भारत में पूंजीवाद का कैटेलिस्ट है राष्ट्रवाद

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राष्ट्रवाद” एक ऐसा विषय है जिसपर हमेशा से चर्चा होता आया है| इस पर अक्सर हमें विवाद देखने को भी मिल जाता है| अगर भारत की बात करें तो आजादी के वक्त राष्ट्रवाद एक सकारात्मक शब्द था| लेकिन आज यह मजाक मात्र बनकर रह गया है| इस मजाक के सबसे बड़े हिस्सेदार वो लोग है जो इसकी पैरोकारी करते आए है| भारत में सबकुछ भिन्न है| सब जगह खान-पान, पहनावा-ओढावा, बोलचाल और सांस्कृतिक सबकुछ अलग है| यहाँ समाज भी अलग अलग किस्म के है| यहीं नहीं यहाँ तक कि पानी का स्वाद भी बदलता रहा है| प्रकृति भी हमें बताता है कि हम एक-दुसरे से अलग है| इसके बावजूद हम सब एक धागे से अपने आप को पिरोया हुआ है| इस देश के प्रति यह जो भावना है वही असल राष्ट्रवाद है| वो तो कतई नहीं है जो हर दूसरा दिन प्राइम टाइम करके राष्ट्रवाद का अटेंडेंस लगवाता है| मै समझता हु कि कोई भी खास अल्फाज बोलने या न बोलने का ना तो राष्ट्रवाद से कोई लेना देना है और नाही देशभक्ति से| मै ऐसा इसलिए कह रहा हूँ क्युकी यूरोप और भारत का राष्ट्रवाद बिल्कुल अलग रहा है| सबसे पहले हमें यह समझना जरूरी है|

भारत में भी ‘राष्ट्रवाद’ शब्द को लेकर दो-तीन धड़े है| पहला धड़ा इसके विरोधी और दुसरे धड़े में इसके समर्थक और तीसरे में वो लोग जिनको इससे कुछ लेना देना ही नहीं है| राष्ट्रवाद शब्द के मुखर विरोधी रहे लोग भारत के राष्ट्रवाद को यूरोप के राष्ट्रवाद के समक्ष रखकर बातें करते है| यही कारण है कि राष्ट्रवाद के हर डिबेट में हिटलर और मुस्सोलीनी की बातें आ ही जाती है| अफ़सोस की बात यह है आजादी के वक्त वाला राष्ट्रवाद विषय वस्तु से अझोला रह जाता है| वही इसके समर्थक लोगों के साथ परेशानी यह है इस शब्द को लेकर बहुत ज्यादा भावुक हो जाते है| किसी ख़ास शब्द को लेकर भावुक हो जाना ही पूंजीवादी या व्यावसायिक लोगो को खेलने के लिए भरपूर मैदान प्रदान करने लगता है| खैर राष्ट्रवाद जैसी विषय पर मै लिखना बिल्कुल नहीं चाहता क्युकी तमाम लोगों ने अलग अलग श्रोतों से बहुत सारी चीजें पढ़ी और समझी है| लेकिन राष्ट्रवाद के प्रति भावुक लोग वाला पक्ष मुझे कुछ लिखने के लिए आकर्षित करता है|

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भारत भावनाओं वाला देश है| यहाँ लोग व्यावहारिक नजरिए से बहुत भावुक लोग रहते है| भावुकता का कभी ख्याल रखा जाता है, तो कभी उपहास उड़ाया जाता और कभी इसे व्यवसाय का एक हिस्सा बना दिया जाता है| इसी भावुकता ने मोहनदास करमचंद गाँधी को महात्मा गाँधी बना दिया| भावुकता की गुण ने जयप्रकाश नारायण जी के एक आवाज पर एक प्रतिरोध की आवाज बनाने के लिए निस्वार्थ सहयोग किया| बच्चे-बूढ़े से लेकर छात्र तक सबने सामने आकर समर्थन किया| इसी भावुक व्यावहारिकता ने भ्रष्टाचार की मुहीम में हर संभव अन्ना हजारे का सहयोग दिया| निर्भया के इन्साफ के लिए निस्वार्थ लोग कैंडल लेकर तमाम जगहों पर जा पहुचे| इसी भावुकता ने साफ़ और स्वच्छ राजनीती की उम्मीद में अपनी कमाई का एक हिस्सा ‘आम आदमी पार्टी’ को दान देने लगे| इसमें कोई शक की बात नहीं है कि लोग अपने देश के प्रति बहुत जागरूक है| इस देश को समृद्ध बनाने के लिए हर संभव आगे आने को तैयार है| जरूरत बस इस चीज को जानने की है कि वो जाने अनजाने कोई इसके आड़ में भावुक होकर अपराध तो नहीं कर रहे है|

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इस भावना का पूरा पूरा फायदा उठाया जाता रहा है| मेरी नजर उनलोगों पर है जो अपनी व्यक्तिगत फायदे के लिए इसका गलत फायदा उठा रहे है| आज के समय में अगर राष्ट्रवाद को एक वाकय में मुझे कहना होगा तो मै यही कहूँगा कि “राष्ट्रवाद भारत में पूंजीवाद का कैटेलिस्ट बन चूका है|” इस वाक्य को मजबूत बनाने के लिए मै उदाहरण सहित तर्क पेश कर रहा हूँ| आपने कभी विज्ञापनों पर गौर किया है? उदहारण के रूप में ‘कजारिया सीमेंट’ को ले लीजिए| इसका विज्ञापन फिल्मस्टार अक्षय कुमार साहब करते है| शुरुआत होती है जिसमे वो फौजी बने होते है| गाड़ी के कूदते है और फौजियों की तरह क्राव्लिंग करते हुए इसका विज्ञापन करते है| इसके बाद वो लड़कियों की रेसलिंग को भी बीच में लाते है| मेरा कहने का मतलब है कि सीमेंट के विज्ञापन से इन सभी चीजों का कुछ लेना देना ही नहीं है| हम लोग के भावुकता को विज्ञापन बनाने वाले लोग अच्छी तरह से समझते है कि बाजार कैसा है लोग कैसे भावुक किए जा सकते है| नहीं तो मुझे नहीं लगता कि किसी भी वस्तू की ब्रांडिंग करने के लिए सेना या खेल को बीच में लाना जरूरी भी हो सकता है|

ऐसा नहीं है कि यह एकलौता है| दुसरे उदहारण में बाबा रामदेव का पतंजली को ही ले लीजिए| उन्हें व्यापारिक दुनिया में आने से मुझे कोई दिक्कत नहीं है| सबके लिए दरवाजा खुला रहता है| इसलिए बाबाजी और व्यापारी वाला मेरा फिक्स माइंडसेट नहीं है| लेकिन वही बाबाजी अपने प्रोडक्ट बेचने के लिए देश को बीच में लाएँगे और भावुक चीजों को उकेरेंगे तो ध्यान जरूर उस ओर आकर्षित होगा| उदहारण के रूप में बाबाजी अपने पतंजली के आटें के प्रचार में देश का उपयोग करते है| वो कहते है कि ‘अपनी सेविंग की बचत और देश की सेवा के उपाय’ के रूप में पतंजली आटा को देखते है| अगर मै पतंजलि के आटे को खाता हूँ तो देश का सेवा का क्या संबंध है यह मेरे समझ के परे है| और भी भारतीय ब्रांड के आटें है जो किसी अन्य चीजों को लाने के बजाए अपने गुणवता पर ज्यादा जोर देते है| अपने प्रोडक्ट को देशी बताने की आड़ में कई बार तो Food Safety and Standards Authority of India (FSSAI) के मानक पर भी खरे नहीं उतर पाते है| यही नहीं Advertising Standards Council Of India (ASCI) जैसी संस्थाएं इनके विज्ञापन को गलत पेश करने की वजह से जुर्माना भी लगा चुकी है|

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इसके अलावां और भी इनके विज्ञापन है जो हर ब्रांड को देश से जोड़ कर प्रदर्शित करते है| फेसवास से लेकर बाकी के जितने भी प्रोडक्ट है सबके थीम एक जैसे ही है| मुझे लगता है इन्हें अपने प्रोडक्ट की गुणवता का प्रचार प्रसार करना चाहिए ना कि भावनाओं का फायदा उठाना चाहिए| इसमें भी कोई शक नहीं है कि इनके कुछ प्रोडक्ट काफी शानदार है जिसका उपयोग मै भी करता हूँ| मेरी चिंता सिर्फ इस बात को लेकर है कि अगर व्यापार में उतरें है तो भावनाओं की आड़ लेने के बजाए प्रतिद्वंदी को अपने प्रोडक्ट की गुणवता से चुनौती दीजिए| लगभग सारे क्षेत्रों में यही पैटर्न रहा है| टेलिकॉम क्षेत्र में जिओ का हम सबने देखा ही कि कैसे चीजों को ब्रांडिंग किया गया| लेकिन एक क्षेत्र ऐसा आया है जहाँ पहले यह सब इतना नहीं था लेकिन आजकल बढ़ सा गया है| वो है बॉलीवुड| बॉलीवुड भी इस भावनात्मक खेल का हिस्सा बढ़ता जा रहा है| उनके त्वीट्स और उनकी बातें न्यूज़ हैडलाइन बन रही है| मुझे ताज्जुब तो तब और होता है जब किसी भी विषय पर चर्चा के लिए बॉलीवुड के सितारों को टीवी डिबेट में बुलाया जाता है|

देश का एक बड़ा तबका देश के प्रति भावुक सा हो गया है| इस भावुकता का गलत फायदा उठाने के लिए पुराने नेताओं को भी केंद्र में लिया जा रहा है| उदाहरण के रूप में इधर रिलीज़ होने वाली फिल्मों पर नजर गड़ाए तो एक बात समझ आएगी| देशराग, बादशाहों, इंदु सरकार जैसी फ़िल्में कहीं न कहीं निश्चित रूप से लोगों की भावनाओं को उकेरने का काम करेगी| मै यह बिल्कुल नहीं कह रहा कि किसी ख़ास विषय पर फिल्मे नहीं बनाई जा सकती| बिल्कुल बनाई जा सकती है| इसमें कोई हर्ज नहीं है| लेकिन सबकी आँखे अभी ही क्यों खुल रही है? यह गौर करने वाली बिंदु है| यह सत्य है कि आपातकाल भारतीय राजनीती का एक बुरा वक्त था| लेकिन यह भी सत्य है कि इंदिरा गाँधी ने देशहीत में बहुत सारे ऐसे फैसले लिए है जिसकी वजह से वो आयरन लेडी के रूप में लोगों के दिमाग में चित्रण करवा पाई| इसके अलावां बॉलीवुड में धार्मिक चीजों को भी केंद्र में रखकर खूब ब्यापार किया जा चूका है| पी.के. जैसी फिल्मों ने भावनाओं पर ही तो खूब कमाई की है| इसलिए बॉलीवुड का व्यापार भी इस भावनाओं वाली नब्जों पर काम करना शुरू कर दिया है|

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मीडिया में भी ऐसा ही पैटर्न रहा है| मीडिया भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अपने आप को देशहीत और बाक़ी को देश विरोधी बताने में पीछे नहीं हटती| टीआरपी की दौड़ में अपने आप को देशहीत में जारी कर भावनाओं को अपना आधार बनाना चाहती है| ऐसा इसलिए करती है ताकी लोग चैनल को ज्यादा से ज्यादा देखे और उनकी ज्यादा से ज्यादा कमाई हो| इसकी वजह से बहुत सारे मुद्दें जिसे मीडिया का एक हिस्सा होना चाहिए था वो अछूता रह जाता है और जो फालतू की चीजें टीवी स्क्रीन का हिस्सा बन जाता है| कुछ एक चैनल तो ऐसे है जो तीन चार टॉपिक को रोटेट करके महीनों भर प्राइम टाइम करते है जो भावनात्मक रूप से उकसा सके| यही हाल भारतीय राजनीती का है| भारतीय राजनीती में भी लोगों के भावनाओं को राष्ट्रवाद के नाम पर भड़काया जाता है और गलत तरह से उपयोग किया जाता है| लगभग हर व्यवसाय में यह शब्द कैटेलिस्ट की तरह काम करता है| अगर कोई भी ऐसा व्यवसाय है और वहाँ पर भावुकता वाली चीजें आ जाती है जो जाने में राष्ट्रवाद की पहले हिस्सा बनती है और अनजाने में व्यवसाय का हिस्सा बन जाती है| इसलिए लोगों को तार्किक होना पड़ेगा और बुरा भला के बारे में सोचना ही पड़ेगा|

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