अत्याचार के जंजीरों में जकड़े प्रवासी मजदूर

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मूल रूप से प्रवासी मजदूर वो मजदूर होते है जो अपने गाँव से निकलकर शहरों की ओर संभावनाए तलाशने के लिए पलायन करते है| प्रवासी मजदूरों में बिहार, झारखण्ड, उड़ीसा, उत्तरप्रदेश, पश्चिम बंगाल के लोग ज्यादातर पाए जाते है जो दिल्ली, गुडगाँव, लुधियाना, सूरत, चेन्नई, मुंबई आदि जैसे बड़े शहरों में अपनी संभावनाएं तलाशते रहते है| मजदूर जहाँ भी जाते है वहाँ उनकी ज्यादा से ज्यादा कोशिश यही रहती है कि किसी भी तरीके से सौ-पचास बचाकर अपने परिवार के लिए भेज दूँ जिससे वो अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों को निभा सके|

लेकिन ऐसे में तमाम तरीको से जब उनकी जेब काटने की कोशिश की जाती है तो प्रश्न उठने लाजमी है और विषय पर गंभीरता से सोचने की जरूरत है| रविश कुमार ने तीन चार जगहों पर इसकी रिपोर्टिंग बड़ी ही बेबाकी से की हुई है जिसमे दिल्ली का कापासेडा, सूरत, लुधियाना और गुडगाँव जैसे जगह शामिल है| तीनो-चारो जगहों से कुछ बाते बिल्कुल कॉमन रही, कुछ बहूत सारे गंभीर प्रश्नों को जन्म देती दिखी और सरकारी नीतियों का मटियामेट भी करती नजर आई|

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शहरी बंधुआगिरी

आज तो खैर बहूत कम हो गया है लेकिन पहले क्या होता था कि गाँव में भूमिहर किसानो के खेतों में, भूमिहीन मजदूर बंधुआ मजदूरी के तौर पर काम करते थे| बंधुआ इसलिए होते थे क्युकी वो जिस मालिक के यहाँ काम कर रहे होते थे उसपर बस उन्ही मालिको का हक होता था| उन बंधुआ मजदूरों के पास अपनी मर्जी से किसी दुसरे किसान के यहाँ काम करने की इज्जाजत नहीं होती थी| इसके एवज में उन्हें खेत का कुछ हिस्सा उन्हें खेती करने के लिए दे दिया जाता था जिसका पैदावार ही उनका पगार है|

गाँव में आज भी है लेकिन पहले के अपेक्षाकृत आज बहूत कम है| लेकिन बंधुआगिरी ख़त्म नहीं हुई है, वो जैसे के तैसे ही है बस अंतर यह है कि वो बन्धुआगिरी गाँव से शहर की ओर स्थानांतर हो चुकी है| शायद यही कारण होगा जिससे लोगो को लगता है कि वो अब विकसित होने की राह पर है और बन्धुआगिरी वाली समस्या लगभग ख़त्म होने को आ चुकी है| रविश के चारों रिपोर्टें इसका प्रमाण है कि नहीं बन्धुआगिरी का एक जगह आज भी समाज में है|

इन सभी रिपोर्टों में एक बात कॉमन यह रही कि पलायन करके आए मजदूरों को उसके मकानमालिक के प्रति इस बात को लेकर जवाबदेही होना पड़ता है कि सारा का सारा खपत होने वाला राशन, मकानमालिक के दुकान से ही ले रहा है न| मजदूर उनके दुकान से लेने के लिए तो मजबूर है ही, साथ ही साथ उसका दाम भी बाजार के अपेक्षाकृत ज्यादा चुकाना पड़ता है| परिमल कुमार द्वारा दी गई रिपोर्ट के मुताबिक जो चीनी 28रु प्रतिकिलो बाहर की दुकानों पर मिलती है वही चीनी 40रु प्रतिकिलो की दर पर मकान मालिक बेच रहे थे| बाहर की दुकानों में 170रु प्रतिकिलो मिलने वाला आटा 230रु प्रतिकिलो के हिसाब से मकानमालिको के दुकान पर बिकता है|

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दरों में इतनी उतराव चढाव सरकारी स्तर पर भी कभी देखने को नहीं मिलता| एक दो रूपए ऊपर निचे होता तो एकबार उसे हलके में ले सकते थे लेकिन इतना अंतर जिसमे अगर वही चीनी मै या आप खरीदने बाजार जाते है तो 28रु प्रतिकिलो और उन मजदूरों के लिए वही चीनी 40रु प्रतिकिलो दर पर मिलना कितना जायज है| जिस जगह वो रह रहे होते है, लोकतंत्र पता नहीं किस खोल में घुसा हुआ होता है जहाँ मजदूरों का विरोध करने का सवाल ही पैदा नहीं होता| विरोध का मतलब कमरा छोड़कर जाना पड़ता है| तमाम तरह के गैरसरकारी संगठन और मजदूर यूनियन होने के बावजूद आवास के मामले में मजदूर पूरी तरह से बंधुआ हो चुके है जिन्हें शहरी बंधुआ आसानी से कहा जा सकता है|

वेतन कम और महंगाई ज्यादा

आवास से लेकर बिजली, पानी, राशन और कंपनी के चौकठ तक उन्हें कई तरह से चुनौतियों का सामना करना पड़ता है| मजदूर की तरफ से कंपनी के लिए ‘न्यनतम मजदूरी’ के सन्दर्भ में आने वाली शिकायत कोई नई नहीं है| सरकार द्वारा तय की गई न्यूनतम कीमत के मुताबिक उनका वेतन आज भी बहूत सारे मजदूरों को नहीं मिल पाता है| बेरोजगारी की वजह से मजदूरी के लिए प्रतिस्पर्धा बाजार में इतनी ज्यादा है कि मजदूर किसी भी कीमत पर अपने आप को जलती भठ्ठी में झोकने के लिए आतुर रहते है|

ऐसे में कोई उनका जेब सामने से काट कर चला जाए और वो बेबस होकर देखते रहे, मुझे लगता है हमारे तंत्र पर इससे ज्यादा बड़ा तमाचा और कुछ हो ही नहीं सकता जिसमे (40-28=12) प्रतिकिलो चीनी पर 12 रु कटता दिख रहा हो, उनके बाद भी वह असहाय हो| यहाँ पर शाइनिंग इण्डिया, गेट-अप इंडिया, मेक इन इंडिया, टीम इंडिया सब के सब धराशायी हो जाते है| कई बार इस तरह की बातें भी सामने आती रही है जिसमे ‘काम सिखाने’ के नाम पर बेहद कम वेतन दिया जाता है कुछ सालों तक जब उसकी वेतन बढाने की बातें आती है तो तमाम तरह के आरोप लगा के उन्हें हटा दिया जाता है|

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वो मजदूर भी उसी टीम इंडिया के सदस्य है जिसका जिक्र हमारे प्रधानमंत्री जी बारंबार करते रहे है जिसके सह पर मेक इन इंडिया का सपना देखा जाता है| जिसे न्यूनतम मूल्य से भी कम रूपए वेतन के रूप में मिल रहा हो और बाकी के लोगो से 12रु प्रतिकिलो ज्यादा देकर चीनी खानी पड़ती हो उसको क्या बचेगा| उसको क्या मतलब देश दुनिया की जीडीपी या विकास से, उसके लिए पेट प्रधान है|

मुझे लगता है कि अगर मजदूर को लायबिलिटी के जगह पर एक पोटेंशियल के तौर पर सरकार देखे तो शायद भारत की नीतियों में चार चाँद लग सकता है| कानून के अनुसार न्यूनतम मजदूरी नहीं मिलने पर मालिकों को 6 माह तक कैद का भी प्रावधान किया गया है| फिर प्रश्न उठता है कि अगर है तो एक्टिव क्यों नहीं है उसकी डिलीवरी ढंग से क्यों नहीं हो पा रही है| होना यह चाहिए था कि तमाम NGOs और यूनियन वालों को वाचडॉग के रूप में इस बात की निगरानी रखनी चाहिए|

असुरक्षित मजदूर

बाहर में काम कर रहे मजदूर आज भी असुरक्षित है| आज भी गुलाम है जिन्हें समय पर किराया न देने की वजह से हिंसा का शिकार भी होना पड़ता है| पैसा कौन से उन मजदूरों के हाथ में होता है कंपनी का सुपरवाइजर उनको देगा तभी तो वो अपने मकानमालिक को चुकाएँगे| बचत खाता के बारे में सोचना भी बेवकूफी ही है जहाँ वेतन ऊंट के मुह में जीरा के बराबर हो और राशन पताई पर खर्चा उच्च वर्ग से भी ज्यादा हो जैसा कि हमने ऊपर परिमल कुमार के रिपोर्ट में देखा|

उन रिपोर्ट में महिलाओं के हाथ हिंसा का भी मामला सामने आया| हाल में IMF के मैनेजिंग डायरेक्टर क्रिस्टीन लार्गाड़े ने कहा कि अगर काम की दिशा में पुरुष और महिलाओं की भागीदारी बराबर हो जाए तो अमेरिका के जीडीपी में 5%, जापान के जीडीपी में 9% और भारत के जीडीपी में 27% की बढ़ोतरी हो सकती है| क्या आपको लगता है कि ऐसे में महिलाओं की भागीदारी कभी बराबर हो पाएगी जहाँ ढंग से, इज्जत से रहने तक नहीं दिया जाता| उन महिलाओ के लिए क्या कानून है जिससे उन्हें पगार वक्त पर मिले और वो समय से अपने मकान मालिको को किराया चूका सके|

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यही नहीं एक बात और सामने आती रही है कि जो भी किरायदार माकन में रहता है उनके औरतों से मकानमालिक घर भी साफ़ करवाते रहे है, उनके बच्चे मालिकों के देह तक दबाते है और बाकी के छोटे मोटे घरेलु काम भी करते रहे है| दुसरे शब्दों में कहूँ तो पूरा परिवार किराया तो देता ही है उसके साथ साथ बेगारी भी करना होता है जिसका वेतन नहीं दिया जाता| विरोध करने का भी उन्हें अधिकार नहीं होता नहीं तो इसके एवज में उन्हें घर छोड़कर जाने के रूप में चुकाना पड़ता है|

मकान मालिक अगर हिंसक गतिविधि अपनाता है तो उसपर कार्यवाई क्यों नहीं होती ? फिर मजदूर यूनियन, गैर सरकारी संगठन किस काम के लिए है? मजदूर वर्ग आज भी अपने आप को बहूत असुरक्षित महसूस करता है कंपनी में भी और जहाँ रह रहा होता है वहाँ भी| उनकी सुरक्षा की जिम्मेवारियाँ किसकी है? जब तक हम मजदूरों को अपने विश्वास में नहीं लाएंगे तक से बहूत अच्छी विकास का कामना करना भी बेईमानी सा लगता है|

अंत में निष्कर्ष के रूप में मै यही कहना चाहूँगा कि जो भी NGOs या यूनियन काम कर रहा है उनके निरंतर इमानदारी से वाचडॉग की तरह काम करते रहना चाहिए| बिहार का चुनाव होने वाला है लेकिन कोई भी पार्टी डीएनए राजनीती या पैकेज के राजनीती से ऊपर नहीं उठ पा रही है| किसी पार्टी के पास प्रवासी मजदूरों को लेकर एजेंडा नहीं है और भी बहूत सारी चुनौतियों से प्रवासी मजदूरों को गुजरना पड़ता है|

साफ सफाई न होना, पर्याप्त बाथरूम का आभाव, यातायात की असुविधा जिसमे कई बार प्रवासी मजदूरों को छठ, दीवाली या किसी भी पर्व के समय, उन्हें ट्रेन के बाथरूम में सो कर सफ़र करना पड़ा है| इन मुद्दों को विशेषरूप में देखने की जरूरत है| कोई न कोई उपाय संवाद के जरिए निकलना चाहिए जिससे न्यूनतम वेतन समय पर मिलता है और किसी तरह की पीड़ा न झेलनी पड़े|

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