बेरोजगारी का एक मुख्य का रण ‘इगो इशू’ भी

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सबसे पहले वैलेंटाइन डे की सभी लोगों को हार्दिक शुभकामनाएँ| सबसे मोहब्बत करे और बेपनाह करे| अभी हाल में “पकौड़ा रोजगार” को लेकर देश में तमाम तरह की बातें हुई| सत्ता दल को इसे लेकर मुद्दे पर चौतरफा आलोचना झेलना पड़ा| मैंने भी सोचा कुछ जरूर लिखूंगा| इसे दो रूप में लिया जा सकता है| ऑटो एक्सपो से आने के बाद भी बेरोजगारी को लेकर बहुत सारे बिन्दुओं पर पढने और सोचने का प्रयास किया| सबसे पहले सीधा सवाल ‘बेरोजगारी’ क्या है? इसके कितने प्रकार होते है? सीधे शब्दों में कहूँ तो, एक ऐसी अवस्था जहाँ काम करने के लिए राजी होते हुए भी लोगों को प्रचलित मजदूरी पर कार्य नहीं मिलता, तो उस विशेष अवस्था को ‘बेरोजगारी’ (Unemployment) की संज्ञा दी जाती है| ऐसे व्यक्तियों का जो मानसिक एवं शारीरिक दृष्टि से कार्य करने के योग्य और इच्छुक हैं लेकिन उन्हें प्रचलित मजदूरी पर कार्य नहीं मिलता, उन्हें ‘बेकार’ कहा जाता है| आगे बात करने से पहले इन दोनों शब्दों को समझना बहुत जरूरी है|

अब मुख्य मुद्दे पर आते है| सबसे पहले प्रधानमंत्री जी ने इंटरव्यू में, फिर बाद में पार्लियामेंट से आवाज आई पकौड़ा बेच कर भी स्वरोजगार पैदा किया जा सकता है| यहाँ पर आलोचकों ने अपने हिसाब से इन्टरप्रेट किया और समर्थक लोगों ने अपने हिसाब से| आलोचक का सीधा सा सवाल है कि क्या इंजीनियरिंग, लॉ या डाक्टरी करके ‘पकौड़ा’ बेचा जाए| उनका आरोप सीधा यही है कि सरकार रोजगार देने में असफल रही है इसलिए ऐसे बहाने हमारे समक्ष रख रही है| मोटामोटी आलोचकों का सार यही है| अब मै अपना पक्ष रखता हूँ| बेरोजगारी का सिर्फ सीधा मतलब यह नहीं होता कि डिग्री मिली लेकिन नौकरी नहीं मिली| बेरोजगारी के और भी पक्ष होते है| लेकिन सामान्यतः हमारी समझ होती है कि अर्थव्यवस्था मे होने वाले संरचनात्मक बदलाव के कारण उत्पन्न होने वाली बेरोजगारी, संरचनात्मक और खुली ही एकमात्र बेरोजगारी का रूप है|

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जबकी सत्य यह है कि वो लोग भी बेरोजगारी के श्रेणी में आते है, जिसमें एक श्रमिक जितना समय काम कर सकता है उससे कम समय वह काम करता है| दुसरे शब्दो में, वह एक वर्ष में कुछ महीने या प्रतिदिन कुछ घंटे बेकार रहता है| इसे अल्प बेरोजगारी कहते है| बेरोजगारी में वो भी आते है जहाँ दो लोगों की जरूरत है लेकिन फिर भी पांच लोग लगे हुए है| बाक़ी के तीन प्रछन्न बेरोजगारी में आते है| यह आमतौर पर गाँव में होता है जहाँ खेती में लोग जरूरत से ज्यादा लगे होते है| इसके अलावां एक मौसमी बेरोजगारी होती है जहाँ बुआई तथा कटाई के मौसमों में अधिक लोगों को काम मिल जाता है किन्तु शेष वर्ष वे बेकार रहते हैं| ऐसे और भी क्लासिफिकेशन है लेकिन इस विषय के लिए इतना ही पर्याप्त है|

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हमारे साथ सबसे बड़ी दिक्कत यही है कि हमने रोजगार को ‘इगो इशू’ बना लिया है| मुझे ऐसा लगता है कि ऐतिहासिक वर्ण-व्यवस्था का भूत अभी तक लोगों के सर से उतरा नहीं है| हिंदू धर्म-ग्रंथों के अनुसार समाज को चार वर्णों में विभाजित किया गया था- क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य और शूद्र| जाती के आधार पर ही कामों का बंटवारा किया गया था| आज भी हमारे अन्दर वही मानसिकता है| प्रशासनिक व्यावहारिकता समय के अनुसार हर जगह बदलती रही है| पहले राजा-महराजा होता थे, जनता परोपकार के लिए आश्रित रहती थी| फिर अंग्रेजों का शासनकाल आया जहाँ शोषण का दौर चला| सिर्फ ‘आदेश’ का ही स्थान होता था| उसके बाद समय बदला, देश आजाद हुआ और सत्ता को लोकतांत्रिक तरीके से लोगों की भलाई की जिम्मेदारी सौपीं गई| 21वीं शताब्दी का समय, लोग और एस्टाब्लिश्मेंट के बीच एक अलग प्रकार की व्यावहारिकता बनाने की मांग कर रहा है जहाँ लोग सरकार के प्रति आश्रित न हो बल्कि लोग सरकार के साथ जुड़े|

इसके लिए जरूरी है कि अपने ‘ईगो इशू’ को तोड़े| एक उदहारण देता हूँ| देश में प्रति वर्ष 15 लाख सिर्फ इंजिनियर डिग्री प्राप्त करते है| लेकिन यहाँ यह प्रश्न करना जरूरी है कि क्या इंजीनियरिंग क्षेत्र को 15 लाख इंजिनियरों की मांग है? अर्थव्यवस्था का सीधा सा नियम यह होता है कि सप्लाई और डिमांड के बीच एक संतुलन होना चाहिए| ‘इंडिया टुडे’ की एक रिपोर्ट कहती है कि इंजीनियरिंग क्षेत्र को इसका सिर्फ 7% इंजिनियरों की आवश्यकता होती है| ऐसे में बाकी के लोग यह लेकर बैठ जाए कि ना वो सिर्फ इंजीनियरिंग में ही नौकरी चाहते है तो कैसे संभव है? इस संतुलन को हमने बिगाड़ा है| इसमें सरकार कैसे दोषी हो सकती है? हमारे समाज और समाज के लोगों की सोंच ने नौकरियों के विकल्प को सिमित कर दिया है| डॉक्टर, इंजिनियर या वकील आदि के अलावां किसी और प्रोफेशन को लेकर हमारी व्यावहारिकता पूरी तरह से बदल चुकी है| उसे अपने समाज में सकारात्मक रूप से स्वीकार्य नही करते है| यहीं कारण है कि पूरी जनसख्या सिर्फ कुछ ‘फीचर्ड जॉब’ की तरफ भागती है जो असंतुलन का मुख्य कारण है|

स्टार्टअप कोई जरूरी नहीं है कि वो सिर्फ ‘इंजीनियरिंग’ या ‘प्रोडक्शन’ के क्षेत्र में हो| संकीर्ण मानसिकता से ऊपर उठकर अगर ऐसी चीजें चर्चा में आ रही है तो स्वागत करना चाहिए| इसके सकारात्मक पक्ष के बहुत सारे उदहारण है| उदहारण के माध्यम से ही बेहतर समझा जा सकता है| जाधवपुर यूनिवर्सिटी का एक नौजवान छात्र जिसका नाम ‘सागर दरयानी’ है वो महज 30 हजार रूपए के इन्वेस्टमेंट से ‘वाव मोमोज’ की शुरुआत की| इसका मतलब यह कतई नहीं है कि यूनिवर्सिटी से निकलने के ठीक बाद मोमोज का स्टाल खोल दिया| महज 30 हजार की लागत से 2008 में शुरू की गई यह कंपनी आज भारत के 10 बड़े शहरों में 150 आउटलेट के साथ 250 करोड़ की कंपनी है| यहाँ पर अगर ऐसी सोंच हो कि क्या मै बैचलर डिग्री लेकर मोमो बेचूं तो शायद वो यहाँ तक नहीं पहुच पाता| सोचिए आज 150 आउटलेट के साथ कितने और लोगों को रोजगार पैदा किया होगा| लेकिन सोच इनोवेटिव थी कि कम्पनीज बर्गर, पिज्जा के साथ कई वेरिएशन में लाकर सर्व कर रही है यह वेरिएशन मोमो में क्यों नही आ सकता?

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बस इसी सोच और विज़न के साथ बिना अपना ईगो हर्ट किए आगे बढे और महज 10 साल में इतनी बड़ी कंपनी खड़ी कर ली| अगर वो कंपनी पर आश्रित होते तो शायद पूरी जिन्दगी में इतने पैसे नहीं कमा पाते और नाही लोगों को रोजगार देकर मदद कर पाते| इनकी कंपनी में मोमोज बनाने वाला शेफ (Chef) शुरू के वर्षो में जो 3 हजार पाता था वो आज डेढ़ लाख रूपए कमाता है| जोश टॉक पर बातचीत में सागर दरयानी के खुद इसे कबूला है| कुछ दिन पहले मै इसी टोटल अपलिफ्टमेंट की बात कर रहा था| कंपनी के ग्रोथ के साथ-साथ कामगार लोगों का ग्रोथ भी उसी अनुपात में होगा तभी लोगों का सभी जॉब प्रोफेशन के प्रति एक सकारात्मक व्यावहारिकता पैदा होगी| ऐसे और भी कई उदहारण है जिसनें सकारात्मक रूप से स्टार्टअप खड़ी कर लोगों को रोजगार पैदा करवाया है|

कुछ महिना पहले मै पुणे से 100km दूर पटलन में श्री अनिल राजवंशी से मिला था| कृषि के क्षेत्र में ‘नारी’ नाम से रिसर्च संस्था चलाने वाले श्री राजवंशी जी भी यही कहते है कि हमलोगों में ईगो वाली बहुत बड़ी बीमारी है| यह बीमारी तब तक है जब हम भारत में है| ‘यूनिवर्सिटी ऑफ़ फ्लोरिडा’ में जब वो डॉक्टरेट कर रहे थे तब की बातें बता रहे है कि जब भी भारत का आदमी विश्व के दूसरे देश में जाता है तब वो सब काम करता है जो अपने देश में नहीं करना चाहता है| उच्च स्तरीय पढाई करने जाते है इसके बाद भी ‘पार्ट टाइम’ जॉब के रूप में होटल में वेटर का काम करते है या कहीं साफ़ सफाई की| वहाँ वो चीजें प्रोफेशनल लगती है लेकिन जब बात अपने देश की आती है तो यह ईगो बन जाता है| चुकी सामाजिक परिवेश भी इसे स्वीकार्य नहीं कर सकता न|

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यही हाल एजुकेशन के क्षेत्र में है| कोई शिक्षक बनना नहीं चाहता है| अगर चाहत होती भी है तो “सरकारी” ताकी काम्प्लेक्स सिस्टम का फायदा उठाके काम से भाग सके| प्राइवेट शिक्षक का जॉब हमेशा खुला रहता है| वो चुनौती देता है कि आओ और तय किए गए बाधा को पार करो और अच्छी सैलेरी पर जॉब पाओ| इसके लिए वो स्तर चाहिए जो होती नहीं है फिर भी डिग्री का धाक बनाकर जॉब के रोना लगा ही रहता है| इसके पीछे भी कारण है कि जो लोग बहुत अच्छे होते है वो दुसरे जॉब के लिए चले जाते है| एजुकेशन में शिक्षक का पद आज देश में लास्ट आप्शन के रूप में बना हुआ है| यही कारण है कि शिक्षा की स्तिथि बिगड़ी हुई है और रोजगार की भी| यह वो दौर है जहाँ डिग्री दिखाकर भौकाल नहीं बनाया जा सकता है| डिग्री ही सर्वे सर्वा होती न कंपनी सीधे कॉलेज से कह देती कि ऊपर से 10 लड़के जिनके मार्क्स बहुत अच्छे है उनको भेज दो ऑफर लेटर दे रहे है| जबकी ऐसा होता नहीं है और भी बाक़ी के पैरामीटर होते है जिसपर खरा उतरना जरूरी होता है|

इसलिए कोई भी जॉब प्रोफेशन बुरा नहीं होता है| बुरी हमारी नियत होती है जिससे हम देखना चाहते है| किसान जो मौसमी बेरोजगार होते है उस वक्त वो शहर आकर पकौड़े, मोमो या फिर अन्य जैसी व्यवसाय क्यों नहीं करते? किसानों को लेकर स्वामीनाथन साहेब की रिपोर्ट आई थी उसमें उन्होंने एक प्रश्न किया था कि कितने किसान है जो कंपनी में काम करने वाले मजदूरों की तरफ प्रोफेशनल होते है? सुबह समय से निकले और समय पर वापस आए| बुआई के बाद बहुत दिन का गैप होता है जिसमें कोई काम नहीं होता है| ऐसे में कुछ सामानांतर व्यवसाय जैसे पशुपालन, मत्स्य पालन, देरी या फिर शहर जाकर पकौड़े-मोमो या फिर चाय आदि के व्यवसाय कर सकते है| शर्त बस छोटी सी है कि ‘ईगो इशू’ न बनाए| अन्यथा सब संभव है|

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