजों से वैचारिक नजदीकियाँ थी| जबकी वही पर एक दूसरा धड़ा सुभाषचंद्रबोस का भी था| जो यह मानते थे कि अगर हम विश्वयुद्ध में अंग्रेज का विरोध करके अगर दुसरे खेमे जर्मनी और जापान का साथ देते है तो आजादी मिलने की संभावनाएं ज्यादा है| दोनों लोगों का लक्ष्य एक था लेकिन रास्ते अलग अलग थे| लेकिन आज के दौर में यह सिद्ध करने की कोशिश की जा रही है कि दोनों लोगों का लक्ष्य भी अलग अलग था| ऐसा आरोपित किया जाता है कि महात्मा गाँधी का लक्ष्य था सत्ता में शामिल होना बल्कि सुभाषचंद्र बोस का लक्ष्य था आजादी| लेकिन यह आरोप मात्र ही है क्युकी कोई भी ऐसी चीजें नहीं है जिससे यह माना जा सके|

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Page 277 of The ‘India Struggle’

मेरी समझ यह है दोनों लोग आजादी के लिए समर्पित थे| ऐसा सिद्ध करने के लिए सुभाषचन्द्र बोस की किताब ‘द इंडिया स्ट्रगल’ के पेज नंबर 277 का सहारा भी लिया जाता है| उसपर एक लाइन लिखी हुई है “According to the Sane Britishers, Gandhi was the best policeman the Britishers had in India” यह चीज सुभाषचंद्र बोस नहीं कह रहे है| बल्कि सेन का यह व्यक्तिगत है| लेकिन इसको ऐसे भी पेश किया जाता है जैसे सुभाषचंद्रबोस ने महात्मा गाँधी को कहा है| अगर सुभाष चंद्रबोस को ऐसा लगता तो दो चीजें करते| पहली यह कि सुभाषचन्द्र बोस जैसे बेबाक व्यक्तित्व वाले नेता सीधे लिख सकते थे| इतनी क्षमता थी कि वो सामने आकर मुखालफत कर सके| दूसरी चीज सुभाषचंद्र बोस ‘INA’ (इंडियन नेशनल आर्मी) का गठन करने के बाद अपने ब्रिगेड का नाम महात्मा गाँधी के नाम पर तो बिल्कुल भी नहीं रखते अगर उन्हें लगता कि वो अंग्रेजों के सिपाही है| इसलिए सुभाषचंद्र बोस के कंधे पर बन्दुक रखकर अपनी वैचारिक समझ का बढ़ावा देना मुझे नहीं लगता कि किसी भी एंगल से उचित है|

महात्मा गाँधी ने जो भाषण दिया है मुझे लगता है वो भी गलत तरीके से प्रस्तुत किया जा रहा है| मुझे नहीं लगता कि महात्मा गाँधी के कुछ गलत कहा है| अगर चाइना, रूस, कोरिया या किसी भी फासीवादी देश जैसी हुकूमत होती तो शायद हम आन्दोलन भी नहीं कर पाते| हो सकता था कि वो शुरूआती दिनों में ही महात्मा गाँधी को मरवा सकते है| किसी भी आन्दोलन को सहना और उसपर सकारात्मक कार्यवाई करना बहुत मुश्किल होता है| ये तो वैसे भी 70 साल पुरानी बातें है| आज के समय को ही देख ले| जहाँ भी आन्दोलन जन्म लेने की शक्ल में होती है उसे यथासंभव दबाने की कोशिश की जाती है| अगर नहीं दबता तो लाठी चार्ज, आंसू गैस आदि से कण्ट्रोल करने की कोशिश जरूर की जाती है| सही चीज को सही और गलत को गलत कहने में आखिरकार दिक्कत ही क्या है? यह एक बात है| उसके उलट जो गलत किया है उसकी निंदा और उसके खिलाफ आन्दोलन भी तो इसी महात्मा गाँधी के नेतृत्व में हुआ है| एक भाषण से अंग्रेजों के वो ‘सच्चे सिपाही’ कैसे बन सकते है और इतने सारे आन्दोलनों को ‘सही सोच’ के साथ आगाह करने से ‘महात्मा’ क्यों नहीं बन सकते|

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इसका मतलब यह बिलकुल नहीं है कि अंग्रेजों ने गलत तरीकों से आन्दोलन को कुचलने और नरसंहार करने का काम नहीं किया है| किया है लेकिन उस भाषण में उस पक्ष को रखा है जहाँ उसने सही महसूस किया था| हो सकता है इसी भाषण के अगले पन्ने पर अंग्रेजों की मुखालफत भी की होगी जिसका फोटो नहीं खीचा है| इसलिए मुझे लगता है कि कोई भी भाषण या तो पूरी पेश करनी चाहिए या तो करनी ही नहीं चाहिए| सेलेक्टिव तरीके से पेश करना मानसिकता को ध्रुवित करने वाली वैचारिक पृष्ठभूमि को बढ़ावा देता है| ऐसे ही भारत विभाजन के लिए उन्हें पहला दोषी माना जाता है| जबकी लोग यह भूल जाते है कि यह वही महात्मा गाँधी है जो विभाजन के सख्त खिलाफ थे| ऐसी ही अफवाहों को आधार बनाकर अंततः उनकी हत्या कर दी गई| मेरा व्यक्तिगत मानना है कि महात्मा गाँधी ने टॉलस्टॉय, कारपेंटर, थोराऊ और रस्किन जैसे विचारकों से अपनी समझ और विचारधारा बनाई थी जिसे अपने देश में जमीनी स्तर पर उतारना चाहते थे, उससे दूसरा पक्ष बहुत ही ज्यादा भयभीत था| दुर्भाग्य यह रहा कि आजाद देश का समीकरण पूरी तरह से बदल गया| उनकी विचारें किताबों तक ही सिमित रह गई|

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