बहुत सी ऐसी चीजें है जिसपर लिखना छोड़ चूका हूँ सिर्फ काम वाली बातों पर ध्यान केन्द्रित करने की कोशिश करता हूँ| हाल ही में उत्तरप्रदेश में एक एनकाउंटर होता है जिसका संबंध आई.एस.आई.एस. से बताया जाता है| मेरी कोई रूचि नहीं थी कि मै इस पर अपनी बात रखूं क्युकी ये सब जाँच की विषय है जो बहुत बड़ी चीजें है| इसके लिए पूरा तंत्र है जो लगातार नजर रखता है, जो हमें और हमारे देश को सुरक्षित रखता है| लेकिन कुछ ऐसी हरकते होती है जो मुझे व्यक्तिगत रूप से पीड़ा दे जाती है और गन्दी सोच के खिलाफ लिखने के लिए उत्तेजित करती है| जिसमे उत्तरप्रदेश के मौलाना आमिर राशिदी पुरे जनता के सामने यह कहते हुए भड़काते है कि जिस पुलिस वाले ने गोली मारी है “उसकी वर्दी खाल सहित उतरवा देने” की बातें करते है|
उस ATS के जवान की खाल उतार देने की बातें करते है जो 11 घंटों तक उस ऑपरेशन में ब्यस्त रहता है जिसे गोली कभी भी लग सकती थी| फिर क्या वही प्रक्रिया तिरंगे में लिपटा हुआ शव जाता| उसका पूरा परिवार जिसमे जवान पत्नी भी शामिल होती है, जिन्दगी भर सामाजिक चुनातियों से लड़ते| शहीद होने के कुछ साल बाद उसके परिवार का सामाजिक मूल्यांकन का कोई कड़ी नहीं मिलती है| गोली मारने वाला और कोई नहीं बल्कि वही आतंकवादी होता जिसकी हिमायत मौलाना कर रहे है|
मुझे इस मौलवी के बातों को संज्ञान में लेने के पीछे एक ही कारण है कि मुस्लिम समाज का एक बहुत बड़ा तबका ऐसे मूर्खों को आज भी फॉलो करता है| इनकी दिशा निर्देश को मानता है जिसने मुसलमानों की असमिताएं आजादी के बाद से आज तक हमेशा से बेचते रहे है, कभी इस पार्टी का गुलाम बनवाकर और कभी उस पार्टी का| कभी भी उस समाज और तबके की हक़ की बातें नहीं की, नहीं तो आज मुसलमानों का यह हाल नहीं होता जिस बदत्तर स्तिथि का जिक्र ‘सच्चर समिति’ की एक रिपोर्ट में किया गया है| और इसके लिए मौलाना उसके पिता और उनके पड़ोसियों से साथ देने की बात कहते है|
इसके जवाब में खड़े पडोसी इंशाल्लाह कहके हुंकारी भरते है| फैजुल्लाह के पिता जो यह मान चुके होते है कि उसका बेटा गलत राहों पर भटक गया था| इसके एवज में देश की हित की बातें करते हुए अपने बेटे की लाश लेना भी मुनासिब नहीं समझते| ऐसे में एक ऐसा शख्स पहुचता है जिसे मुस्लिम धर्म में मौलाना कहा जाता है| वो उन्हें लड़ने के लिए उकसाते हुए यह सन्देश देना चाहता है कि वो सही था उसकी लाशें स्वीकार कर लो और यह साबित कर दो कि हाँ आतंकवादियों का भी धर्म होता है| मुस्लिम समाज में ज्यादातर चुनौतियों का जड़ यही लोग है जिसने भारत के पुरे मुस्लिम समुदाय पर कब्ज़ा किया हुआ है| ये लोग कभी भी भारतीय मुल्क के मुस्लिम लोगों को अपनी मुस्लिम पहचान बनने ही नहीं देते है|
मैंने कभी भी इस जोश में मौलानाओं को नहीं देखा जो मुस्लिम समाज के हक़ की आवाजें उठाने की बातें करते हो| उनकी बेरोजगारी, अशिक्षा और तमाम दिक्कतों के लिए कभी आवाज क्यों नहीं उठाते| क्युकी इस तबके का वोट किसी ख़ास राजनितिक पार्टी को चापलूसी करके बेच चुके होते है| ऐसे लोग याकूब मेमन, अफजल गुरु और सैफुल्लाह जैसे आतंकवादियों के पक्ष में खड़ा होकर एक नये किस्म की राजनीती की फुक मारते है जो इस समाज को अन्दर से लगातार खोखला करते जा रहा है| भारतीय मुस्लिम की अपनी पहचान क्यों नहीं बनने देते? हमेशा मिडिल ईस्ट की घरों में क्यों झाकते है और अपने समाज को उधर झाकने के लिए बोलते है जहाँ पर आपस में लड़ मर रहे है|
क्या वहाँ कोई भारत जैसा हिन्दू है? या म्यांमार जैसा बौधिस्ट है? लड़ तो मुस्लिम आपस में ही रहे है न? शुक्र है कि भारत में उस शिया सुन्नी सेक्टोरिअल लाइन की मोटाई बहुत मोटी नहीं है| लेकिन ऐसे मौलाना भविष्य में मोटी जरूर कर देंगे| म्यांमार के ऐसे मौलाना लोगों की वजह से ही रोहिंग्या मुस्लिम की हालात बद्तर होती जा रही है| अब तो बांग्लादेश भी रिफ्यूजी स्वीकार करने से मना कर रहा है| ऑस्ट्रेलिया भी वहाँ गए रोहिंग्या मुस्लिम को भगा रहा है| क्युकी ऐसे मौलवी लोग ही उनके पुलिस वालों पर गोलियां चलवाते थे| जिसका परिणाम हम सबके सामने है|
आखिर कब मिलेगी मुस्लिम आवाम को उनके मौलवियों से आजादी? मुझे लगता है जे.एन.यु. के मित्रों को इनके आजादी के लिए पहले लड़ना चाहिए| हमने तो कब की लेली ब्राम्हणवाद से आजादी| आज भी एक जनरेशन पहले वाले लोग समाज में इनकी थोड़ी बहुत तवज्जो देते है, आने वाले समय में एकदम ख़त्म सा ही हो जाएगा| पहले जैसी हार्डकोर जैसी चीजें नहीं रही| आज की स्तिथि ऐसी है कि अगर कोई पुरोहित पूजा करवाने में अनाकानी करता है तो हम खुदे अगरबत्ती जलाके पूजा कर लेते है| नहीं तो एक समय ऐसा था कि हमारे समाज में इनका भी ऐसा ही दबदबा था जैसे आज मुस्लिम समाज में मौलवियों का है|
लोग डरते थे जैसे आज मुस्लिम समाज में इनसे डरते है| उस समय यह पहले ही पंडित जी लोग तय कर देते थे कि गाय अगर बाछी देती है तो हमें दान में दे देना नहीं दो एकड़ जमीन फलना जगह वाला दे देना| एही लोग उस समय यह तय करते थे किस औरत को सती होना है और किसको जौहर| एक ऐसा समाज बनाया हुआ था कि अगर बिल्ली मर जाती थी तो न जाने क्या क्या दान करने का लिस्ट बना देते थे| हर तीज-त्यौहार पर ब्राम्हण भोज| चाहे बच्चा पैदा हो या घर में बुजुर्ग गुजर जाए| कहीं न कहीं पूरे हिन्दू धर्म पर एक प्रकार का कब्ज़ा सा था|
व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर बदलते व्यावहारिकता का एक उदहारण देता हूँ| कुछ महिना पहले की बात है नई गाडी खरीदी थी| मैं और मेरे पिताजी पूजा करवाने के लिए बिक्रमगंज के अस्कामनी माँ के मंदिर गए हुए थे| मंदिर के बाहर पिताजी के मित्र मिल गए वो वही बात करने लगे और मुझे बोले तुम ही करवा लाव| मै अन्दर गया पूरा समान ख़रीदा| जैसे प्रवेश किया वैसे पूछा कि 100 रुपया है न? मैंने पूछा क्यों? बोला पूजा के लिए| मैंने बोला सिर्फ 10 रुपया दूंगा| बोला नहीं हो पाएगा| मैंने कहा कोई बात नहीं आप जगह खाली कीजिए मै खुद आके कर लेता हूँ| हो गया बवाल| हल्ला गुल्ला सुन इतने में पिताजी आ गए अन्दर|
पिताजी से जान पहचान थी और उनको जानते थे| उसका बाद वो एकदम सॉफ्ट हो गए| “अरे बबुसाहेब राउर लईका हवे| पहिले नु बतावल चाहत रहे| कवनो बात ना आव बाद में दे दिहs|” मैंने बोला बाद में भी नहीं दुंगा मुझे बातें टालने नहीं आती| इस घटना को मेंशन करने का पीछे एक ही कारण है कि ये एट्टीट्युड पहले नहीं था| इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं है कि मै नास्तिक हूँ| मुझे भगवान में बहुत विश्वास रखता हूँ लेकिन ब्रम्हाणवाद का यह कांसेप्ट बिल्कुल कबुल नहीं है| मुझे और मेरे भगवान के बीच कोई ठेकेदार एक्सिस्ट नहीं करता| आप भी किसी मौलवी सौल्वी को अपने से दूर रखे और जिसमे आपका विश्वास है उसमे अपने आप को जियें|
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