उत्सर्जन कम करने के लिए ‘रिसर्च एंड डेवलपमेंट’ पर ध्यान देना बहुत जरूरी

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जब भी देश में ‘रिसर्च एंड डेवलपमेंट’ की बातें होती है तब भारत कहीं न कहीं पीछे नजर आता है| हम खर्चे भी कम करते है और जो स्कॉलर कर रहे होते है उन्हें जरूरी समर्थन और प्रोत्साहन भी नहीं मिल पाता है| भारत अपने जीडीपी का सिर्फ 0.85% पैसा ही ‘रिसर्च एंड डेवलपमेंट’ पर खर्च करता है| वहीं दक्षिण एशिया का अपना प्रतिद्वंदी चाइना हमसे कहीं अधिक 2.1% खर्च करता है| जापान 3.5%, अमेरिका 2.7%, यूनाइटेड किंगडम अपने जीडीपी का 1.7% खर्च करता है| यहाँ तक कि साउथ कोरिया, इजरायल और ताइवान जैसे देश हमसे कहीं अधिक क्रमशः 4.2%, 4.3% और 3% अपने जीडीपी का खर्च करते है| यहीं कारण है कि सिमित संसाधन के बावजूद भी ये देश बेहतर प्रदर्शन करते रहे है और आर्थिक रूप से खुशहाल है| किसी भी समस्या का सिर्फ एक राजनितिक हल नहीं होता है| समस्या का हल का सिर्फ एक भाग ‘राजनितिक हल’ होता है, जबकी दूसरा भाग ‘टेक्निकल हल’ होता है| अगर हमारे देश में समस्याओं का समाधान नहीं हो पा रहा है तो इसमें टेक्निकल लोग भी उतने ही जिम्मेदार है जितने राजनितिक लोग| यह भी सत्य है कि ये दोनों स्वायत्त नहीं है, इसकी वजह से ज्यादा जिम्मेदारी राजनितिक कंधो पर कहीं न कहीं चली ही जाती है|

हमारे देश में बहुत सारी समस्याएँ है जो नए रिसर्च की आज भी वाट जोह रही है| इस नई सरकार में बहुत सारी अच्छी योजनाएं लांच की गई है जिसे एक बढ़िया स्तर पर रिसर्च की आवश्यता होगी अन्यथा बाक़ी के योजनाओं की तरह इसे भी असफल होने में समय नहीं लागेला| चाहे बात ‘मेक इन इंडिया’ की हो या फिर ‘स्किल इंडिया’ और डिजिटल इंडिया की| हर स्तर पर एक अच्छे स्तर की रिसर्च की आवश्यता है| ‘ह्यूमन कैपिटल’ के नजरिए से भारत हमेशा से धनी रहा है यही कारण है कि भारत को एक बेहतरीन डेमोग्राफिक डिविडेंड के रूप में देखा और समझा जाता रहा है| उम्मीद यह भी लगाई जाती है कि आने वाली शताब्दी में हो सकता है भारत पूरी दुनिया को लीड करे| लेकिन मै समझता हूँ कि अगर हमने अपनी बढती नौजवान आबादी को पोटेंशियल के रूप में नहीं देखा तो शायद यह भी हो सकता है कि हम डेमोग्राफिक डिविडेंड के नाम पर ‘मास लेबर’ बन के रह जाएंगे| हम सिर्फ भौतिक रूप से मेहनत का काम करते रहेंगे और नौजवान न होने के बाद भी दुसरे देश हमारी मदद से पूरी दुनिया को लीड करेंगे| आज भी ज्यादातर तकनिकी संस्थानों में हम पढ़ लिखकर भी लेबर बने हुए है|

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बहुत कम ऐसी कंपनिया है जो भारत के इंजिनियर को रिसर्च एंड डेवलपमेंट में अच्छी जगह देती है| इसके पीछे एक ही कारण है कि शायद हमारी शिक्षा व्यवस्था को उस स्तर पर नहीं देखती हों| पहली औद्योगिक क्रांति के दौरान कोयले और स्टीम की शक्ति का इस्तेमाल किया गया, इंग्लैंड में शुरू हुई इस क्रांति के कारण शक्ति का केंद्र यूरोप की तरफ झुक गया| इससे पहले 17वीं शताब्दी तक भारत और चीन को सबसे धनी देशों में गिना जाता था| दूसरी औद्योगिक क्रांति के दौरान बिजली और तेल (ईंधन) का इस्तेमाल हुआ| इस बार शक्ति का केंद्र यूरोप से हटा और अमेरिका की तरफ चला गया| तीसरी औद्योगिक क्रांति इलेक्ट्रॉनिक्स और इंफारमेशन टेक्नोलॉजी के प्रयोग से अमेरिका और जापान फायदा हुआ| चीन को भी इस क्रांति से फायदा मिला और उसने उत्पादन में अपना वर्चस्व बनाया| लेकिन अब चौथी औद्योगिक क्रांति भारत के हक मे होगी और इस क्रांति के मुख्य स्तंभ डाटा कनेक्टिविटी, कंप्यूटिंग और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस हैं| मैं मानता हूं कि भविष्य में इंटेलिजेंट सर्विसेस का सबसे बड़ा बाजार होगा| भारत आज सुपर इंटेलिजेंस के दौर में पहुंच चुका है| भारत पूरी दुनिया को इंटेलिजेंट सर्विसेस मुहैया करा सकता है|

बस जरूरत इस बात की है कि भारत की बढती आबादी को तकनिकी पहचान और प्रोत्साहन मिले| इसके लिए शिक्षा में आमूल चुल परिवर्तन की जरूरत है| प्रारंभिक शिक्षा से उच्च स्तरीय शिक्षा तक| ऐसा कहने के पीछे कारण यही है कि कहीं न कहीं यह एक बड़ी कारण रही है जिसमे हमारी शिक्षा व्यवस्था प्रतिस्पर्धा का खेल मात्र बन कर रह गया है| ‘प्रक्टिकालिटी’ कहीं न कहीं दूर होती चली जाती है| वही छात्र जब बाहर जाकर उच्च शिक्षा प्राप्त करते है और उन्हीं कंपनी में बड़े ओहदे पर पहुचते है तो हम बेवजह अपनी सीना चौड़ा करने में लग जाते है और भारत की उपलब्धियों में गिनना शुरू कर देते है| फलना कंपनी का सीईओ भारत का है और धिमका कंपनी का सीईओ भारत का है| अपना सीना चौड़ा करने से पहले हमें खुद से यह पूछना चाहिए कि जो बना है क्या उसने भारत से एमटेक या पीएचडी किया है? या बाहर से एम. एस. की है? मै अपने ऐसे कई सहपाठियों को जनता हूँ जो भारत में उच्च स्तरीय शिक्षा की गुणवता की आभाव से बाहर जाकर एम. एस. करना चाहते है| क्युकी वो इस बात को अच्छे से समझते है कि यहाँ कि एम. टेक. की गुणवत्ता इतनी अच्छी नहीं है|

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अब सवाल यह उठता है कि भारत के ‘रिसर्च एंड डेवलपमेंट’ इतनी जरूरी क्यों है? इसके पीछे कारण यह है कि इसके अभाव से हम बदलते समय से संवाद करने में असफल हो जाते है| सरकार ने ऑटोमोटिव क्षेत्र के लिए सुचना जारी कर सन्देश दे दिया है कि 2030 तक भारत में इलेक्ट्रिक व्हीकल का उपयोग हो| I.C. इंजन के प्रभाव को कम किया जाए| पर्यावरण के सरकार के भी अंतराष्ट्रीय कमिटमेंटस है| सरकार के सुचना अपने स्तर पर उचित है| बिना अनुसंधान के यह संभव ही नहीं है| जो भी ऑटोमोटिव क्षेत्र की कंपनी आ रही है अब सबका फोकस सिर्फ और सिर्फ इलेक्ट्रिक ही है| यहाँ तक कि इंटरव्यू में बहुतायत में सवाल इसी क्षेत्र से पूछे जा रहे है| अब एक सवाल यह भी है कि क्या सच में इलेक्ट्रिक व्हीकल का सुझाव पर्यावरण के पक्ष में है? व्यक्तिगत रूप से मै इसपर विश्वास नहीं करता| मुझे ऐसा लगता है कि शायद उसका उलट प्रभाव पड़ सकता है| इलेक्ट्रिक व्हीकल चलाने के लिए आखिरकार बैटरी को चार्ज तो करना ही पड़ेगा| चार्ज करने के लिए भी उर्जा की जरूरत होगी| हमारी नवीनकरणीय उर्जा की उतनी क्षमता नहीं है बिजली पैदा कर सके जो घर और गाड़ी दोनों के लिए बम बम हो|

दूर दराज के गाँव तक अभी हमलोग इलेक्ट्रिसिटी ढंग से नहीं पहुचा पाए है| ऐसे में हम अगर इलेक्ट्रिक व्हीकल का उपयोग करते है तो हो सकता है कि हमें कहीं गाँव के बिजली की और कटौती करके शहरों में देना पड़े या फिर दे दनादन कोयले का उपयोग करके बिजली बनानी पड़े| अगर ऐसा होता है तो कोयले का उपयोग कर बिजली बनाना और फिर उस बिजली से चार्ज करके गाड़ीयों को रोड पर दौड़ना मुर्खता से सिवाय और कुछ नहीं हो सकता है| ऐसा इसलिए क्युकी यह तय बात है कि पर्यावरण के नजरिया से कोयला बाक़ी के फ्यूल पेट्रोल और डीजल के मुकाबले बहुत ज्यादा हानिकारक होती है| ऐसे में लोग मुझसे पूछ सकते है कि सौरउर्जा और बाक़ी के उर्जा के नवीकरणीय श्रोतों से भी तो बिजली का उत्पादन कर ही सकते है फिर मै बार-बार कोयले के बारे में जिक्र क्यों कर रहा हूँ| ऐसे में मेरा जवाब एकदम सीधा यही होगा कि आज भी उर्जा के मुख्य श्रोतों में सबसे ज्यादा कोयले की सहभागिता होती है| एनर्जी कॉन्ट्रिब्यूशन में कोयले से 55%, 30% आयल, 9% नेचुरल गैस और मात्र 2% नवीकरणीय उर्जा का कॉन्ट्रिब्यूशन होता है| और भी बहुत सारे कारण है जिसकी वजह से सभी उर्जा के श्रोतों में कोयला बॉस है|

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ऐसे में अगर हम इलेक्ट्रिक व्हीकल की बातें करते है तो शायद हो सकता है कि कोयले का कॉन्ट्रिब्यूशन और अधिक बढे| इसके दो नकारात्मक प्रभाव पड़ेंगे| पहला आर्थिक प्रभाव यह पड़ेगा कि कोयले जैसे अभी ऑस्ट्रेलिया से आयात करना पड़ रहा है इसका प्रतिशत और बढे| ऐसे में डॉलर की खर्च बहुत ज्यादा बढ़ जाएगी| यह आर्थिक रूप से भारत से लिए सही नहीं होगा| घूम फिर के बात वही तेल के आयत जैसी हो जाएगी| इलेक्ट्रिक व्हीकल पर जाने के पीछे यह भी कारण माना जाता है कि हो सकता है तेल के आयात में हो रहे खर्च से थोड़ी राहत मिले| यह रिसर्च का विषय है कि किसमें ज्यादा घाटा होगा और किसमें कम| दूसरा नकारात्मक प्रभाव यह पड़ेगा कि यह पर्यावरण के नजरिए से और भी ज्यादा घातक साबित होगा| ये बात सिर्फ मै ही नहीं कह रहा हूँ| भारत के इस पक्ष पर मर्सिडीज के सीईओ भी अपनी असहमति व्यक्त कर चुके है| इसलिए रिसर्च बहुत जरूरी है|

हमारे साथ दिक्कत यही है कि हम एक समस्या का हल निकालते है और दूसरी समस्या पैदा करते है| दुसरे उदहारण के रूप में हमने पारंपरिक फ्यूल जैसे डीजल और पेट्रोल के जगह पर CNG और LPG का उपयोग किया ताकी हानिकारण गैस जैसे नाइट्रोजन के कंपाउंड आदि को कम किया जा सके| लेकिन इसके दो नकारात्मक प्रभाव पड़ते है| पहला टेक्निकल प्रभाव यह पड़ता है कि LPG और CNG से निकलने वाले पार्टिकुलेट मैटर की साइज़ डीजल और पेट्रोल के अपेक्षाकृत भी छोटी होती है| यह मनुष्य के स्वास्थ्य के लिए और भी हानिकारण है| हमारे नाक के बाल इसे अच्छी तरह से डीफेंड नहीं कर पाएंगे| कहीं न कहीं एक समस्या का हल तो किया लेकिन दूसरा पैदा कर दिया| यही कारण है कि ‘रिसर्च एंड डेवलपमेंट’ किसी देश के विकास के लिए बहुत जरूरी होता है| ‘रिसर्च एंड डेवलपमेंट’ से ना सिर्फ तकनिकी समस्या बल्कि सामाजिक समस्याओं को भी दूर किया जा सकता है| भारत को अगर सबसे ज्यादा कहीं ध्यान देना चाहिए तो इनपर ही देना चाहिए ताकी अपने युवाओं को वास्तविक रूप से ‘ह्युमन कैपिटल’ में परिवर्तित कर सके|

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