देश में यूनिफार्म सिविल कोड क्यों जरूरी है ?

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सबसे पहले यह कि आखिर यूनिफार्म सिविल कोड (समान नागरिक संहिता) क्या है? जब किसी भी लोकतान्त्रिक देश की कल्पना की जाती है तब लोगो के अधिकार, न्याय और समानता की बात जरूर की जाती है| आजादी के लगभग 70 साल होने को आ चुका है लेकिन आज तक बहुत सारी चीजे एक सामान रूप से लागू नहीं हो पाई है| यहाँ तक कि सविंधान के उद्देशिका(प्रीएमबल) में लिखा है “हम भारत के लोग भारत को एक [सम्पूर्ण प्रभुत्व संपन्न समाजवादी पंथ निरपेक्ष लोकतान्त्रिक गणराज्य बनाने के लिए….] यूनिफार्म सिविल कोड(समान नागरिक संहिता) का अर्थ ही एक पंथनिरपेक्ष(सेक्युलर) कानून होता है जो सभी धर्म के लोगों के लिये समान रूप से लागू होता है|

यह संविधान के शुरूआती शब्दों को मुक्कमल करने वाली ही चीज है| दूसरे शब्दों में कहे तो अलग-अलग धर्मों के लिये अलग-अलग सिविल कानून न होना ही ‘समान नागरिक संहिता’ का मूल भावना है। समान नागरिक कानून से अभिप्राय कानूनों के वैसे समूह से है जो देश के समस्त नागरिकों (चाहे वह किसी धर्म या क्षेत्र से संबंधित हों) पर लागू होता है। यह किसी भी धर्म या जाति के सभी निजी कानूनों से ऊपर होता है। विश्व के अधिकतर आधुनिक देशों में ऐसे कानून लागू हैं।

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आखिर भारत में इसकी जरूरत क्या है? इसके विरोध में उठ रहे तमाम सवालों का जवाब देते हुए एक संवाद करने की कोशिश करूँगा| सबसे पहले पहला सवाल, भारत जैसे विविधता भरा देश में क्या सचमुच ऐसी यूनिफार्म सिविल कोड की जरूरत है? कहीं ऐसा तो नहीं कि यह हमारे देश की विविधता को नुक्सान पहुचा सकता है? दूसरा सवाल कही ऐसा तो नहीं लोगो के धार्मिक अधिकार को छिनने की कोशिश करेगा| यहाँ पर दो चीजे है| पहला है धार्मिक अस्मिता और नागरिको का मूल अधिकार|

इसे लोग दोनों को एकसाथ जोड़कर बातें उलझाने की कोशिश करते है| टीवी चैनलों पर लोग संविधान के आर्टिकल यह, आर्टिकल वह जोड़कर बातों को और काम्प्लेक्स करने की कोशिश करते है| हिन्दू धर्म के लोगो को शादी कैसे करनी है? पूजा कैसे करना है? किसकी पूजा करना है? कितने तारीख को कौन सा त्यौहार है? मुस्लिम धर्म में निकाह का क्या प्रक्रिया है? सजदा कैसे करना है? नमाज कब पढना है? ये सारी चीजे धार्मिक अस्मिता से जुडी हुई है इसपर निसंदेश लोगो को पूरा हक़ है|

लेकिन जैसे ही बात संपत्ति के अधिग्रहण और संचालन का अधिकार, विवाह, तलाक और गोद लेना जैसी आती है तब वह मामला किसी भी नजरिया से धार्मिक अस्मिता से जुडा नहीं होता| वो सारी चीजें एक भारतीय नागरिक का हक़ हो जाता है| इसके पीछे मै कुछ कारण दूंगा| मान लीजिए कि कोई व्यक्ति अपनी पत्नी को तलाक देता है| औरत को घरेलु पत्नी होने की वजह से उसे तमाम तरह की आर्थिक तंगियों से गुजरना पड़ता है| इसका असर उनकी संतानों पर भी पड़ता है|

सामाजिक चुनौतियाँ गरीबी और बेरोजगारी की शक्लें देखने को मजबूर कर देती है| तब भारत सरकार पर आरोप लगता है कि गवर्नेंस ठीक से नहीं हो रहा है| जबकी यह भी एक फैक्टर है| इसलिए यहाँ पर जनता द्वारा चुनी हुई सरकार और सर्वोच्च न्यायलय का हक़ बनता है कि वो इन मामलो में दखल दे| औरतों के साथ हो रहे ज्यादतियों पर नकेल कसे और समानता के अधिकार को सुनिश्चित करे|

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तीसरा सवाल यह उठता है कि आखिर दिक्कत कहाँ है? आखिर मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड असंतुष्ट क्यों है? मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का असंतुष्ट होना और मुस्लिम महिलाओं की आवाजें बुलंद होना यह दर्शाता है कि अब मुस्लिम समाज में कुछ अच्छा होने जा रहा है| ये लोग पुरुष प्रधान समाज की वालाकत करने वाले लोग है| इनका ध्यय ही यह होता है कि औरतें हमेशा उनकी गुलाम बन कर रहे| ये सारी चीजे उनके ऑफिसियल स्टेटमेंट से साफ़ साफ़ झलकता है| इस बोर्ड का मानना होता है कि औरतों के पास दिमाग कम होता है इसलिए ये समाज का नेतृत्व नहीं कर सकती|

इस बोर्ड ने हाल में यूनिफार्म सिविल कोड ना लागू होने का कारण दिया है| उसमे कहा है कि अगर ट्रिपल तलाक जैसी चीजें ख़त्म हो जाएंगी तो लोग जिन्हें तलाक देना है वो छुटकारा पाने के लिए हत्या कर सकते है| क्या ट्रिपल तलाक का कानून गोवा में नहीं है| क्या वहाँ के मुसलमान छुटकारा पाने के लिए औरतों का हत्या करते है? नहीं न? ना तो हमारे देश के मुसलमान इतने बेवकूफ है और नाही इस्लाम ऐसी गन्दी हरकते करने को उन्हें इजाजत देता है|

चौथा सवाल यह है कि ट्रिपल तलाक में दिक्कत क्या है? एक लोकतान्त्रिक देश में न्यायालय ईमेल, फ़ोन, दिवार पर लिखना, चिठ्ठी भेज कर दिए गए तलाक को कैसे सही मान सकती है? मुस्लिम महिला पर्सनल लॉ बोर्ड के अध्यक्ष साहिबा का कहना है कि सजा कोर्ट ही सुनाएं लेकिन उनकी बनाई हुई किताबों के आधार पर ही सुनाएं| ऐसा कैसे संभव है? देश का न्यायपालिका संविधान के अलावां किसी भी फर्जी किताब को आधार नहीं मान सकता| तलाक का एक पूरा विधिवत प्रक्रिया होता है| कुछ समय दिया जाता है जिसमे हुए गलतियों और गलतफहमियों को दूर कर सके| कुछ चीजे आक्रोश में जल्दीबाजी की वजह से हो जाती है|

ट्रिपल तलाक जैसी प्रक्रियाओं में इसके लिए हलाला जैसी चीजों के अलावां कोई स्पेस नहीं है| ये हलाला क्या है? अगर किसी औरत को तलाक के बाद अपने पति के साथ दोबारा जाना है तो उसे किसी और दुसरे आदमी से निकाह करना पड़ेगा और उसके बाद उस दुसरे आदमी से तलाक लेकर आना पड़ेगा| इसके बाद ही वापस एक साथ रह सकते है| मुझे नहीं पता ऐसे नियमों को किस तर्क पर बनाया गया होगा लेकिन इतना जरूर है कि यह अप्रत्यक्ष रूप से बलात्कार को बढ़ावा देता है|

अब पांचवा सवाल यह खड़ा हो सकता है कि यूनिफार्म सिविल कोड कौन सा होगा? जैसा कि जे.एन.यु. की प्रोफेसर निवेदिता मेनन ने अपने लेख एक प्रश्न किया है कि क्या हिन्दू कोड बिल ही यूनिफार्म सिविल कोड होगा? इस चीज की चर्चा के लिए अलग अलग मजहब के लोगों को सामने आना चाहिए और इस पर बात करके एक निष्कर्ष पर पहुचना चाहिए| एक बात साफ़ है कि यूनिफार्म सिविल कोड हिन्दू के अलावां सिर्फ मुस्लिम ही नहीं बल्कि बाक़ी के और भी मजहबों को लागु होना है|

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इसपर बगावती प्रक्रिया सिर्फ मुस्लिम तबके के ठेकेदारों से आ रहा है| और किसी को इससे दिक्कत नहीं है| इससे इस चीज का एहसास होता है कि धर्म के ठेकेदारों की दुकाने बंद हो सकती है| ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि धार्मिक चीजों पर इससे पाबंदियां लगेंगी| हिन्दू धर्म में तो ‘तलाक’ जैसे शब्द किसी ग्रन्थ में भी नहीं मिलेगा| हिंदु धर्म के मिथकों में इसे सात जन्मो का साथ माना जाता है| लेकिन अगर हिन्दू धर्म के लोग इसे स्वीकार्य करके अपना कदम एक अच्छी चीज के लिए बढ़ाते है तो बाकी के मजहब के लोगों को भी अपना कदम बढाकर साथ देना चाहिए|

छठा सवाल क्या यूनिफार्म सिविल कोड पिछले दरवाजे से हिन्दू राष्ट्र बनाने की साजिश है? मीडिया से लेकर धर्म के ठेकेदारों तक ने इसे अपने सियासत का हिस्सा बनाने की कोशिश की है| लोगो के बीच एक गलत धारणा बनाने की कोशिश की जा रही है| यूनिफार्म सिविल कोड के लिए उठने वाली आवाज का श्रेय संघ या बीजेपी को कैसे जा सकता है? सबसे पहले यह साफ़ होनी चाहिए| सुप्रीम कोर्ट ने एक केस के सिलसिले में भारत सरकार से इसके बारे में रिपोर्ट माँगा| वो केस मुस्लिम महिला ने अपने अधिकार के लड़ाई के लिए किया था|

सरकार के कानून मंत्री ने लॉ कमीशन को इसपर जाँच करके उसके मुताबिक टिपण्णी देने को निर्देश दिया| लॉ कमीशन ने इसपर सकारात्मक रिपोर्ट दिया| यह एक कानूनी प्रक्रिया है जिसे लोगो को समझना चाहिए| कोई भी सरकार होती चाहे बीजेपी हो, कांग्रेस हो या फिर लेफ्ट की सरकार क्यों न हो, तो यही नियम फॉलो करती| कानून मंत्री लॉ कमिसन से हमेशा रिपोर्ट मांगता है और लॉ कमीशन अपने रिसोर्सेज और वर्तमान की स्तिथि के आधार पर रिपोर्ट सौपती है| कोर्ट हमेशा से संविधान के आधार पर फैसला सुनाती है जो भी उससे सम्बंधित नियम कानून उसके पास है|

सातवाँ सवाल यह उठता है कि क्या ‘मुस्लिम पर्सनल बोर्ड’ का अधिकार के मामले में हस्तक्षेप करना जायज है? जहाँ तक अधिकार के बात है उसकी रक्षा संविधान के अलावां कोई नहीं कर सकता है| ‘मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड’ या किसी भी धर्म का पर्सनल लॉ बोर्ड है क्या? कौन लोग है? क्या किसी जनता ने इन्हें चुना है नहीं ह? तो सरकार और संविधान के सामानांतर धर्म के आड़ पर अपनी संस्था कैसे चला सकते है? यह कानूनन वैध नहीं है| लोग ऐसी दलीलें देते है कि संविधान निर्माताओं ने कुछ सोच समझ कर इस प्रकार का प्रावधान किया होगा|

लेकिन यह भी सत्य है आजादी के बाद से लेकर आज तक सौ से ज्यादा अम्मेंडमेंट किए जा चुके है| समय के अनुसार संविधान के आर्टिकल को मॉडिफाई करने का भी अधिकार इसी संविधान ने दिया है| चुकी हमारे पूर्वज जानते थे कि समय बदलाव की माग कर सकते है| समय हिसाब से हमेशा बदलाव होते आए है| जब सती प्रथा को ख़त्म किया जा रहा था तब भी हिन्दू धर्म में बहुत सारे विरोध के स्वर उठे थे| यहाँ तक कि जब हिन्दू कोड बिल आया आजादी के बाद तब भी विरोध की आवाजें सुनाई पड़ी थी| सती प्रथा, जौहर प्रथा, बाल विवाह इन सब पर भी तो कानून बनाकर रोक लगाया गया|

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आठवां सवाल यह कि आखिर सरकार को यही एकमात्र समस्या नजर आता है क्या? क्या गरीबी, बेरोजगारी जैसी समस्याओं से ज्यादा महत्वपूर्ण है? ये बात सही हो सकती है कि वो इनसे ज्यादा महत्वपूर्ण तो नहीं है लेकिन कहीं न कही यूनिफार्म सिविल कोड का लिंक उन समस्याओं से भी जुडा है| मनचाहे जब मर्जी आए अनैतिक तरीके तलाक दे देने की प्रक्रिया प्रतिकूल रूप से समाज को प्रभावित करती है| यहीं नहीं पति पर निर्भित औरत को आर्थिक तौर पर समाज की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है|

आई.एम.ऍफ़. में मैनेजिंग डायरेक्टर क्रिस्चियन लगार्ड ने साल भर पहले एक रिसर्च के आधार पर डाटा रिलीज़ किया था कि अगर भारत में औरत और मर्द बराबर काम करना शुरू कर दे जो भारत की जीडीपी में 27% का इजाफा होगा| आज हम शिक्षा पर अपने जीडीपी का कुल 2 से 3 प्रतिशत भी ढंग से उपयोग नहीं कर पा रहे है अब इससे अंदाजा लगा सकते है कि कितना बड़ा असर पड़ेगा अगर औरतों को भी समान रूप से तवज्जो मिलनी शुरू हो जाएगी| इसलिए मुस्लिम समाज में पुरुषवादी परुषप्रधान समाज वाली सोच को ख़त्म करके एक नए भारत का स्वागत करना चाहिए|

अंत में निष्कर्ष के रूप में मै यही कहना चाहूँगा कि एक धर्मनिरपेक्ष लोकतान्त्रिक देश संविधान से चलता है शरिया से नहीं| आजादी के वक्त सरदार पटेल ने गाँधी जी से कहा कि जिन्ना मुस्लिम कंट्री बना रहे है वो हिन्दुओं को बिल्कुल भी अधिकार नहीं देंगे| हमें भी ऐसे ही कदम उठाने चाहिए| गाँधी जी ने उनका बड़ा ही प्यारा जवाब दिया था प्रिय सरदार पटेल आप जिन्ना नहीं हो न? आप तो उनसे अलग हो न| हमारे देश में मुस्लिम लोग के पूर्वजों ने अपने साथियों का हाथ झटक तक बोला नहीं मुझे भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश में ही रहना है| अगर इनके पूर्वजों को शरिया पसंद होता तो वो भी पकिस्तान चले गए होते| कम से कम अपने पूर्वजो के फैसलों का तो सम्मान करना ही चाहिए|

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4 thoughts on “देश में यूनिफार्म सिविल कोड क्यों जरूरी है ?”

  1. इस तार्किक आलेख के लिए हार्दिक धन्यवाद, गौरवजी। तथ्य को विन्दुवत उठाया गया है। और कायदे से बात रखी गयी है।
    शुभ शुभ

    Reply
  2. इस तार्किक आलेख के लिए हार्दिक धन्यवाद, गौरवजी। तथ्य को विन्दुवत उठाया गया है। और कायदे से बात रखी गयी है।
    शुभ शुभ

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