रोहिंग्या मुस्लिम को लेकर भारतीय राजनीती में उठापटक

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भारत दुनिया का एकलौता मुल्क है जहाँ आज भी कई सौ साल पुराने विचार किसी राजनीती के लिए अंतिम सत्य बना हुआ है| यहाँ की राजनितिक समझ अपने लिए जगहें ढूंढने की हर संभव कोशिश करती है| रोहिंग्या मुस्लिम को लेकर बातें इतनी उलझा दी जाएंगी यह मैंने भी नहीं सोचा था| भारत में यह भी राजनीती का हिस्सा बन चूका है| तमाम विचारों को अंतिम सत्य मान बैठे राजनितिक संगठन अपने लिए बिंदु ढूँढना शुरू करते है फिर राजनितिक वातावरण बनाते है| यही इसका ट्रेंड रहा है| ऐसा नहीं है कि यह पहली मर्तबा हो रहा है| पहले भी होता आया है और आज भी हो रहा है| उदहारण के तौर पर जब भारत ने डोकलम में हस्तक्षेप करने जा रही थी तभी वामपंथी दरवाजे से प्रतिरोध का स्वर उठा जिसमे यह कहा गया कि भारत का कोई लेना देना नहीं है इसलिए भारत का हस्तक्षेप गलत है| वामपंथी नेता ने सिर्फ इस वजह से भारतीय हस्तक्षेप का विरोध किया जिससे अपने समान विचार वाले चाइना की अप्रत्यक्ष रूप से सपोर्ट कर सके|

जबकी उसमें भारत की आंतरिक सुरक्षा निहित थी इसके बावजूद सिर्फ अपने विचार को हवा देने के लिए उसकी मुखालफत की गई थी| यही चीजें अब रोहिंग्या मुस्लिम के मामले में हो रही है| ठीक वैसे ही भारत के राजनितिक लोग इसपर भी अपने सुविधा अनुसार स्टैंड ले चुके है| विचारों में विभिन्नता गलत नहीं होती लेकिन स्वस्थ्य रूप से बात न करना और अपनी राजनितिक हित साधना गलत जरूर होती है| इसी राजनितिक दंगल में अंतराष्ट्रीय राजनीती भी अपनी भूमिका निभा जाती है| उदाहरण के रूप में अभी रोहिंग्या मुस्लिम को लेकर UN के हवाले से जिस तरह की सलाहें आई है वो भी अपने आप में आश्चर्य कर देने वाली है| निसंदेह भारत को दक्षिण एशिया का ताकतवर और बड़ा देश होने के नाते जिम्मेदारी बनती है कि अपने पास पड़ोस के वातावरण को हमेशा सही बनाए रखे| यह बातें मैंने पहले भी कही थी और आज भी कह रहा हूँ| जरूरत पड़े तो हस्तक्षेप भी कर सकता है| लेकिन किसी भी कीमत पर बिलकुल नहीं| इसके लिए जरूरी यह भी है कि अपने सुरक्षा और व्यवस्था के हीत का भी ध्यान रखे|

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तमाम तरह की अंतराष्ट्रीय सलाहे आ रही है कि भारत को अपना लेना चाहिए| परमानेंट रूप से अपनाने के पक्ष में तो मै कतई नहीं हूँ| तात्कालिक रूप से जरूर कुछ समय के मदद कर सकते है| वो भी तब जब म्यांमार से हम बात करके हल निकालने में सक्षम हो| इस राजनितिक दंगल में अंतराष्ट्रीय संस्थाएं अपनी भूमिका निभा रही है| अगर इतनी ही चिंता है तो रोहिंग्या बहुत ज्यादा नहीं है सरकारी आंकड़े के अनुसार कुछ आधे लाख से भी कम है| क्या इंग्लैंड और अमेरिका क्रमशः लन्दन और कैलिफोर्निया में बुलाने के लिए राजी होंगे? पहुचाने में भी कोई दिक्कत नहीं होगी| एक या दो बड़े जहाज पहुचाने के लिए काफी है| ऐसे ही माइग्रेशन के विरोध में पूरे इंग्लैंड के लोगों ने जनमत संग्रह के दौरान ब्रेक्सिट के लिए वोट किया था| अमेरिकी राष्ट्रपति अपने देश के समय तो सबसे ज्यादा खिलाफ में रहते है| यूनाइटेड नेशन में परमानेंट सीट की नजर से रोहिंग्या को अपने यहाँ स्थापित करवाना मुझे नहीं लगता कि कोई मौका है या किसी भी प्रकार से कोई जरूरी कदम के रूप में होगा|

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इसमें दो तिन तरह की बातें की जा रही है| पहली बात आती है भारत की सुरक्षा को लेकर| निसंदेह यह बात भी सही है कि सारे रोहिंग्या मुस्लिम दहशतगर्द नहीं है| इसका खामियाजा सारे लोगों को नहीं भुगतना चाहिए| लेकिन इस बात से भी नाकारा नहीं जा सकता कि दहशतगर्द इसे मौका के रूप में नहीं देखेंगे| यह अवैध घुसपैठ का एक हिस्सा हो सकता है| इसलिए मुझे लगता है कि भारत को बहुत ही सावधानी से इसमें दखल देकर इसे शांत करवाना बहुत ही जरूरी है| खुफिया रिपोर्ट में रोहिंग्या मुसलमानों का आतंकी संगठन से भी जुड़े होने का जिक्र किया गया है| इसके मुताबिक रोहिंग्या आतंकी समूहों के तौर पर जम्मू-कश्मीर, दिल्ली, हैदराबाद और मेवात में सक्रिय हैं| इसलिए हम ख़ुफ़िया रिपोर्ट को ख़ारिज भी नहीं कर सकते| ख़ुफ़िया सूचनाओं का नजरंदाज करना मुंबई जैसे हमलों का दावत देने वाली बात है| सरकारी तौर पर जो आंकड़ा बताई जा रही है उसमे भी संदेह है| सरकारी आंकड़े के अनुसार उनकी संख्या कोई चालीस हजार बताई जाती है लेकिन ख़ुफ़िया इसे तीन लाख पार मानते है|

दूसरी बात यह है कि क्या इसमें भारत का हीत निहित है| निसंदेह म्यांमार से भारत का सीधा सरोकार जुड़ा हुआ है| भारत को डिप्लोमेटिक स्तर से हस्तक्षेप करके इसका हल निकालना बेहद जरूरी है| कोई भी मुल्क तब तक समृद्ध नहीं हो सकता जब उसके पास पड़ोस वाले देश सुखी न हो| इसलिए कुटनीतिक नजरिए से हमारे पडोसी मुल्कों को हमेशा किसी भी प्रकार के कलह से दूर रखना पड़ेगा| कल गए अमेरिका या इंग्लैंड जैसे कोई भी ताकतवर मुल्क भारत पर सीधा हमला नहीं कर सकता| उसे भारत के आसपास बेस बनाने ही पड़ेंगे| ऐसे में अगर हमारा पडोसी मुल्क अशांत होता है तो कुटनीतिक नजरिए से प्रतिद्वंदी देश को फायदा मिलता है| दूसरा कारण यह है कि भारत का एक अहम् हिस्सा उत्तरपूर्व जो भारत से ‘चिकन नेक’ से जुड़ा हुआ है, वह इलाका म्यांमार से सीधा जुड़ा हुआ है| सुरक्षा की नजर से बहुत महत्वपूर्ण है| तीसरा कारण यह है कि भारत पूर्वी देशों में अपना बाजार बनाने के लिए कालादन ट्रांसपोर्ट प्रोजेक्ट पर बल दे रहा है, जो भारत के कोलकाता से म्यांमार के उसी रखाइन स्टेट के ‘सित्तवे बंदरगाह’ को जोड़ रहा है जहाँ से रोहिंग्या मुसलमानों का संबंध है|

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आने वाले समय में यह बंदरगाह हामारे लिए नए आयाम खोल सकते है| चुकी भारत ने बांग्लादेश पर पूरा जोर डालकर उससे चित्तागोंग पोर्ट को भारत के कोलकाता और अगरतल्ला से जोड़ने की बातें की थी मगर बांग्लादेश के मनाही ने हमेशा हमें अवरोधित किया है| वही बांग्लादेश जिसकी आजादी के लिए भारत ने भरपूर सहयोग किया था| बाद में चलकर वही बांग्लादेश उसी चित्तागोंग पोर्ट पर चाइना को फाइनेंस करने की इज्जाजत दे देता है| इसलिए यह जरूरी है कि भारत बहुत ही सतर्कता से इसमें दखल देकर जितनी जल्द से जल्द हो इसका हल निकालना चाहिए| भारत के उत्तरपूर्व लोगों का म्यांमार से जो सांस्कृतिक जुड़ाव है उसे भी बराबर ध्यान में रखना जरूरी है| वहाँ के बुद्धिस्ट लोगों का धार्मिक स्थल भी भारत के बौध गया में ही है| वही बौध गया जहाँ पर रोहिंग्या मुस्लिम ने बुद्धिस्ट लोगों से बदला लेने के लिए हमला करवाया था| हो सकता है कि रोहिंग्या लोग फिर वहाँ हमला का प्लान कर सकते है| कहीं न कहीं प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से यह मामला भारत के सुरक्षा और संस्कृति से भी जुड़ा हुआ है|

इसके अलावां तीसरी बातें यह उठती है कि भारत के चकमा लोगों को भी पनाह दिया था और बाद में नागरिकता भी दे दी तो रोहिंग्या को क्यों नहीं? हमारे देश के राजनितिक गलियारे में यहाँ कन्फ्यूजन पैदा करने की कोशिशें की जा रही है| चकमा लोगों को अंग्रेजों से समय CHT(चित्तागोंग हिल ट्रैक्ट) क्षेत्र में विशेषाधिकार दिया गया था जिससे वो अपनी संस्कृति को बचा सके और किसी भी बाहरी लोगों के हस्तक्षेप से बचा सके| लेकिन समय बदला और हमारी आजादी उनकी बर्बादी का एक कारण बन गया| वहाँ के लोग भारत में शामिल होना चाहते थे लेकिन जनमत संग्रह की प्रक्रिया में छेडछाड करके उन्हें पाकिस्तान का हिस्सा बना दिया गया| उसका मुख्य कारण था चित्तागोंग बंदरगाह जो उनके इलाके में आता था| उनके सारे विधेशाधिकार पाकिस्तान द्वारा छीन लिए गए और वहाँ पर मुस्लिम लोगों को बसाना शुरू कर दिया| भारत में शामिल होने की चाह को चकमा को देशद्रोही बना दिया गया| वो चकमा बुद्ध धर्म को मानने वाले थे जिन्हें रोहिंग्या जैसे ही पूर्वी पाकिस्तान की हुकूमत और वहाँ की आवाम ने मानवता को तार तार कर दिया था|

ऐसे में चकमा के पास एक ही रास्ता था भारत| ऐसा बिलकुल नहीं है कि हिंदुस्तान ने उन्हें स्वीकार कर लिया था| पहले मिजोरम फिर नेफा (अरुणाचलप्रदेश) में वहाँ के स्थानीय लोगों द्वारा उनका बहुत विरोध किया गया| यहाँ तक की आज भी किया जाता है| सुप्रीम कोर्ट के बारंबार आदेश के बाद कुछ चकमा लोगों को ही अब तक नागरिकता मिल पाई है| इसके अलावां दलाई लामा और श्रीलंका के हवाले से इस बात पर जोर दी जा रही है कि उन्हें पूरी तरह से अपना लिया जाए| यहाँ फिर राजनितिक गलियारे में कन्फ्यूजन पैदा करने की कोशिश जा रही है| दलाई लामा को तब के भारतीय प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु से बहुत बार मदद भी नहीं की थी| वहाँ पर भारत की कुटनीतिक हार हुई है| वह मौका था जब हम ना सिर्फ अपने सीमा विवाद बल्कि तिब्बत को स्वतंत्रता पर बल देकर अपनी सुरक्षा को कवच प्रदान कर सकते थे| भारत ने उसमे सक्रीय रूप से दखल नहीं दिया जिसका परिणाम यह हुआ कि भारत से लगने वाला चाइना की बाउंड्री का कुछ हिस्सा बढ़ गया, जो हमारे सुरक्षा की नजर से सही नहीं हुआ| पूरे विश्व ने तिब्बत को चीन के हिस्से के रूप में मान्यता नहीं दी थी| लेकिन हमने ‘हिंदी चीनी’ रिश्ते के लालच में गलती कर बैठे|

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श्रीलंका में जो तात्कालिक राहत देने का काम किया था वो बहुत ही बेहतरीन था| बाद में हमने ‘ड्यूल स्टैण्डर्ड’ का गेम खेला| लेकिन डिप्लोमेटिक लेवल पर हमने वहाँ भी वही गलतियाँ फिर से की| तमिल हीत को देखते हुए पहले हमने प्रभाकरण को हमने प्रशिक्षित किया| बाद में उसी प्रभाकरण को ख़त्म करने के लिए IPKF (इंडियन पीस कीपिंग फ़ोर्स) भेजा| यह इसलिए भेजा क्युकी भारत के तब के प्रधानमंत्री राजीव गाँधी श्रीलंका की सरकार से पीस एकॉर्ड साइन कर चुके था| हमें कोई एक स्टैंड लेनी चाहिए थी| इसलिए अब तक हमने एथिनिक क्लैश जैसे मसलों पर पडोसी देशों में सार्थक डिप्लोमेसी का समन्यवय नहीं बैठा पाए है| इसलिए स्थाई रूप से शरण देना आने वाले भविष्य के लिए सही नहीं है| एक फिर कह रहा हूँ कि अगर वैसी व्यवस्था बन पाती है कि अस्थाई रूप से शरण देकर इसका हल ढूंढने में समर्थ है तो निसंदेश भारत को करना चाहिए| इसके लिए शर्त यही होनी चाहिए कि भारत म्यांमार से बात करके इन्हें पुनः विस्थापित करने में सक्षम हो|

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