Book Review: परत

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  • पुस्तक: परत
  • लेखक: सर्वेश तिवारी “श्रीमुख”
  • रेटिंग: 4.98/5
  • मूल्य: Rs 200

अभी मैंने एक काफी अच्छी पुस्तक “परत” को पढ़ा| राजनितिक विज्ञान या समाजशास्त्र के चिंतकों को अक्सर सलाह दी जाती है कि जब भी विचारों में रुकावटें आए तो उन्हें उपन्यास पढ़ने चाहिए| वहाँ से नए सन्दर्भ मिलते है और समाज की जमीनी हकीकत से अवगत होने का मौका मिलता है| सर्वेश तिवारी की किताब ‘परत’ उन्हीं में से है| इस किताब में लेखक ने ऐसे सामाजिक कुरीतियों को उठाया है जिसे लिखने में अक्सर लोग कतराते है| सिर्फ सही मायने में स्वतंत्र व्यक्ति/लेखक/चिन्तक ही ऐसे मुद्दों को बेबाकी के उठा सकता है|

Liav Orgad अपने पुस्तक “The Cultural Defense of Nations: A Liberal Theory of Majority Rights” में लिखते है कि जो देश काफी लम्बे समय तक गुलाम रहे है उसका तेवर इतना जल्दी नहीं जा सकता है| इसके लिए उन्होंने भारत और दक्षिण अफ्रीका का उदहारण दिया है| यह एक प्राकृतिक सत्य भी है| आप जब कभी ट्रेन रेल में लम्बी यात्रा करेंगे तो उतरने के बाद भी यह एहसास होगा कि आप ट्रेन में ही है| यहाँ तक भूगोल के वैज्ञानिक, अल्फ्रेड वेर्ग्नर ने अपने ‘महाद्वीपीय बहाव सिद्धांत’ यह सिद्ध किया है कि जब एक ही जीव महाद्वीप के बहाव के कारण एक-दुसरे से अलग हो गए तो उसने वहाँ के वातावरण के मुताबिक अपने को ढाल लिया| हजारों साल की गुलामीं ने हमें भी इस्लामिक और यूरोपियन सभ्यता के प्रति वैसा ही ढाल दिया है| इसका असर हमारे समाज में आज भी दिखता है|

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सन्दर्भ

सर्वेश तिवारी की यह किताब राजनीती के ऊपर चढ़े तथाकथित “प्रेम” के परत को हमारे सामने उजागर करती है| प्रेम एक शुद्ध शब्द है| यह प्रेम के सहारे ही हमारी सभ्यताएँ आगे बढ़ती रहीं है| लेखक ने अपने पुस्तक में यह समझाने की कोशिश की है कि फ़िल्मी रंगत और असल जिंदगी में कितना फर्क होता है| झूठे फ़िल्मी जुमलों ने प्रेम शब्द को कैसे मटमैला किया है इसका बखूबी जिक्र किया है| भगवान् श्रीकृष्ण की परंपरा को मानने वाली यह सभ्यता प्रेम के खिलाफ तो कतई नहीं है| यह संभ्यता बिना परत के शुद्ध प्रेम की कामना करती है|

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लेखक दो कहानीयों को, ट्रेन की पटरी के तरह सामानांतर शुरू करते है| एक लोकतंत्र और पंचायत चुनाव से कहानी शुरू होती है| दूसरी कहानी एक भोलापन भरा प्रेम से शुरू होती है| बहुत ही बारीकी से लेखक इन दोनों कहानियों को एक समय बाद जोड़ते है| दोनों कहानियाँ हमारे और आपके समाज के बीच की सच्चाई है| कहानी पढ़ते हुए आप कब हसेंगे, कब उदास होंगे और कब उत्सुकता बढ़ेगी यह सारा लेखक के हाथ की कला है| एक और खास बात यह है कि यह कहानी शुरू से अंत तक आपको बांधे रखेगी| शायद यह भी हो सकता है कि किताब के बीच डिवाइडर लगाने का मौका तक न दे|

पंचायती रोमांस

मुझे इस किताब में बहुत सारी नई चीजें सिखने को मिली| पंचायत के चुनाव मिलने वाले आरक्षण को अलग अलग राजनितिक विद्वानों अपनी समझ अपने अध्यन में रखे है| वर्ल्ड बैंक ऐसी व्यवस्था को महिलाओं के उत्थान के तौर पर देखती है| कुछ विद्वान ऐसे प्रनिधित्व को “प्रॉक्सी प्रतिनिधित्व” के तौर पर देखते है| लेकिन लेखक अपने किताब ‘परत’ में जातिगत आरक्षण को भी “प्रॉक्सी प्रतिनिधित्व” के तौर पर पेश किया है जो की एक हद तक सच्चाई भी है| इसका मतलब यह है की पंचायत को सैंवधानिक रुपरेखा देने से पहले जहां सत्ता थी अमूमन सत्ता का केंद्र वही है| हो सकता है कि यह बात सामान्य रूप से हर जगह लागू न हो लेकिन इसकी संभावनाओं को भी नकारा नहीं जा सकता है|

ग्रामीण स्तर पर चुनाव का जिस तरह का माहौल होता है वह यह बताता है कि भले सत्ता स्थिर रहती हो लेकिन कहीं न कहीं जातिगत रेखा को पाटने की कोशिश जरूर करती है चाहे वो बाहरी मन से क्यूँ न हो| यह पंचायत स्तर पर जातिगत राजनीती का दूसरा पहलु है| उदहारण के तौर पर, इस कहानी में जो जातिगत लामबंदी थी वो टूटती नज़र आई है| इसके जगह पर जो गठजोड़ बना है उसमें अलग अलग जाती के लोगों का उपस्तिथि दिखती है| तथाकथित “निम्न जाती” के लोगों ने तथाकथित “उच्च जाती” के लोगों के साथ मिलकर चुनाव लड़ते है| यह कहीं न कहीं जातिगत रेखाओं को हलकी निश्चित रूप से करती ही है|

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पिता-पुत्री प्रेम

इसके अलावां, यह किताब एक पक्ष पिता-पुत्री के संबंध को भी दर्शाता है| अभिभावक का प्रेम दुनिया में एकलौता प्रेम है जो अपनी औलाद के लिए शेर से भी लड़ने की कुव्वत रखता है| पुत्र-पुत्रियों के होश सँभालने के बाद वो दुनिया का बहुत परवाह करतें नहीं है| हर गलती को माफ़ करते है चाहे वो कितनी भी गंभीर क्यों न हो| इस कहानी में जैसे भोलापन भरा प्रेम में पुत्री धार्मिक राजनीती का शिकार जरूर हो जाती है| इसके बावजूद पिता हर कोशिश करता है कि कम से कम जहाँ है वहाँ सही सलामत से रहे और नया रिश्ता कायम हो| इस प्रक्रिया में वास पूरे समाज से अलग राय रखने के लिए भी राजी हो जाता है|

यह चीज न सिर्फ इंसानों बल्कि जानवरों में भी पाई जाती है| नेशनल जियोग्राफी के एक विडियो में कुछ दिन पहले देख रहा था कि एक हिरण और उसका बच्चा एक तालाब को पार कर रहे थे| माँ पहले किनारे पहुचं जाती है| देखती है कि उसके बच्चे का पीछा कुछ मगरमच्छ कर रहे है| वो तुरंत पानी में कूदती है और खुद मगरमच्छ से सामने खुद की कुर्बानी दे देती है| इस बीच जो समय मिलता है उसमें उसका बच्चा सुरक्षित किनारे तक पहुँच जाता है|

निष्कर्ष

हालाँकि इनकी लेखन शैली अपने आप में अद्भुत है, लेकिन यही लोग आज के प्रेमचंद है| सामाजिक कुरीतियों को जितने बारीकी से सर्वेश तिवारी ने रखने की कोशिश की है वो काफी आकर्षक है| इनके शब्द और जोड़ने की कड़ी का अंदाज आपको भावुक भी करेगी| यह किताब सभी को पढना चाहिए ताकी समाज में चल रहे दिक्कतों को महसूस कर सके| यह किताब किसी सिनेमा के टिकट से भी कम है| हालाँकि सिनेमा का अपना महत्व है, मै उसका अनादर कतई नहीं कर रहा लेकिन यह तुलनात्मक उदहारण इसलिए दे रहा हूँ ताकी यह निश्चित रूप से पढ़ा जाए|

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