अभी कुछ दिन पहले मेरी मुलाकात शरद श्रीवास्तव जी से हुई | वे अपनी कंपनी की तरफ से मेरे कॉलेज में आए थे | उनसे मिल के बेहद अच्छा लगा | हालाँकि संवाद काफी दिनों से होती रही है लेकिन प्रत्यक्ष रूप से मिलने का आनन्द ही अलग होता है | कुछ चीजें होती हैं जिन्हें मैं किसी से सुनता हूँ, कहीं पढता हूँ तो सदा के लिए मेरे दिल में घर कर जाती है | यहाँ आने के बाद से शरद जी से बहुत सारी की बातें हुई हैं | बहुत कुछ सीखा भी है | कुछ अच्छी किताबों से अवगत होने का मौका भी मिला है जिन्हें हाल में पढ़ हम रहे हैं |
चूँकि मैं किताबें पढने का बड़ा शौक़ीन हूँ तो जैसे ही नई किताबों के बारे में सुनता हूँ तो रूचि थोड़ी बढ़ जाती है | उन्होंने वार्तालाप के दौरान एक बड़ी ही महत्वपूर्ण बात कही | उनका कहना था कि “धर्मनिरपेक्ष होने के लिए नास्तिक होने कोई शर्त नहीं हो सकती” | ये बात दोनों पक्षों पर समान रूप से लागू होती है | ये सही भी है | अधिकांशतः लोग शायद ऐसी ही चीजों को समझने में भूल कर देते हैं | फेसबुक स्टेटस और टीवी डिबेट से कहीं बढ़कर मानवीय मूल्य होता है जिसे समझना जरूरी है | देश दुनिया की कोई समस्या कोई अकेले हल नहीं कर सकता | एक साझेदारी की जरूरत तो पड़ती ही है |
इसमें कोई संदेह नहीं कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है | संविधान में धर्मनिरपेक्षता के स्वरूप को स्पष्ट किया गया है | संविधान के अनुसार भारत का कोई धर्म नहीं है | भारत सभी धर्मो के साथ समान रूप से बर्ताव करेगा | यहाँ के लोग किसी भी धर्म में आस्था रख सकते हैं| किसी भी पूजा पद्धति को अपना सकते हैं | अपनी धार्मिक रीति-रिवाजो के मुताबिक पूजा-पाठ और शादी-ब्याह कर सकते हैं | व्यावहारिक रूप से देखें तो भारत के अलावा किसी भी देश ने इसे बढ़िया से लागू नहीं किया है | लेकिन नास्तिकता के आधार पर धर्मनिरपेक्षता को प्रमाण-पत्र नहीं दिया जा सकता है | आधुनिक भारतीय इतिहास में अगर किसी भी धर्मनिरपेक्ष नेता का नाम पूछा जाये तो सबसे पहले महात्मा गाँधी का नाम निकल कर आता है |
तो यहाँ प्रश्न यह उठता है कि क्या महात्मा गाँधी नास्तिक थे ? बिल्कुल नहीं | आध्यात्मिक गाँधी जी मरते समय ‘हे राम’ कहा था| यह प्रमाणित करता है कि धर्मनिरपेक्ष होने के लिए नास्तिक होना कोई शर्त नहीं हो सकती है | फिर एक प्रश्न लोगो के मन में उठाना चाहिए कि क्या हमारा संविधान नास्तिक होने का अधिकार देता है ? जवाब है, बिल्कुल देता है | हमारा संविधान धार्मिक आस्था रखने की स्वतंत्रता देता है लेकिन बाध्यता नहीं देता | धर्मनिरपेक्षता को कारण बताकर नास्तिक होने को तो बिल्कुल नहीं कहता | किसे पंथ के प्रति आस्था नहीं है, मत रखिए, लेकिन जो लोग किसी पंथ की आस्था में विश्वास रखते हैं, उनका सम्मान कीजिए जैसे वो आपका करते हैं |
आज के समय में नास्तिकता शब्द को भारतीय सेक्युलर वर्ग ने धर्मनिरपेक्षता का पर्याय बनाकर महामंडित कर दिया है | कोई भी धार्मिक आस्था वाला व्यक्ति सेक्युलर नहीं कहा जाता| इन सबों से ऊब कर धर्म को मानने वाला एक प्रगतिशील भी सेक्युलर जमात में अपने आप को संकुचित महसूस करता है | आज के समय में अल्पसंख्यक समुदाय का अंधसमर्थक सेकुलरिज्म का प्रतीक बन गया है | आज के समय में पारंपरिक ज्ञान का व्यवहार करने वाला धर्मनिरपेक्ष नहीं कहा जा रहा है, वहीं दूसरी ओर, प्रगतिशील विचारों से अछूता व्यक्ति धर्म के प्रति अपने बैर के कारण ही धर्मनिरपेक्ष कहा रहा है |
किसी भी प्रकार की बेवकूफी, मूर्खता, अपराध यदि किसी धर्म के विरुद्ध ठहरता है तो उसका पुरजोर समर्थन करने वाले व्यवहार में धर्मनिरपेक्षता के लक्षण देखे जाते हैं | एकबार फिर कह रहा हूँ यह थ्योरी हर समुदाय पर लागू होती है | ऐसा अन्धविश्वास हमारे समाज में अपनी गहरी पैठ बना चुका है | सोशल मीडिया का यह नकारात्मक पहलू है | मेरी समझ से भारत में धर्मनिरपेक्षता अनिवार्य गुण है तो वो उदारता से मान्य होनी चाहिए, जिसके अनुसार धार्मिक नैतिकता और मानवता दोनों की प्रशंसा भी करनी होगी | जरूरत और सत्य के मुताबिक बहुसंख्यक धर्म का पक्ष और अल्पसंख्यक धर्म का विरोध भी करना होगा | प्रगतिशीलता के जड़-स्वरूप, गन्दी राजनीति, हिंसा आदि का समान रूप से विरोध भी करना होगा |
प्रधानमंत्री जी ने ‘वर्ल्ड सूफी फ़ॉरोम’ के मंच से क्या शानदार बात कही है | लोगों को इसका स्वागत करना चाहिए | एक दर्शक के रूप में मैंने यह महसूस किया है कि मोदी जी कितना भी कुछ कह लें लेकिन उनका अतीत आज भी पीछा नहीं छोड़ती | जबकी समय बदल रहा है, सबकुछ बदल रहा है | दलों की सोच बदल रही है | व्यवहार बदल रहे हैं | इस धारा में लोगो को बदलना काफी जरूरी है | फालतू के चीजों से ऊपर उठकर वर्तमान की वैश्विक चुनौतियों का सामना करना बेहद जरूरी है | इसमें में हमारे देश की भलाई है और युवाओं के जोश का सही सदुपयोग |
यह आजादी के बाद से इतिहास रहा है जब भी मुस्लिम तबके की बातें आती हैं तो एक नुमायंदा की तलाश की जाती है | मैंने पहले भी कहा था और आज एकबार फिर कह रहा हूँ इस तबके का विकास कोई नहीं कर सकता सिवाय उनके खुद के | इसके लिए शिक्षा एक माध्यम बन सकता है | सर पर टोपी लगा लेने से कोई आपका नुमयंदा नहीं बन सकता, खासकर वे लोग तो बिल्कुल नहीं जो सदियों से एक राजनितिक मोहरे के रूप में इनका उपयोग करते आए हैं | अपने धर्म का नुमायंदा चुने जाने से विकास का कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है | चाहे बात कांग्रेस की हो या ओवैसी बंधुओं की, चाहे बात सपा और आजमखान की क्यों न हो | मैं आज ओवैसी बंधुओं को केंद्र में रखना चाहता हूँ |
मैंने उनके कुछ भाषण सुने हैं | उनकी कहानी वही दंगों उर्दू के लच्छेदार शब्दों और उकसाने वाले वाक्यों से शुरु होती है और मुस्लिमों की बेचारगी का सवाल उछालती हुई ख़त्म हो जाती है | कहने को तो ये होता है कि वो ये कई संस्थाएँ चला रहे हैं, वो कॉलेज और स्कूल चला रहे हैं | अगर बात इन्हीं स्कूलों और संस्थाओं से बन सकती है और आपको विकासपुरुष के रूप में प्रमाणित करती है तो आरएसएस या योगी में क्या हर्ज है | वो तो आपसे कई गुना ज्यादा स्कूल चलाते हैं | लेकिन बात वो नहीं है | क्या जरूरत है ‘भारत माता की जय’ जैसे वाकये को इस तरह से हवा में उछालने का ? क्या इन सबसे मुस्लिमों का इससे विकास होगा ? अगर यह कहने और न कहने से भारत में रह रहे मुसलमानों की गरीबी कम होती तो शायद कोई कुछ कहता ही नहीं |
यह भी कहना गलत होगा कि यह वाकया हाल का है या आरएसएस द्वारा उछाला हुआ है क्योंकि आरएसएस बना 1925 में जबकि ऐसे स्लोगनों की चर्चा स्वतंत्रता आन्दोलन में हुई थी | 1905 में अबिन्द्रनाथ ने अपनी पेंटिंग के जरिए ‘भारत माता’ का स्वरुप दिया था | वैसे भी ओवैसी से किसी ने कुछ कहा थोड़े ही, उन्होंने स्वयं प्रश्न किए और अपने ही जवाब दिया | मीडिया ने इसे प्राइम टाइम में जगह देकर इसे लाइमलाइट में ला दिया | क्या भाषण में विवाद भरी बातें कहने से मुस्लिमों का विकास होगा ? उनके लिए आपके पास क्या मॉडल है ? अल्पसंख्यकों को मुख्य धारा में जोड़ने वाला कोई भी प्रयास आपमें मुझे नहीं दिखता | फलस्वरूप मै कह सकता हूँ कि आप अल्पसंख्यकों के सही प्रतिनिधि नहीं हैं |
सरकार के विरुद्ध किसी अल्पसंख्यक समुदाय को खड़ा करने से कभी विकास नहीं होता | ये बात सबको समझ आती है | पार्टी से मतभेद अलग चीज है और मुद्दे का सही विरोध अलग चीज है | मै तो बहुत सारे मुद्दों पर सरकार के प्रति असहमत रहता हूँ |उसके पीछे तर्क भी देता हूँ | जैसे हालिया पी.पी.ऍफ़. वाल मुद्दे पर तो कतई सहमत नहीं हूँ |इन चीजों में बहूत महीन अंतर है जिसे समझना काफी जरूरी है | उनकी कोशिश यह भी रहती है कि दलित-पिछड़े लोगो को अपने पक्ष में करके एक दबाव समूह बनाया जा सकता है |
उनकी पार्टी का नारा इस बात को प्रमाणित करने के लिए काफी है | अच्छा लगता अगर वो मुस्लिम के समस्याओं को उठाते और उनके निदान की कोशिश करते | आज के मुस्लिम लीडरों में शाहीद आजमी जैसे ज़ुनून की आवश्यकता ज्यादा है, बजाय धर्म के नाम पर ढोंग करने के | बेशक शाहिद की शुरुआत कैसी भी रही हो लेकिन उनका अंत एक क्रातिकारी था | मेरी समह से हूँ ज्यादा से ज्यादा कोशिश यही रहे कि अपने बच्चे को इतनी बढ़िया शिक्षा दी जाय कि किसी नुमायंदे की बकवास सुनने की ज़रूरत ही न पड़े | लेकिन जो आजके महत्वकांक्षी नुमायंदे हैं, वो चाहेंगे ही नहीं कि ऐसा हो । वर्ना फिर वोट क्या बोलकर मांगेंगे?
अंत में मै यही कहना चाहूँगा कि लोगों को सामाजिकता और विचार के प्रति जागरूक करना होगा | सामाजिक शांति और देश के विकास के लिए यह बेहद जरूरी है | चूँकि किसी भी समस्या का सिर्फ राजनितिक हल नहीं होता, बल्कि टेक्निकल और सामाजिक हल भी होता है । सबसे एफ़ीसिएंट हल तो वो होता है जिसमे तीनो प्रकार के हलों का समावेश हो |
सामाजिक हल अपने में बदलाव लाकर ही हो सकता है जहाँ सामाजिक चेतना की खास जरूरत पड़ती है | किसी ख़ास समुदाय को नजरंदाज करके किसी भी विकास संगत लक्ष्य को हासिल नहीं कर सकते | सबका साथ होना जरूरी है | साथ होने के लिए आज के बनावटी डेफिनिशनों को अलविदा कहना ही होगा, इसी में सबकी भलाई है | समृद्धि, विकास और मानव समुदाय को परंपरागत विचारों के सापेक्ष स्वीकारना बहुत जरूरी है | संविधान का सही सम्मान भी इसी में समाहित है |
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