विधानसभा चुनावों के बदलते मायने और चिंताएं

Dial down the FREE Subscription for such premium content on our YouTube channel. How to Add Subscribe Button on YouTube Videos (Subscribe Button PNGs)

आज पांच राज्यों परिणाम आया| जिस तरह का चुनावी परिणाम आया उसमे कुछ चीजें है जिसपर विचार करना बहुत जरूरी है| पहली बात तो यह कि एक औरत दशकों तक समाज के लिए मणिपुर में आमरण अनसन करती है| जब बात नहीं बनती तो लोकतान्त्रिक तरीका अख्तियार करने की कोशिश करती है जिसमे उन्हें लोगों द्वारा मात्र 90 वोट देकर हराया ही नहीं बल्कि रिजेक्ट कर दिया जाता है| इस सशक्त महिला का नाम इरोम शर्मीला है|

वही दूसरी ओर देखे तो ऐसे लोग भी है जिन्हें किसी पार्टी की तरफ से टिकेट नहीं मिलता है और वो इंडिपेंडेंट उम्मीदवार के तौर पर खड़ा होते है और बहुत ही बड़े वोट मार्जिन लगभग एक लाख से ज्यादा से जित जाते है जिन्हें लोग राजा भईया कहते है| इस समाजसेवी के बारे में कौन नहीं जानता| इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं कि मै जनता के मैंडेट को नहीं तवज्जों दे रहा, बल्कि मेरी चिंता इस बात की है कि आखिर लोग इतना असंवेदनशील कैसे हो सकते है? ये बात सिर्फ मणिपुर की नहीं है| इस वैचारिक बदलाव के क्या कारण है? ये बात पुरे मुल्क में है जहाँ किसी का भाई, किसी बेटा, किसी की पत्नी या कोई भी रिश्तेदार बहुत ही आसानी से परिवारवाद के बल पर चुनाव जीत लेता है|

Decoding World Affairs Telegram Channel

दूसरी बात यह कि आखिर क्या कारण है कि विपक्ष की भूमिका लुप्त होने की कगार पर है| इसके लिए कौन जिम्मेदार है? एक समय था जब कांग्रेस का दबदबा पुरे देश में हुआ करता था| पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण हर जगह लहरें हुआ करती थी| उस लहर के विपक्ष में जयप्रकाश नारायण की अगुआई में एक विरोध स्वर उठता है| उसी दौर में ऐसा समां बंधता है कि मुखालफत के स्वर को दबाने के लिए आपातकाल की घोषणा की जाती है ताकी सबकुछ नियंत्रण में लाया जा सके| फिर सत्ता पलट की नौबत आ जाती है| वही कांग्रेस उसके ठीक दो साल बाद अपने विरोधियों को नेस्तनाबूद करके ऐतिहासिक जीत दर्ज करती है|

See also  होर्डिंग की होड़ में टूटता मैनिफेस्टो का जोड़

उसके बाद जीत का एक पैटर्न सा बन जाता है| लेकिन आज ऐसी हालात है कि जिसे कांग्रेस का गढ़ माना जाता है जैसे महाराष्ट्र, हरियाणा, कश्मीर, उत्तरपूर्व के राज्य और दक्षिण भारत के राज्य, प्रत्येक राज्य को धीरे धीरे करके हार रहे है| उसके पीछे मेरे समझ से एक ही कारण है कि कांग्रेस जनता के जनादेश को स्वीकार करने में कतरा रही है और जल्दीबाजी में है| सामने वाली पार्टी को हराने के लिए किसी भी कीमत पर उतर जाना कांग्रेस का लॉन्ग टर्म नुकसान है| हार तो जब भी कांग्रेस की हो रही है अगर वो हर जगह पंजाब की तरह अकेले लडती तो बेशक हारती लेकिन उसका अगला चुनाव उसके पक्ष में होता क्युकी लोगों के पास राष्ट्रिय पार्टी के रूप में विकल्प होता| लेकिन कांग्रेस लोगों को विकल्पहीनता की ओर धकेल रही है|

तीसरी बात उत्तरप्रदेश के चुनाव से एक बात का निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि वो सच नहीं है जो कैमरे और अख़बारों में दिखाया जाता है| बीजेपी अगर उत्तरप्रदेश में इतना विशाल बहुमत पाती है इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं है कि सिर्फ हिन्दू लोगों ने वोट किया है| बिहार में नितीश कुमार की एक राजनितिक समझ रही है कि वो धर्म और जाती से ज्यादा महिला को वोट बैंक के रूप में देखते रहे है और इसमें सफल रहे है| उत्तरप्रदेश में उसी कांसेप्ट का पूरा फायदा बीजेपी ने उठाया है और खासकर मुस्लिम महिलाओं को अप्रत्यक्ष रूप से वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल करने में सफल रहे है| इसका माध्यम बना है मुस्लिम समाज की पुरुष प्रधान वाली कुरीतियाँ जिसमे ट्रिपल तलाक जैसी चीजें आती है| कई डेटा सामने आए है जिसमे ज्यादातर मुस्लिम महिलाओं का पक्ष इसके खिलाफ रहा है|

See also  Indian Politics: Votes are caste, not cast

कहीं न कहीं बीजेपी के इस आईडिया से मुस्लिम औरतों के मुद्दे मेल खाए है| इसमें बीजेपी सफल रही है| कुछ ऐसे विधानसभा की सीटें भी है जो मुस्लिम बहुल है और वहाँ पर विकल्प के रूप में मुस्लिम प्रत्याशी होने के बावजूद वहाँ से हिन्दू प्रत्याशी जीता है| यह इस बात का सूचक है कि सबकुछ अब वैसा नहीं है जैसा पहले अनुमान लगाया जाता था| मै पहले भी बहुत बार इस बात की चर्चा कर चूका हूँ कि भारत के पूरे मुस्लिम समाज पर कुछ चंद लोगों का कब्ज़ा है जिन्हें मौलवी कहते है| आजादी के बाद से अब तक अपने समाज का सौदा ही करते आए है कभी इसका पिछलग्गू बनकर और कभी उसका पिछलग्गु बनकर|

चौथी बात यह कि जिस तरह का व्यावहारिकता चुनाव हारने के बाद मायावती जी ने किया वो कहीं न कहीं बौखलाहट का प्रतिक है| जनादेश का सम्मान न करने की बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है| यह मान लेना कि हमने इस इलाके में मुस्लिम प्रत्याशी खड़ा किया था लेकिन फिर भी प्रतिद्वंदी जीत गया, कहीं न कहीं तकनिकी छेडछाड इसका मुख्य कारण हो सकता है, एक फिजूल की बातें है| मायावती जी के साथ दिक्कत यही है कि समय के साथ बदलाव नहीं किया|

वही पुरानी सोच और पुराने समीकरण पर चुनाव लड़ना जिसपर वो एक दशक पहले लड़ा करती थी, कहीं न कहीं उन्हें पीछे धकेलती है| अगर देखा जाए तो वोट शेयरिंग के मामले में बीजेपी के बाद मायावती की पार्टी का दूसरा नंबर आता है| इनका वोट शेयर लगभग 22.2% है| इसके बाद भी वो 19 सीटें जीतती है वही इनसे कम वोट शेयर वाली अखिलेश यादव की पार्टी लगभग 50 सीटों के आसपास पहुचती है| यही नहीं मायावती की पार्टी का लोकसभा 2014 में वोट शेयर के मामले में वो तीसरे नंबर की पार्टी थी लेकिन वो एक भी सीट जितने में कामयाब नहीं थी|

See also  लोकतंत्र पर हावी होता भीडतंत्र

असल चिंता यही है कि आखिर क्या कारण है कि विशाल वोट शेयर होने के बाद वो सीटें जितने में असफल रही है, वो तो बिल्कुल नहीं जिसके बारे में मायावती जी कह रही है| इसके पीछे कारण यही है आजादी के बाद अंग्रेजों द्वारा बनाए लोकतंत्र को आंखमूंद कर हमने आत्मसात कर लिया| यूनाइटेड किंगडम में एक प्रकार की उनिफोर्मिटी है जहाँ पर सीधे सीधे बहुमत का कांसेप्ट लगा सकते है बिना किसी दुसरे पक्ष का मूल्यांकन किए, लेकिन भारत जैसे देशों में ऐसा करना लोकतंत्र की मूल आत्मा को प्रभावित करता है| यही कारण है कि मायावती के विशाल वोट शेयर होने के बावजूद को सीटें नहीं जीत पाती| अगर सीटें जीतनी है तो बाक़ी के तबकों को भी साथ में लाना होगा| दलित और पिछड़े वर्ग का लामबंद करने के बहुत ज्यादा परिवर्तन देखने को नहीं मिलेगा|

Spread the love

Support us

Hard work should be paid. It is free for all. Those who could not pay for the content can avail quality services free of cost. But those who have the ability to pay for the quality content he/she is receiving should pay as per his/her convenience. Team DWA will be highly thankful for your support.

 

Be the first to review “विधानसभा चुनावों के बदलते मायने और चिंताएं”

Blog content

There are no reviews yet.

Decoding World Affairs Telegram Channel
error: Alert: Content is protected !!