भारतीय लोकतंत्र में मुस्लिम तुष्टिकरण

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भारत में तुष्टिकरण कोई नई बात नहीं है| लोकतंत्र की खामियों में से एक खामी मुस्लिम तुष्टिकरण भी रहा है| यह तुष्टिकरण कहीं न कहीं देश की बहुसंख्यक आवाम में असंतोष पैदा करता है| तुष्टिकरण की इस प्रक्रिया में न सिर्फ सत्ताधारी सरकारें शामिल होती है बल्कि मीडिया, बॉलीवुड, बुद्धिजीवी वर्ग, प्रशासन और यहाँ तक की न्याय की सबसे बड़ी मंदिर सुप्रीम कोर्ट भी शामिल होती है| वोट बैंक की राजनीती तुष्टिकरण जैसी प्रक्रियाओं के सफल होने के मुख्य कारण है| इस सच को छुपाने के लिए कभी अल्पसंख्यक सरंक्षण का सहारा लिया जाता है तो कभी मौलिक अधिकारों और धार्मिक आजादी जैसी चीजों का सहारा लिया जाता है| हालाँकि भारत में 2014 के बाद से एक नई प्रकार की राजनीतीक आयाम की शुरूआत हुई है जिसमें राजनितिक तुष्टिकरण का परिणाम राजनितिक दलों पर भारी पड़ा है| हालाँकि बाक़ी के संस्थानों में अभी भी तुष्टिकरण जोरों पर है|

सबसे पहले राजनितिक तुष्टिकरण से शुरुआत करते है| भारत में विपक्ष आज भी तुष्टिकरण करके अपनी अल्पसंख्यक वोटों को सुरक्षित करने की असफल कोशिश कर रहा है| इसके असफल होने के मुख्य कारण यह है कि अल्पसंख्यक गेंदों को खेलने वाले खिलाडियों की संख्या काफी बढ़ चुकी है| वही दक्षिणपंथी दल जैसे बीजेपी ने अपने बहुसंख्यक खेमे को अपनी ताकत बनाकर लगातार दूसरी बार सत्ता में आने में कामयाब हुए है| हालाँकि राजनितिक तुष्टिकरण के बहुत सारे उदारहण है| जिसमे अभी का ताजा उदाहरण है दिल्ली में हुई घटना से जुडा है| कभी भी तुष्टिकरण को समझने के लिए तुलनात्मक अध्ययन की जरूरत पड़ती है| इसी क्रम में पहले उदहारण के रूप में दो घटनाओ को लेते है|

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अभी कुछ साल पहले अख़लाक़ की घटना हुई थी| कुछ असामाजिक हिन्दू लोगों ने बीफ की शक के आधार पर उनके घर में घुसते है और उनकी हत्या कर देते है| घटित हुई घटना गलत है या सही यह अलग डिबेट का हिस्सा है| मेरा ध्यान उस घटना पर होने वाली प्रक्रियाओं पर है| तमाम विपक्षी राजनितिक दल के खिलाड़ी ने इसे मौका के रूप में देखा और अपनी संवेदना के सहारे अपने खेल को हवा देने लगे| यहाँ तक की अखलाक की हत्या का उदहारण यूनाइटेड नेशन में भी पेश किया गया| वही दूसरी ओर हाल में, बेटी से हुई छेड़खानी का विरोध करने पर दिल्ली में ध्रुव त्यागी की हत्या चाकू गोदकर कर दी जाती है| यहाँ पर गोदने वाले असामाजिक मुस्लिम लोग थे| लेकिन ताजुब की बात यह है कि यहाँ राजनितिक संवेदना की कोई जगह नहीं मिल पाई| राजनितिक खेमे में ऐसे सैकड़ो उदाहरण मौजूद है|

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दूसरी केस स्टडी के तौर पर बुद्धिजीवी वर्ग के एक ख़ास तबके को केंद्र में लेते है| बुद्धिजीवी वर्ग जिसमें पढ़े-लिखे लेखक, पत्रकार और प्रोफेसर आते है| इनका भी एक तबका है जो अल्पसंख्यक तुष्टिकरण का निरंतर हवा देता रहा है| उदहारण के रूप में इस वर्ग के एक तबके ने अपनी पूरी असफल कोशिश की कि यह साबित कर सके कि मुंबई का हमला आरएसएस ने करवाया है| “हिन्दू आतंकवाद” जैसे झूठे कांसेप्ट का आकार देने में असफल रहे| मालेगांव बम धमाके आरोपी मात्र प्रज्ञा सिंह ठाकुर को आतंकवादी घोषित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी| वहीँ दूसरी ओर एक शख्स याकूब मेनन का केस चलता है| घटना के 22 साल बाद कोर्ट दोषी करार देता है और उसे फांसी की सजा सुनाता है| इसके बावजूद उसके पक्ष में आधी रात को इस वर्ग द्वारा कोर्ट का दरवाजा खटखटाया जाता है| क्यों ? ताकी यह आतंकवादी साबित हुए मेमन को धार्मिक आड़ में बेगुनाह साबित किया जा सके|

इसके अलावां एक और शख्स अफजल गुरु जिसे पार्लियामेंट पर अटैक के जुर्म में फांसी की सजा सुनाई जाती है| इंडियन टुडे के इंटरव्यू में वो सबकुछ बताता है कि वो कैसे इस पूरी घटना में शामिल था| इसके बाद भी बुद्धिजीवी वर्ग की संवर्धन में देश के प्रतिष्ठित संस्थान जवाहर लाल नेहरु जैसे यूनिवर्सिटी में इनकी बरसी मनाई जाती है और देश विरोधी लगाए जाते है| या आरोप लगाया जाता है कि उनकी न्यायिक हत्या की गई है| (फोटो में वो JNU का पोस्टर है) एक शख्स पुलवामा हमले में विडियो बनता है| अपना धर्म बताता है| हमले के पीछे का धार्मिक कारण भी बताता है| वो खुद को ब्लास्ट कर हमारे 45 जवानों को शहीद करता है| ब्लास्ट करने वाले की बॉडी का पुतला बनाकर हजारों लोग नमाज-ए-जनाजा में शामिल होते है| फिर भी यह नहीं कहा जाता कि उसका कोई धर्म है| लेकिन मालेगांव की एक घटना जिसका अभी तक कुछ तय नहीं हो पाया है उसे आतंकवादी जरूर तय कर दिया है| यह बुद्धिजीवी वर्ग के एक तबके द्वारा किया गया तुष्टिकरण का बेहतरीन नमूना है|

तीसरे केस स्टडी में प्रशासन को केंद्र में लेते है| हालाँकि प्रशासन को मै दोषी नहीं मनाता क्युकी प्रशासन एक मुखौटे मात्र ही इसमें शामिल होता है| असल लोग परदे के पीछे सफ़ेद कुर्ते-पजामे वाले राजनितिक लोग होते है| सरकार जैसा आदेश देती है वैसा ही सरकारी अफसर करते है| दिल्ली के जामा मस्जिद के इमाम के बेटे पर बहुत ही घिनौने आरोप है| प्रशासन कार्यवाई करने से इसलिए कतराती है जिससे वहाँ का माहौल ख़राब न हो जाए| दिल्ली पुलिस ने बाकायदा सुप्रीम कोर्ट को नोटिस भी दिया कि उनको गिरफ्तार नहीं किया जाए, माहौल ख़राब हो सकता है| वो लोग इस कमजोरी का भरपूर फायदा उठाते है| प्रशासन इसे छेड़कर किसी भी प्रकार का तनाव नहीं लेना चाहती| वहीं दूसरी ओर गुरमीत राम रहीम की गिरफ़्तारी के लिए प्रशासन उनके समर्थकों पर गोलियां तक चलाती है जिसमें 31 लोगों को मौत होती है| राम रहीम गलत थे या सही वो एक अलग चर्चा का विषय है| बात यहाँ पर दोनों तरफ होने वाली प्रतिक्रियाओं की है|

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चौथे केस स्टडी में बॉलीवुड को केंद्र में लेते है| निसंदेह रेप एक घिनौना कृत्य है| चाहे रपे कठुआ का हो या मंदसौर या फिर अलीगढ का केस हो| जम्मू कश्मीर के कठुआ में आठ साल की बच्ची “आसिफा रेप” के साथ बलात्कार और उसकी हत्या बलात्कारियों द्वारा कर दी जाती है| कार्यवाई होती है, लोग गिरफ्तार होते है और केस आगे बढ़ता है| पूरा बॉलीवुड इसे एंटी-हिन्दू जैसे कैंपेन चलाता है| देश को हिटलर की जर्मनी जैसा दिखाने की कोशिश की जाती है| बॉलीवुड के खिलाड़ी पोस्टर के साथ फोटो खिचवाते है और ट्विटर पर #I_am_Hindustan और I_am_Ashmed जैसे हैश टैग से अपना विरोध जताते है| वही घटना जब अलीगढ में घटता है तो पूरा बॉलीवुड खामोश होता है| क्युकी बच्ची का नाम “ट्विंकल शर्मा” होता है| यह नाम देखकर कैंपेन चलाने की प्रवृति ही धार्मिक तुष्टिकरण है|

पांचवे केस स्टडी के तौर पर सुप्रीम कोर्ट को केंद्र में लेते है| सुप्रीम कोर्ट देश की सर्वोच्च संस्था है| लोकतंत्र के मुख्य स्तंभों में से एक स्तम्भ सुप्रीम कोर्ट को भी माना जाता है| लेकिन इस खेल में सुप्रीम कोर्ट भी पीछे नहीं है| आज तक यही साफ़ नहीं हो पाया है कि कौन सा धर्म से जुडा है और कौन सा संविधान से| सुप्रीम कोर्ट ‘सबरीमाला’ के केस में लैंगिक न्याय का हवाला देकर एक खास उम्र की औरतों (10 से 50 साल तक) पर लगे प्रतिबंध को हटाने का निर्देश दे दिया| ताज्जुब की बात यह है कि इसके पीछे एक झूठी नैरेटिव बनाई गई| वो ये कि मंदिर में औरतों का प्रवेश वर्जित है| जबकी सच यह है कि वहाँ के लोग जिस देवता को मानते है उसके प्रकृति के अनुसार ही वर्जित किया गया है| जबकी दूसरी ओर देश में आठ ऐसे मंदिर है जहां पुरुषों के आने पर रोक है|

उदहारण के तौर पर केरल का अट्टुकल मंदिर, केरल का छक्कूलाथुकावु मंदिर, कन्याकुमारी के भगवती मां मंदिर, नासिक का त्र्यंबकेश्वर मंदिर, पुष्कर का ब्रह्मा मंदिर, मुजफ्फरपुर का माता मंदिर, असम का कामरूप कामाख्या मंदिर आदि शामिल है जहाँ सिर्फ महिलाएँ ही जा सकती है| वास्तव में यह विषय आस्था का है| लेकिन जब बात अल्पसंख्यक अमुदाय की आती है तब सर्वोच्च न्यायलय बिना उनके धार्मिक ग्रन्थ का न्याय नहीं सुनाता| इंस्टेंट ट्रिपल तलाक पर अपनी वर्डिक्ट सिर्फ इसलिए सुना पाए क्युकी यह कुरान में शामिल नहीं है| अगर कोई भी कुप्रथा इस्लाम में वर्षो से चल रही है तो उसपर वर्डिक्ट सुनाने में बहुत डरते नजर आते है या आस्था का विषय बताकर उसे टालने की कोशिश करते है| डर का लेवल यह है कि केस आजान के माइक पर चलता है लेकिन जब वर्डिक्ट सुनाई जाती है तो जबरजस्ती मंदिर को भी शामिल किया जाता है|

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यह सब इसलिए हो पाता है क्युकी “बहुसंख्यक” आसानी से टारगेट हो जाता है| एक और उदहारण है| दक्षिण भारत में “जलिकट्टू” को यह करके बन कर दिया जाता है क्युकी उस खेल में जानवरों के साथ क्रूरता दिखाई पड़ती है| देश में बहुत सारे पर्यावरणवीद है जिन्हें लगता है कि जानवरों के साथ क्रूरता समाज में ठीक नहीं है| उनकी बात सही है| इसका समर्थन मै भी करता हु, लेकिन जब ऐसी चीजें मुस्लिम समाज में होता है तो ना तो कोर्ट कुछ कह पाता है और नाही पर्यावरणवीद कुछ कह पाते है| तुष्टिकरण का लेवल यह है कि जलिकट्टू के खेल में होने वाले जानवरों का उपयोग निर्ममता है लेकिन ईद पर उन्ही जानवरों को बलि के नाम पर काटना निर्ममता नहीं बल्कि आस्था का विषय है| सुप्रीम कोर्ट का सेलेक्टिव रूप से दिया जाने वाला वर्डिक्ट निसंदेश उसपर सवालिया निशान खड़ा करता है| लोगों के विश्वास को चुनौती देता है|

इसलिए देश में सभी धर्मो, सभी जातियों, सभी वर्गों के साथ न्याय होना चाहिए| सबको एक नजरिये से देखा जाना चाहिए| सबका मूल्यांकन करने का मापदंड भी एक ही होना चाहिए| नहीं तो लोगों में जो असंतोष बढ़ेगा वो भविष्य में विस्फोटक साबित हो सकता है जोकि लोकतांत्रिक लिहाज से सही नहीं है|

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