राजगुरु, भगत सिंह और सुखदेव की फांसी महात्मा गाँधी जी की नैतिकता की हार

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आजादी के समय काल में मूल रूप से दो प्रमुख विचार थे एक था कांग्रेस जिसका नेतृत्व महात्मा गाँधी करते थे जिसका व्यापक प्रभाव था और दूसरा क्रांतिकारियों का था जिसके नेता प्रमुख भगत सिंह थे. महात्मा गाँधी के विचार काफी व्यापक रहे है जिसकी पूरी दुनिया आज भी बहूत कायल है उनके विचारो का. लेकिन कुछ ऐसी घटनाए है जो हमेशा प्रश्न बनकर उनको नींद से खटखटाते है जो कल भी थे आज भी है और कल भी रहेंगे.

महात्मा गांधी शांतिपूर्वक नैतिकता की लड़ाई लड़ रहे थे जो अंग्रेज़ों के लिए काफ़ी अच्छा था क्योंकि इससे उनकी व्यवस्था पर बहुत ज़्यादा असर नहीं पड़ता था पर मध्यमवर्गीय नेताओं की इस नैतिक लड़ाई का आम लोगों को भी बहुत लाभ नहीं मिलता था. महात्मा गांधी गुजरात के थे. अहमदाबाद उस वक्त एक बड़ा मज़दूर केंद्र था. एक सवाल पैदा होता है कि वहाँ के हज़ारों-लाखों लोगों के लिए गांधी या पटेल ने कोई आंदोलन क्यों नहीं खड़ा किया.

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आज के समय में स्टूडेंट्स को किताबे पढना कितना उबाऊ लगता है लेकिन उसी 20 वर्ष की उम्र में कई समाजवादी मसीहो की किताबे पढ़ डाली थी खासकर लेनीन के बहूत बड़े प्रसंसक रहे थे. जरा सोचिए जब 23 वर्ष के भगत सिंह शहीद हुए, उस वक्त गांधी जी की उम्र 62  वर्ष थी पर लोकप्रियता के मामले में भगत सिंह कहीं से कम नहीं थे भगत सिंह की खास बात यह थी की वे सभी पहलुओ को बखूबी समझते थे जब की वो उनके आधे उम्र के भी नहीं थे. मूल रूप से गांधी जी का रास्ता पूँजीवादी रास्ता था.

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कई पूँजीवादी, पूँजीपति और ज़मींदार गांधी के आंदोलन में उनके साथ थे. भगत सिंह का रास्ता इससे बिल्कुल अलग क्रांतिकारी समाजवादी आंदोलन का रास्ता था. गांधीजी ने भगत सिंह के असेंबली पर बम फ़ेंकने के क़दम को ‘पागल युवकों का कृत्य’ करार दिया था. खैर उनकी अपनी सोच हो सकती है उसके पीछे लेकिन भगत सिंह के एक्शन प्लान को नकारना एक अपने आप में दुसरो को नकारने वाली बात थी.

एक इतिहासकार ने यह भी लिखा है कि गांधीजी ने अपने पत्र के माध्यम से फासी रुकवाने के लिए गुहार भी लगाई थी. वो कभी नहीं चाहते थे कि हिंसक क्रांतिकारी आंदोलन की ताकत बढ़े और भगत सिंह को इतनी लोकप्रियता मिले क्योंकि गांधी इस आंदोलन को रोक नहीं सकते थे, यह उनके वश में नहीं था. यहाँ तक की ABP न्यूज़ में एक एपिसोड देख रहा था “प्रधानमंत्री” (एक एपिसोड) के क्रम में इस मामले में गांधी और ब्रिटिश हुकूमत के हित एक जैसे थे. दोनों इस आंदोलन(भगत सिंह वाला) को प्रभावी नहीं होने देना चाहते थे क्युकी कांग्रेस के हित के लिए और अंग्रेजो के हित के लिए दोनों के लिए सकारात्मक कदम था उनके आन्दोलन को रोकना.

भावनात्मक या वैचारिक रुप से महात्मा गांधी कभी ऐसी तर्क नहीं करते थे कि फाँसी पूरी तरह से ग़लत है. हालाँकि गांधीजी ने अपने पत्र में इतना जरूर लिखा था कि इन लडको को फाँसी न दी जाए तो अच्छा है. इससे ज़्यादा ज़ोर उनकी फाँसी टलवाने के लिए गांधी ने नहीं दिया क्युकी उनका सिधांत उनसे प्रश्न कर बैठता था. गांधी ने इरविन के साथ हुए समझौते में भी फाँसी को टालने की शर्त शामिल नहीं की, जबकि फाँसी टालने को समझौते का हिस्सा बनाने के लिए उनपर कांग्रेस के अंदर और देशभर से दबाव था.

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ये प्रश्न हमेशा लोगो को आज भी दिल में खटकता है ऐसा क्यों किया वो चाहते तो इरविन समझौते के तहत बचा सकते थे. एक और प्रश्न उठता है जो अपने आप में बड़ा सवाल भी है कि अगर समझौता राष्ट्रीय आंदोलन के हित में हो रहा था तो क्या महात्मा गांधी भगत सिंह के संघर्ष को राष्ट्रीय आंदोलन का हिस्सा नहीं मानते थे ? खैर मै एक बीबीसी का रिपोर्ट पढ़ रहा था तो उसमे एक बड़ी अजीब बात किसी इतिहासकार ने लिखी हुई थी कि भगत सिंह खुद नहीं चाहते थे कि उनकी फासी माफ़ हो क्युकी उनका मानना था कि इससे प्रेरित होकर कई और क्रांतिकारी पैदा होंगे. वो बिल्कुल नहीं चाहते थे कि उनकी फाँसी रुकवाने का श्रेय गांधी को मिले क्योंकि उनका मानना था कि इससे क्रांतिकारी आंदोलन को नुकसान पहुँचता.

चुकी एस बात का प्रमाण भगत सिंह के उस तथ्य से मिलता जिसमे गांधीजी ने इरविन के साथ बातचीत के दौरान इरविन से यह भी कहा था कि अगर इन युवकों की फाँसी माफ़ कर दी जाएगी तो इन्होंने मुझसे वादा किया है कि ये भविष्य में कभी हिंसा का रास्ता नहीं अपनाएंगे. गांधी के इस कथन का भगत सिंह ने पूरी तरह से खंडन किया था. इस बात से एक और बात सामने आती है जिसमे में गाँधी जी की नैतिकता की हार और क्रन्तिकारी आन्दोलन की नैतिक जीत को प्रदर्शित करता है.

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