मजदुर बनाम पूंजीपति का बाइनरी डिस्कोर्स

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आज मजदुर दिवस है| सबसे पहले उन तमाम मजदूरों को बधाई जो इस देश की अर्थव्यवथा के रीढ़ की हड्डी है| देश में जब भी बातें की जाती है हमेशा एक बाइनरी डिस्कोर्स बनाया जाता रहा है| जैसे राजनितिक पार्टी के क्षेत्र में देखें तो बीजेपी बनाम कांग्रेस, यूनिवर्सिटी कैंपस में छात्र राजनीती को देखे तो लेफ्ट बनाम राईट, जीवन जीने की शैली के क्षेत्र में देखे तो शहरी बनाम ग्रामीण, सामाजिक स्तर पर झांके तो पता चलता है आदिवादी बनाम गैर-आदिवासी, लैंगिक स्तर पर स्त्री बनाम पुरुष, धर्म के नजरिए से हिन्दू बनाम मुस्लिम| ठीक ऐसे ही औद्योगिक क्षेत्र में भी होता है जिसे उद्योगपति बनाम मजदूर के बाइनरी डिस्कोर्स के रूप में तैयार किया जाता है|

ये सभी डिस्कोर्स भारत-पाकिस्तान के क्रिकेट मैच के डिस्कोर्स से कतई कम नहीं होता है जहाँ क्रिकेट को खेल नहीं बल्कि रणभूमि के रूप में उम्मीद की जाती रही है| मजदूर भी एक वर्ग है जिसे हमेशा एक हीन भावना से ही देखा जाता रहा है| एक बार को किसान को ‘अन्नदाता’ के रूप में और सैनिक को ‘रक्षक’ के रूप में देखते हुए जरूर थोड़ी बहुत संवेदना प्रकट हो जाती है लेकिन मजदूरों के लिए संवेदना की कोई जगह नहीं मिल पाता है|

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अंतराष्ट्रीय मजदूर दिवस को लगभग पूरी दुनिया में मनाया जाता है और इसके लिए राष्ट्रीय छुट्टी भी घोषित किया जाता है| इसकी शुरुआत अमेरिका में हुई थी| जब अमेरिका में अभी मजदूर संघ सभी मिलकर यह निश्चय करते है कि वो 8 घंटों से ज्यादा काम नहीं करेंगे इसके लिए वो हड़ताल भी करते है| उन दिनों मजदूरों से 10-16 घंटा तक काम करवाया जाता था और उनकी सुरक्षा का कतई ध्यान नहीं रखा जाता था| इंग्लैंड के मज़दूर संगठन विश्व में सबसे पहले अस्तित्व में आए थे| यह समय 18वीं सदी का मध्य काल था|

मज़दूर एवं ट्रेंड यूनियन संगठन 19वीं सदी के अंत तक बहुत मज़बूत हो गए थे, क्योंकि यूरोप के दूसरे देशों में भी इस प्रकार के संगठन अस्तित्व में आने शुरू हो गए थे| अमरीका में भी मज़दूर संगठन बन रहे थे| वहाँ मज़दूरों के आरम्भिक संगठन 18वीं सदी के अंत में और 19वीं सदी की शुरुआत में बनने शुरू हुए| लेकिन भारत में इसे मानाने की शुरुआत 20वीं शताब्दी में शुरू हुई| 1923 में भारत में पहली बार मजदुर दिवस मनाई जाती है|

भारत में आजादी के बाद से अब तक मजदूरों की स्तिथि में कुछ ख़ास बदलाव नहीं आए| उनकी माली हालात पहली भी ऐसी ही थी जैसी अब है| हम जानने की कोशिश करेंगे कि आखिर क्यों कुछ विशेष बदलाव नहीं आए? दुनिया के मजदूरों के सबसे बड़ी आबादी भारत में रहती है| इसका प्रतिशत लगभग 25% के आस पास होता है| 2025 तक लगभग 30 करोड़ यूथ को विश्वास में लाने की बातें कही जाती है| इसके लिए एक टेक्निकल टर्म का उपयोग किया जाता है ‘डेमोग्राफिक डिविडेंड’, इसका मतलब यह कि पूरे विश्व में भारत के लोगों की औसत आयु बहुत कम है इतना इतिहास में पहले कभी नहीं था|

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यह उम्मीद की जाती है कि आने वाले समय में भारत उस गैप को भरेगा जहाँ पर लेबर फ़ोर्स की कमी होगी| लेकिन इसके लिए हमारी क्या तईयारियां है? महात्मा गाँधी को एक रात उनके मित्र पश्चिमी विचारक ‘रस्किन’ की किताब दे जाते है| उन्हें वो किताब इतनी अच्छी लगती है कि वो पूरी रात पढ़ते है और सुबह उठते ही ‘हिन्द स्वराज्य’ नामक किताब लिख डालते है| उस किताब की थीम ही ‘मजदूरों को इज्जत’ दिए जाने पर आधारित थी|

रस्किन यह मानते थे कि प्रतिद्वंद आदमी को मशीन में तब्दील कर देता है| सबसे पहली और बड़ी दिक्कत यह रही है कि जो सम्मान मिलना चाहिए था वो अब तक नहीं मिल पाया है| दूसरी बात मजदूरों का अपेक्षित विकास न हो पाना कई सारी समस्याओं को जन्म देता है| उत्तरप्रदेश राज्य में एक शहर है फिरोजाबाद| वहाँ की चूड़ी उद्योग बहुत ही मशहूर रही है| राज्यसभा टीवी के हवाले से जो रिपोर्ट पेश की गई थी वो यह दर्शाता है उनकी स्तिथि बहुत ही ज्यादा गिर चुकी है| आलम यह है कि ज्यादातर ग्लास इंडस्ट्रीज थे वो बंद हो चुके है और जो बचे है वो बंद होने के कगार पर है|

फिरोजबाद की पहली ग्लास इंडस्ट्रीज जो रुस्तम उस्ताद ने शुरू करी थी वो आज बंद पड़ी है| जब बंद पड़ी है तो स्वाभाविक सी बात है वहाँ पर जो लोग काम करते थे वो अब बेरोजगार है| इसके पीछे भी वही कारण है जो बनारस के लघु उद्योग और बुनकरों की बिगडती हालात की है| विश्व व्यापार नीतियाँ और नवउदारवादी नीतियों के इतने गुलाम है कि भारत के मजदूरों की हाथ काट विदेशी कंपनियों का स्वागत करते है|

पहले इम्पोर्ट ड्यूटी बहुत ज्यादा होती है जिससे यहाँ की बनी हुई चीजों की अहमियत भारतीय बाजार में मिल सके| लेकिन आज की स्तिथि यह है कि भारत में बनी वस्तु विदेशों से आयात करके आई वस्तु के अपेक्षाकृत बहुत ही ज्यादा महँगी प्रतीत होती है| परिणाम यह होता है कि सभी लोग वही खरीदते है जो सस्ती होती है| हम एक्सपोर्ट को सुदृढ़ करने के लिए सस्ते दामों पर फैब्रिक चाइना को बेचते है और उसी फैब्रिक का कपड़ा बनाकर हमसे भी सस्ते दामों में चाइना हमारे बाजारों में उतारता है|

देश सबसे ज्यादा अगर किसी चीज को प्रसारित किया जाता है तो वो है जीडीपी| जीडीपी क्या होता है किसी भी देश के भीतर उत्पादित वस्तु का अंतिम मूल्य। दूसरे शब्द में कहूँ तो ज्यादा प्रोडक्शन ज्यादा जीडीपी| लेकिन सवाल यह है कंपनिया जो सिर्फ मुनाफे के लिए ही होती है वो उत्पादन बढ़ाने और मुनाफा कमाने के लिए ऑटोमेशन का उपयोग करती है तो उत्पादन तो होगा लेकिन वहाँ के लोगों को नौकरी नहीं मिल पाती है|

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चुकी उत्पादन ज्यादा होगी तो जीडीपी का आंकड़ा भी बढ़ता हुआ दिखेगा लेकिन वहां के लोगों का संभावित विकास नहीं हो पाएगा। दूसरी बात जीडीपी का कैलकुलेशन बेस ईयर के आधार पर होता है| सरकारें अपनी वाहवाही करवाने के लिए बेस इयर बदलता है तो हमें जीडीपी के डाटा में बढ़ोतरी दिखेगा लेकिन जमीनी स्तर पर इस डेटा के बढ़ोतरी से वहाँ के लोगों का विकास कैसे होगा| रही बात परचेजिंग पावर पैरिटी की तो यह हमें समझना होगा कि जब बैंक हमसे पैसा सेविंग में लेता है औए इसके एवज में मात्र 4% ब्याज देता है|

अगर किसी व्यक्ति को घर लेना होता है या कोई गाड़ी खरीदनी होती है तो वही बैंक 8% से ऊपर के ब्याज पर पैसे देता है| दूसरी बात अगर महंगाई 2014-15 की तरह 11% तक पहुँच जाती है तो मजदूर कहाँ से अपनी जरूरत की सामनें खरीद पाएगा? बाजार की सारी वस्तुएं उसके कमाई से बचे सेविंग से ज्यादा होंगे| जब अगर एक बड़ा तबका इसे खरीदने असमर्थ रहता है तो प्रोडक्शन का भी कुछ ख़ास मतलब रह नहीं जाता है| अब कुछ एक केस स्टडी देख लेते है|

बिहार के ओरांव तथा थारू आदिवासी जनजाती और पूर्वोत्तर में राभा जैसी जनजातियों में औरतें खेस, साडी, कपडा और चादरों जैसी बुनाई के काम करती है| इसके एवज में उन्हें मात्र 50 रूपए प्रति खेस मिलता है| अगर 8-9 घंटा काम करे तो ज्यादा से ज्यादा दो खेस बना पाती है| उन्हें ज्यादा से ज्यादा दिन में 100 रूपए ही मिल पाता है जो सरकार द्वारा डिक्लेअर किया न्यूनतम मजदूरी से बहुत कम है| कम तनख्वाह मिलने के पीछे कारण यह है कि उनके बनाए हुए कपड़ों की पहुच दिल्ली के सरोजनी नगर मार्केट जैसी जगहों तक नहीं है|

इन मार्केटों में विदेशी कपडे बड़े ही आसानी से पहुच जाते है लेकिन इसी देश के कपडे नहीं पहुच पाते है जो कि दुर्भाग्य है| कम डिमांड की वजह से औरतों का वेतन भी कम ही मिलता है| इनकी बुनाई, कढाई और बांस से निर्मित वस्तुएं हमारे अर्थव्यवस्था के पोटेंशियल हो सकते है लेकिन इसकी चिंता है किसको? पूरा तंत्र दिल्ली, मुंबई, चेन्नई और कोलकाता के चारों और भ्रमण करने में ही व्यस्त रहता है| शहर में अपने आप को ढूंढते आए आदिवासीयों की जिंदगी सड़क के किनारे पहसुल, चाक़ू, सिलबट्टे बेचते-बेचते ही कट जाती है|

देश की अर्थव्यवथा में हाथ बटाने मजदूर अलग अलग राज्यों से शहरों में आते है| बिहार, झारखण्ड, उड़ीसा, उत्तरप्रदेश, पश्चिम बंगाल के लोग ज्यादातर पाए जाते है जो दिल्ली, गुडगाँव, लुधियाना, सूरत, चेन्नई, मुंबई आदि जैसे बड़े शहरों में अपनी संभावनाएं तलाशते रहते है| मजदूर जहाँ भी जाते है वहाँ उनकी ज्यादा से ज्यादा कोशिश यही रहती है कि किसी भी तरीके से सौ-पचास बचाकर अपने परिवार के लिए भेज दूँ जिससे वो अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों को निभा सके| लेकिन ऐसे में तमाम तरीको से जब उनकी जेब काटने की कोशिश की जाती है|

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आवास से लेकर बिजली, पानी, राशन और कंपनी के चौकठ तक उन्हें कई तरह से चुनौतियों का सामना करना पड़ता है| मजदूर की तरफ से कंपनी के लिए ‘न्यनतम मजदूरी’ के सन्दर्भ में आने वाली शिकायत कोई नई नहीं है| सरकार द्वारा तय की गई न्यूनतम कीमत के मुताबिक उनका वेतन आज भी बहूत सारे मजदूरों को नहीं मिल पाता है| बेरोजगारी की वजह से मजदूरी के लिए प्रतिस्पर्धा बाजार में इतनी ज्यादा है कि मजदूर किसी भी कीमत पर अपने आप को जलती भठ्ठी में झोकने के लिए आतुर रहते है|

कई बार इस तरह की बातें भी सामने आती रही है जिसमे ‘काम सिखाने’ के नाम पर कुछ सालों तक बेहद कम वेतन दिया जाता है जब उसकी वेतन बढाने की बातें आती है तो तमाम तरह के आरोप लगा के उन्हें हटा दिया जाता है| यहाँ पर शाइनिंग इण्डिया, गेट-अप इंडिया, मेक इन इंडिया, टीम इंडिया सब के सब धराशायी हो जाते है| बाहर में काम कर रहे मजदूर आज भी असुरक्षित है| आज भी गुलाम है जिन्हें समय पर अपने मकान का किराया न देने की वजह से हिंसा का शिकार भी होना पड़ता है| पैसा कौन से उन मजदूरों के हाथ में होता है कंपनी उन्हें देगी तभी तो वो अपने मकानमालिक को चुकाएँगे| कंपनियों की जवाबदेही तय करने  बचत खाता के बारे में सोचना भी बेवकूफी ही है जहाँ वेतन ऊंट के मुह में जीरा के बराबर हो और राशन पताई पर खर्चा उच्च वर्ग से भी ज्यादा हो|

लगभग दो साल पहले IMF के मैनेजिंग डायरेक्टर क्रिस्टीन लार्गाड़े ने कहा कि अगर काम की दिशा में पुरुष और महिलाओं की भागीदारी बराबर हो जाए तो अमेरिका के जीडीपी में 5%, जापान के जीडीपी में 9% और भारत के जीडीपी में 27% की बढ़ोतरी हो सकती है| क्या आपको लगता है कि ऐसे में महिलाओं की भागीदारी कभी बराबर हो पाएगी जहाँ ढंग से, इज्जत से रहने तक नहीं दिया जाता| उन महिलाओ के लिए क्या कानून है जिससे उन्हें पगार वक्त पर मिले और वो समय से अपने मकान मालिको को किराया चुका सके|

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