उदारवादी लोकतान्त्रिक विचारों पर उठ रहे सवालों पर चिंतन

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कुछ महिना पहले विश्व में एक प्रकार का माहौल गया था जिसमे इस बात को लेकर तंज कसा जा रहा था कि यूरोप और अमरीका के तथाकथित उदारवादी लोकतान्त्रिक विचारों के समर्थकों ने आज कल एक नए शब्द का जोरदार प्रयोग आरम्भ किया है और अब इसकी गूँज भारत में भी सुनाई दे रही है| शब्द है “पोस्ट ट्रुथ एरा” (post truth era), यानि सत्य के बाद का युग यह शब्द इस वर्तमान युग जिस में हम जी रहे है, के लिए प्रयोग किया जा रहा है| उनके अनुसार यह वह युग है जहाँ व्यक्ति के निर्णय लेने की छमता पर विवेक के उपर भावना हावी हो जाती है|

उनके तर्क है की भारत के लोग जानते थे कि मोदी जी किसी को 15 लाख रूपया नही देने वाले है, ब्रिटेन के लोग भी जानते थे कि यूरोपियन यूनियन से बाहर होना उनके हक में नहीं है, अमरीका के लोग जानते थे की डोनाल्ड ट्रम्प मक्सिको की सीमा पर दीवार नहीं खड़ा करेगे नही, वे NATO द्वारा यूरोप की सुरक्षा का खर्च लेगे, फिर भी इन देशो के लोगो ने उस सत्य को नकार कर निर्णय लिया जिसमें विवेक के उपर भावना हावी रही| जो उनकी नजर में इस वर्तमान युग की पहचान बन गई है| यह सत्य के बाद का युग है|

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अब ये बाते कई सवाल उठा रही है| क्या कभी सत्य युग था? क्या पुराने शब्दों के नए अर्थ निकालने वाले लोकतंत्र या जनमत को नकार नहीं रहे है? अब लोकतंत्र सेलेक्टिव तो हो नहीं सकता कि जब मेरी पसंद की बात हो तो लोकतंत्र और नहीं तो सत्य परे हो जाए| कुछ ऐसे तर्क भी सामने आएं थे जिसमे सेलेक्टिव लोकतंत्र होने का आरोप लगाए जा रहे थे| असल में उनका मूल्यांकन है कि उदारवादी लोकतन्त्रवादी लोगो ने इस बात को स्वीकार नहीं किया कि वे खुद ही तर्कों के जाल बुन कर सत्य को लगातार नकार रहे थे?

क्या इस्लामिक आतंक आज एक धार्मिक मसला नहीं है? क्या यह सही नहीं कि स्वन्त्रता के नाम पर भारत के लोगो ने बेलगाम होकर अपनी मनमर्जी की| नियमों को तोडना अपना अधिकार मान लिया और अपराध का महिमामंडन किया| क्या यह सत्य नहीं की हिंदुस्तान में कभी किसी सरकार ने कोई कठोर निर्णय नहीं लिया| इस तरह के अनेको संभावित प्रश्न उछाले गए|

सवाल यह है कि आखिर हम इस सत्य से क्यों भाग रहे है कि भावना, क्षमता और विवेक पर हावी हो रही है| मै समझता हूँ कि जिस भी तर्क में भावना जगह ले लेती है तो तर्क कमजोर हो जाता है| जब तर्क कमजोर होगा तो आपके हक़ भी आपसे दूर होते जाएँगे क्युकी भावनाओ के साथ समझौता जो कर लिया है| तार्किक बातों में भावनाओं की कोई जगह नहीं होती| मेरा सवाल यह भी है कि उदारवादी समूहों द्वारा दिया गया तर्क गलत भी तो नहीं है न? एक-एक करके इन बातों को समझने की कोशिश करते है|

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पहली बात, भारत में लोकसभा चुनाव के वक्त एक अजीब प्रकार का माहौल बनाया गया था| उसमें एक छोटे वर्ग को छोड़कर सबको को अंदाजा था कि जो कह रहे है वो चुनावी जुमला है| इस बात की पुष्टि तब जाकर हुई जब अमित शाह ने कैमरे से सामने आकर इसे चुनावी जुमला करार दिया| कालेधन से लेकर एक बढ़िया प्रशासन तक की बात कही गई थी जो आज सबकुछ फीका फीका सा लगता है| ब्रिटेन के लोगों को भी वही भ्रम था जो भारत के लोगों को था| ब्रिटेन ने हमेशा यूरोपियन यूनियन में अपने आप को बॉर्डर पर रखा है| उसमे दो प्रकार की सदस्यता होती है पहले स्तर में सिर्फ उससे जुड़े होते है जो व्यापारिक गतिविधियों में लिप्त होते है तथा अपनी करेंसी नहीं बदलते है|

इसी प्रकार का पार्टिसिपेशन ब्रिटेन का था| दूसरे स्तर पर वो देश जिन्होंने उनकी भीतर की सदस्यता ली थी जिसे ज्यादा अधिकार होता है| इसमें जर्मनी जो अपने मार्क को बदल कर यूरो किया फ्रांस को अपने फ्रैंक को बदल कर यूरो किया| इन देशो की स्तिथि अकेले में ज्यादा अच्छी थी लेकिन वैश्विक स्तर पर बाजार बनाने के लिए कमिटमेंट किया| ब्रिटेन इससे बचकर रहा है| ये बातें वहाँ की जनता तो बहुत अच्छे से जानती थी|

दूसरी बात, सेलेक्टिव लोकतंत्र की वकालत तो दक्षिणपंथी ताकते कर रही है| डोनाल्ड ट्रंप “सीनेट” में 52 सीटें जीतते है तो ऐसे मान लिया जाता है कि पुरे अमेरिका के जनता का मैंडेट सिर्फ ट्रंप को है| लेकिन 46 सीटें वहां के लोगों ने डेमोक्रेटिक पार्टी को भी तो दिया है| क्या हम उसे नजरअंदाज कर देंगे? माना कि बहुमत रिपब्लिकन को है लेकिन पुरे जनता का मूड मान लेना भी सही चीज नहीं है| जिस तरह से ‘अमेरिका फर्स्ट’ का नारा दिया गया अमेरिकी चुनावों में, वो क्या था? भावनागत रूप से वहाँ के निवासियों को लामबंद करने का एक माध्यम नहीं था तो और क्या था?

उनके सारे भाषण और डिबेट में वो स्वार्थपन झलक रहा था जो अमेरिकी लोगों को लामबंद करने के लिए पर्याप्त था| कायदे से जब सिर्फ अपने आप को देखना ही है तो वर्ल्ड लीडर का ताज किसी और को सौप से फिर सिर्फ अपने ही बारे में सोचे| जबकी यह सत्य नहीं था| उन्हें वर्ल्ड की राजनीती में भागीदारी दिखानी तो थी लेकिन चुनाव के लिए लोगों को लामबंद करना भी जरूरी था| हाल में सीरिया में अमेरिका हा हस्तक्षेप इस बात को बल देता है|

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तीसरी बात, डोनाल्ड ट्रम्प को भारत का लामबंद करने का तरीका बेहद पसंद आया, उनके नारे (अबकी बार ट्रम्प सरकार) को एडिट किया और अपनाया भी| परिणामस्वरूप सफल भी हुए| ये किसी से छुपा नहीं कि दुनिया में आतंकवाद का उद्गम कैसे हुआ है| धार्मिक कट्टरता लामबंद करने का एक माध्यम है| आतंकवाद का ज्यादातर व्यवहार पश्चिमी देशो की ओर अटैक करता हुआ क्यों दिखता है? अपने आप को विकसित बनाने के लिए पश्चिमी देशों ने उन्हें सदियों से कुचला हुआ है|

तेल के खेल में हमेशा भाग लेते रहे है| आज जब फ्यूल का अल्टरनेटिव शेल गैस और एल्गी की संभावनाएं दिखी तो वहाँ से अपना पैर खीच लिया और भाग न लेने का फैसला किया| उसका परिणाम एक आतंकवाद के रूप में दिख रहा है जो दुर्भाग्यपूर्ण है| इन्होने जानबूझकर इरान के साथ नुक्लेअर समझौते को उलझा कर रखा ताकी वो गलती से भी ISIS के विरुद्ध साथ देने को राजी न हो जाए| अगर राजी हो जाएगा तो अमेरिका दुनिया को क्या कारण देकर अपना मुहँ छुपाता?

चौथी बात, यह मैं मानता हूँ कि भारत में स्वतंत्रता के नाम पर लोगों ने बेलगाम मनमर्जी की| लेकिन सवाल तो यह भी है न आपके पास पूरा तंत्र होने के बाद भी उन्हें रोकने में असफल क्यों हुए? लेकिन हाँ इसका मतलब यह भी नहीं कि प्रतिरोध की आवाजें भी भावनाओं की वजह से बंद हो जाए| तार्किक रूप से डिफेंड कीजिए| जहाँ भी नियम-कानून की अवहेलना हो तो संभावित कानूनी कार्यवाई कीजिए| किसने रोका है? एक सुर में गीत गाना भी तो लोकतंत्र के लिए खतरनाक है न| यह सत्य नहीं है कि हिंदुस्तान में कभी किसी सरकार ने कोई कठोर निर्णय नहीं लिया|

अंतर बस इतना है कि इस तरह प्रचारित नहीं किया गया| वैसे तो कई उदाहरन है जो इस बात की पुष्टि करता है| लेकिन मै सिर्फ दो उदहारण देना चाहूँगा| पहला इंदिरा गाँधी जब मानिक सॉ से मुलाकात करती है और युद्ध के लिए अगले दिन तैयार होने को कहती है तो मानिक सॉ खुद डर जाते है कि बिना तईयारी कैसे संभव है| यहाँ तक कि वो इस्तीफा देने को भी तैयार होते है| वो कोई आसान फैसला नहीं था उसका परिणाम हुआ हम जीत के आए| ऐसे बहुत से ऐतिहासिक फैसले लालबहादुर शास्त्री ने भी लिए है|

दूसरा उदहारण दूंगा 1991 के समय के जब चंद्रशेखर की जगह नर्सिम्भा राव प्रधानमंत्री बने थे| उस समय आर.बी.आई. के पूर्ण गवर्नर आई,जी,पटेल. को वित्त मंत्रालय सँभालने को कहा लेकिन उन्होंने वक्त के डर से नहीं बने| ऐसे विशांल आर्थिक संकट में हमने ईराक में हो रहे सद्दाम हुसैन पर हमले में अमेरिका का साथ दिया| बस इस लालसा में कि शायद हमें आई.एम्.ऍफ़ से  बढ़िया बेल आउट मिल जाएगा| आई.जी.पटेल के मना करने पर शाम को मनमोहन सिंह को कॉल जाता है और सुबह सूट पहनकर आ जाते है| जिस बहादुरी से फैसले लिए और देश को निकाला क्या वो कम था?

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पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु ने देश के भीतर मूलभूल एकीकरण के लिए जितने फैसले लिए वो क्या कम थे? उत्तर भारत से लेके दक्षिण भारत तक कभी भाषा के नाम पर राज्य की मांग हो या पडोसी देशों के नुक्से, इन सब को हल करने के लिए जो निर्णय लिए क्या कम थे? जब जिम्मेदार पद के सँभालने वाले लोग यह बात कहते है की पिछले सत्तर सालों में कुछ हुआ ही नहीं है तब मुझे लगता है कि सूडो नेशनलिज्म की बीज बोई जा रही है| स्वार्थ में इतने डूबे है कि 70 सालों में से कम से कम अटल जी का कार्यकाल का तो निकाल ही देना चाहिए था|

इसमें कोई शक नहीं कि जिस एरा में हम रह रहे है उसमे विवेक के ऊपर भावना हावी हो रहा है| अगर विवेक के ऊपर भावना हावी नहीं होता तो हिम्मत के साथ 17 सालों तक संघर्ष करने वाली महिला इरोम शर्मीला को यूँ राजनीती से लोग बहिष्कार नहीं करते| उनको मात्र 90 वोट मिले थे इससे ज्यादा तो किसी पंचायत या नगर निगम के चुनाव में हारने वाले को मिल जाता है| अगर विवेक के ऊपर भावना हावी नहीं होता तो किरण बेदी, सोनी सूरी और मेधापाटेकर जैसी औरतें चुनाव नहीं हारती|

अगर यह सत्य नहीं है तो क्या यह सत्य है कि गायकवाड जैसा नेता इन हारे हुए नेताओं से ज्यादा काबिल और समझदार है| आखिर गायकवाड जैसे नेता संसद तक पहुच कैसे जाते है जो सबकुछ भूलकर चप्पल से किसी कंपनी के प्रतिष्ठित कर्मचारी को पिटते है? ये हुए या फिर मुख़्तार अंसारी हुए, राज ठाकरे हुए, मनोज तिवारी हुए ये लोगो किसी भी एंगल से संसद तक जाने का क्षमता नहीं रखते| ये लोग के भावनाओं की वजह से जीत के पहुचते है ना कि विवेक है| यह बात सही है न कि भावनाएं, विवेक और क्षमता के ऊपर हावी हो रही है|

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