देश में स्वस्थ्य विपक्ष की कमी

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आज यह किसी से छुपा नहीं है कि आजादी के लगभग 70 साल बाद भी हमारा राजनितिक तंत्र विपक्ष का मतलब समझने में असमर्थ रहा है| चाहे कोई भी पार्टी क्यों न हो? जब एक पार्टी सत्ता में आती है तो दूसरा विपक्ष में बैठने वाली पार्टी अपनी भूमिका यह मान बैठती है कि जितना ज्यादा अवरोध कर सके उतना अच्छा विपक्ष होगा| जबकी विपक्ष एक सार्थक शब्द है जो हर काम को अच्छा से बहुत अच्छा में परिवर्तित करती है| ऐसा नहीं है कि ये बीमारी किसी एक पार्टी में है बल्कि सभी पार्टियों के साथ यही दिक्कत है| बीजेपी जब विपक्ष में थी तब खुदरा में FDI लाने के लिए पुरजोर विरोध करती थी| यहाँ तक कि मुझे सुषमा स्वराज जी का संसद का वो भाषण याद आता है जिसमे वो भारतीयता की बातें करती थी| यहाँ के लोगों का हाथ का हट जाने की बातें करती थी| वही उनकी पार्टी जब सत्ता में आई तब तो इसे लागु करवाया गया| आज कोई दिक्कत नहीं है| ऐसे ही 2002 में केलकर टास्क फ़ोर्स ने जब GST के लिए सलाह दिया तो बीजेपी ने पूरा विरोध किया था| सोचिए अगर यही GST आज के 15 साल पहले लागु हो गया होता देश कितना तरक्की करता| यह बात बीजेपी को तब समझ आई जब वो सत्ता में आई|

GST को लेकर जो बीजेपी का पक्ष है वो बहुत सही है| यह एक बहुत बड़ा आर्थिक रिफार्म है जिसका ह्रदय से स्वागत करना चाहिए| यह सामयिक बदलाव है| इसे आज के 15 साल पहले ही लागु हो जाना चाहिए| यह बदलाव भी ठीक वैसा ही जैसे मुद्रा का विकास हुआ| पहले बार्टर, फिर सोने का सिक्का, पेपर नोट, चेकबुक, क्रेडिट और डेबिट कार्ड और अब डिजिटल करेंसी| ऐसे ही टैक्स के प्रणाली भी समयानुसार बदलती रही है| सेल्स टैक्स, VAT के बाद GST भी उसी विकास का एक हिस्सा है| इस पर और चर्चाएँ हो सकती है कि अपने देश में कैसे लागु किया जाए और कैसी दरें हो| इसमें बदलाव करने के लिए GST काउंसिल भी है| लेकिन अजीब बात तो यह है जिस कांग्रेस सरकार ने इसे टेबल पर रखा था वही आज सिर्फ इसलिए विरोध कर रही है क्युकी वो विपक्ष है| यह चिंता का विषय है कि विपक्ष और पक्ष में इतना अंतर तो नहीं होना चाहिए| एक सीमा होनी चाहिए जिसे मेन्टेन किया जा सके| अब सवाल यह उठता है कि आखिर दिक्कत क्यों है? क्या वजह है कि हम चाहकर भी एक स्वस्थ्य लोकतान्त्रिक व्यवस्था बना पाने में असमर्थ है?

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मै बहुत पीछे नहीं जाउंगा क्युकी मेरी बातें सिर्फ आजादी के बाद से शुरू होती है| अंग्रेजों ने जो किया उसपर टिपण्णी करना भी बेवकूफी है| बात शुरू वहाँ से होती है जहाँ से सत्ता हमारे लोगों के हाथों में आई| सबसे पहली दिक्कत यह हुई कि आजादी के बाद से 1967 तक एक ही पार्टी का डोमिनेंस रहा| चुनाव होते तो थे लेकिन औपचारिकता मात्र ही थे| लोकसभा राज्यसभा सब में बहुमत होती थी| जो मर्जी आता था वैसे काम होता था| जवाहर लाल नेहरु जब तक प्रधानमंत्री रहे तब तक वो पार्टी से अपने आप को ऊपर रखते थे| पहले वो फैसले लेते थे फिर बाद में कांग्रेस एप्रूव करती थी| कांग्रेस के अन्दर विरोध की स्वरें सरदार पटेल के गुट की थी तो सही लेकिन इतनी मजबूत नहीं थी| विपक्ष के ना होने का फल है कि बहुत सारे निर्णय आज नासूर बने हुए है| देश में एक कानून न होना, एक झंडा न होना, एक संविधान न होना यह सब शुरूआती दौर में विपक्ष की कमी की वजह से ही है| देश के सभी आवाम के लिए एक ही कानून होनी चाहिए थी चाहे हिन्दू हो, मुस्लिम हो या कोई और धर्म| लेकिन आज ऐसा नहीं है| आजादी के बाद दो बड़े गुट बनने चाहिए थे जो नहीं बन पाया|

इसके बाद श्रीमती इंदिरा गाँधी के कार्यकाल में पाकिस्तान से लड़ाई होती है और भारत जीत हासिल करता है| इसके बाद होने वाले इलेक्शन में जीतती तो है लेकिन उनपर धोखाधड़ी से चुनाव जितने का आरोप लगता है| इलाहबाद कोर्ट आरोप लगाने वाले श्री राजनारायण के पक्ष में फैसला सुनाते हुए श्रीमती गाँधी के राजनितिक कैरियर पर रोक लगाने की कोशिश करता है| सत्ता को दूर होते देख श्रीमती गाँधी इमरजेंसी की ओर रुख करती है ताकि अपनी राजनितिक कैरियर बचा सके| समय बदला और जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में पहली बार विरोध का स्वर उठा जो दिखावटी नहीं था| परिणाम यह होता है कि इमरजेंसी के ठीक दो साल बाद 1977 में हिंदुस्तान की अवाम मटियामेट कर देती है| यहाँ तक कि श्रीमती गाँधी खुद हार जाती है| जनता पार्टी का निर्माण होने के बाद एक बाइनरी डिस्कोर्स तैयार तो हुआ लेकिन कुर्सी की बंदरबांट ने एक बार फिर कांग्रेस को जिन्दा कर दिया| फिर सत्ता कांग्रेस के हाथ ही आई लेकिन सत्ता पर अब एकाधिकार वैसा नहीं रहा जैसा जवाहरलाल के समय हुआ करता था| धीरे धीरे दो दशक में एक विपक्ष के विकास की प्रक्रिया शुरू हुई|

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एक उदाहरण से इस बात को समझने की कोशिश करते है| जिस मनरेगा को लेकर कांग्रेस सीना तान कर बोलती है कि ये उसकी बड़ी उपलब्धि है और इसपर उसका ही एकाधिकार है उसी मनरेगा को कांग्रेस विश्वास में लाने में लगभग 15 से 16 साल लगा देती है| मनरेगा को पहली बार नर्शिम्भा राव जी ने 1991 में प्रोपोज किया था| लेकिन उसको पास होते होते 15 साल लग गये तब जाकर 2005 वो बिल एक्ट बना और 2008 से बढ़िया तरह से प्रभाव में आया| दो हजार के बाद के शुरूआती सालों में विपक्ष जवान हो चला चला था जो कांग्रेस पर अच्छे कामों के लिए लगातार दबाव बनाने लगा था| इसका सकारात्मक प्रभाव हमारे समाज में पड़ा है| तभी कुछ बहुत अच्छे बिलें कानूनों में परिवर्तित हुई है| उदहारण के रूप में मनरेगा को ही लेले, RTI 2005 (राईट टू इनफार्मेशन एक्ट), घरेलु हिंसा बचाव कानून 2005, प्रिवेंशन ऑफ़ मनी लौन्ड़ेरिंग एक्ट 2002 आदि आदि बहुत सारे और भी है|

लेकिन ध्यान यह रहे कि इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं है कि पहले कोई कानून ही पास नहीं हुआ| पहले भी कानूनें बहुत सारी बनी है जिसमे ज्यादातर ऐसी रही है जिसपर बढ़िया से चर्चा ही नहीं हुआ| ऐसे विशेष कानूनें नहीं बनी| जवाहरलाल नेहरु के कार्यकाल के दौरान कोई RTI (राईट टू इनफार्मेशन) के बारें में सोच भी नहीं सकता था| सरकार के हर खर्च और काम से संबंधित सवाल पूछने का हक़ जनता को मिलना उन दिनों लगभग नामुमकिन था| संसद के अंदर जब विरोधी स्वर का गुट खुल कर सवाल पूछ ही नहीं पाता था, जनता तो बहुत दूर की बातें थी| ऐसी मनमानी सिर्फ इसलिए थी क्युकी देश में स्वस्थ्य विपक्ष नहीं था| विपक्ष की कमी की वजह से ही मनमाने तरह के सेलेक्टिव कानून बना| जहाँ यूनिफार्म सिविल कोड बनना चाहिए था वहाँ सिर्फ हिन्दू कोड बना| पहले हिन्दू धर्म में भी एक से ज्यादा शादियाँ होती थी| लेकिन सामाजिक परिस्तिथि तो देखकर बदलाव की बातें तो हुई लेकिन मुस्लिम समाज को पीछा छोड़ दिया| वो चीजें पक के घाव बन चुकी है जो सांप्रदायिक रूप लेकर समाज में अस्थिरता फैला रही है|

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विपक्ष तभी तैयार होता है जब अल्टरनेटिव पॉलिटिक्स की संभावनाएं जगती है| अन्ना आन्दोलन के बाद ‘आम आदमी पार्टी’ का उदय इसलिए नहीं हुआ कि उनके पार्टी के नेता ईमानदार है बल्कि एक अल्टरनेटिव पॉलिटिक्स की उम्मीद जगी थी| ये ईमानदार और बेईमान वालीं चीजें सिर्फ जनता के बीच की बातें थी जबकी राजनितिक विश्लेषक और साइंटिस्ट इसे अलग तरह से देखते थे| तमाम राजनितिक विश्लेषकों, पत्रकारों और सोशल साइंटिस्ट लोगों ने इसलिए खुलकर समर्थन किया था ताकि एक और ऐसी राष्ट्रीय स्तर की पार्टी बने जिसकी क्षमता बीजेपी और कांग्रेस जैसी हो जिससे लोगों को चुनने का विकल्प मिले| मान लीजिये कि सिर्फ दो पार्टी है एक पक्ष और दूसरा विपक्ष में बैठेगी| अगर तीन पार्टी आती है तो एक पक्ष और दो विपक्ष में बैठेगी जो विपक्ष का स्तर है उसको दुरुस्त करेगी| ऐसी उम्मीद लगाई जाती है| ना तो अपने आप को “आप पार्टी” एक बढ़िया ग्राउंड मिलने के वैसा बना पाई और नाही विपक्ष में होने पर वैसी चीजें कर पाई जिस उम्मीद से विश्लेषक समर्थन करते रहे थे|

अब तक मै यही समझाने की कोशिश कर रहा था कि अगर विरोध सही समय पर सही तरीके से ना हो तो आने वाले समय में नासूर बनके सामाजिक स्तिथि को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करता है| अगर विरोध हो और गलत तरीके से हो तो हमें हमारी क्षमताओं का पूरा पूरा उपयोग करने से रोकता है जो देश को दशकों पीछा ले जाता है| आजादी के बाद से 20वीं शताब्दी के अंत तक विरोध ही नहीं हुआ और अब जब मुखालफत की बातें उठती भी है तो गलत तरीके से जिसका कोई खास मतलब ही नहीं रह जाता|

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