भारत के लगभग सभी सेंट्रल यूनिवर्सिटीज ने विवादास्पद चयन आधारित क्रेडिट सिस्टाम (CBCS) लागु करने का आवाहन किया है | इस प्रक्रिया को खासतौर पर वैवहरिक बनाने की नजर से, मनमाफिक क्रेडिट्स का चयन करने की नजर से और आजादी की नजर से देखा गया ताकी छात्रो को नए शैक्षणिक तकनीक से जोड़ा जाए जिससे बदलते दौर के आधुनिक शिक्षा से हमारे देश के बच्चे भी अवगत हो सके | इसमे भी कई तरह के सूर देखे जा रहे है जिसमे छात्रो की नाराजगी है कि उनसे बिना साझा किए इसे उनपर थोपा जा रहा है जिसके परिणाम स्वरुप बहूत सारे विद्यार्थी अपने संगठनो के साथ सड़को पर उतरते नजर आ रहे है |
दूसरी ओर केंद्र सरकार की पूरी टीम इसे मेक इन इंडिया जैसे प्रोग्राम से जोड़ कर अपनी सकारात्मक पहलु रखने की कोशिश कर रही है | ऐसे में सवाल उठता है कि क्या वाकई में ये व्यवस्था विद्यार्थियों को आजादी देगी उनके क्रेडिट्स चयन में और पढने में एक फ्लेक्सिबिलिटी प्रदान करेगी ? क्या हम पूरी तरह से तैयार है इस व्यवस्था को लागु करने के लिए ? आखिर इतनी जल्दीबाजी क्यों है जिसे बिना पूरी तरह मूल्यांकन किए लागु करने को बेचैन है ? कही कोई और मंशा तो नहीं इसके पीछे ?
सबसे पहले बात करते है ये व्यवस्था है क्या ? ऐसा नहीं है कि ये कोई नई व्यवस्था हो पहले भी है इन विषयों पर कांग्रेस के शासनकाल से ही कई मर्तबा चर्चा होता आया, अब बस लागु करने की बात हो रही है | इस व्यवस्था के तहत ये कहा जाता है कि विद्यार्थी अब तय करेगा कि कौन सा विषय कब पढना है और किस यूनिवर्सिटी में पढना है ? यहाँ तक कि शिक्षक चुनने की भी आजादी होगी | सबसे पहले मै बता दू कि इस तरह की व्यवस्था VIT यूनिवर्सिटी में पहले से ही है जिसका नाम सिर्फ अलग है वहाँ FFCS (फूली फ्लेक्सिबल क्रेडिट सिस्टम) के नाम से जाना जाता है उसी के सामानांतर रेखा खीचकर समस्याओ का मूल्यांकन करने की कोशिश करेंगे |
इसमे मूल रूप से तिन तरह के भाग है विषयों का कोर, इलेक्टिव और फाउंडेशन | मानिए आप ऑटोमोटिव से इंजीनियरिंग की पढाई कर रहे है उसमे कुल 184 क्रेडिट्स है जिसमे 163 क्रेडिट्स कोर के होंगे और 15 फाउंडेशन के जिसे हर हालत में पढना ही है चाहे पहले पढ़े या बाद में, बच गए 6 क्रेडिट्स जोकि इलेक्टिव में आता जिसे लोग स्किल्ड डेवलपमेंट प्रोग्राम में जोड़ कर देखते है और शसक्त होने की बाते करते है | इसी 6 क्रेडिट्स में आप कोई भी आर्ट्स का विषय भी ले सकते है |
अगर हम PG(पोस्ट ग्रेजुएट) की बात करे तो काफी सारी यूनिवर्सिटीयों में सफल नजर आया है | लेकिन UG(अंडर ग्रेजुएट) के लिए आँख मुंड कर बिना व्यवस्थागत तैयारी लागू करने कही ना कही अभिशाप साबित हो सकता है | सबसे पहली समस्या ये होगी कि किसी भी पढाई का एक फॉर्मेट होता है जिसमे एस बात की ब्याख्या की होती है कि आपको Y विषय पढने से पढने X पढना आवश्यक है जिसे प्री रिक्वीसिट विषय कहते है, विद्यार्थी चाहकर भी वो विषय नहीं ले सकता, फिर कैसी आजादी ?
अमेरिका की शिक्षा प्रणाली को सीधा अनुसरण करने से नहीं होगा, हमें इस बात का ख्याल भी रखना होगा कि हमारे देश का अभी शैक्षणिक वातावरण कैसा है ? शिक्षा पर इकोनोमिकल स्टेटस क्या है ? हमारे पास उपयुक्त इंफ्रास्ट्रक्चर है कि नहीं ? शिक्षको की कैसा ब्यवस्था है ? इन सभी बातो का मूल्यांकन करना आवश्यक है किसी भी नए तरह का एक्सपेरिमेंट करने से पहले | पुराने मैकेनिज्म पर इसे थोड़ी न लागु किया जा सकता है उसके लिए इत्मिनान से नए तरह के शिक्षा ब्यवस्था का मैकेनिज्म विकसित करनी चाहिए |
दूसरी समस्या ये है कि बच्चो को जो क्रेडिट्स देने है पढने के लिए उसे कैसे दिया जाएगा ऑफलाइन होगा या ऑनलाइन ? UGC के पूर्व अध्यक्ष का डिबेट देख रहा था उन्होंने भी आपत्ति जताई कि सारे मापदंडो का मूल्यांकन किए बगैर किया जा रहा है | ऑफलाइन तो बड़ा ही मुश्किल है ऑनलाइन ही एक कारगर साबित हो सकता है क्युकी जहाँ भी यह सिस्टम है वहां ऑनलाइन ही है| क्या इसके लिए किसी विशेष इंजिनियरस की टीम गठित हुई जिससे विद्यार्थियों के बीच आसानी से क्रेडिट्स का यूनिफार्म बटवारा हो सके |
नहीं तो होता ये है कि 6 महीने के कोर्स में किसी को उच्चतम क्रेडिट्स मिल जाते है जो निर्धारित किया जाता है और किसी को बहूत कम ? कही न कही क्रेडिट्स के यूनिफार्म डिस्ट्रीब्यूशन को चुनौती भी देते आया है | क्या कोई टीम गठित की गई है ताकि उन बच्चो की मदद की जा सके जिन्हें उपयुक्त क्रेडिट्स नहीं मिल पाए हो ? जो बच्चे रजिस्टर करने में असमर्थ रहते है उन वक्त, फिर तो वो पढ़ ही नहीं पाएँगे ? फिर ऑफिस के बाहर शिकायतों का जमवाडा शुरू होना लाजमी सा हो जाएगा |
जब भी विद्यार्थियों द्वारा या कुछ प्रोफेसर द्वारा इस विषय पर चर्चा करने की बात की जाती है तो सीधे तौर पर ‘ऊपर से आया है’ जैसे जुमलो के सहारे जवाब देकर अपना पल्लू झाड दिया जाता है | विद्यार्थियों की भागीदारी जरूरी है ऐसे संसोधनो के सन्दर्भ में क्युकी पढना उनको ही है उनके ब्यवस्था समझ में आनी चाहिए | ‘ऊपर से आया है’ जुमले में ‘ऊपर’ UGC है या कोई बड़ी संस्था जैसे WTO इसपर भी मुझे संदेह है क्युकी कही ऐसा तो नहीं कि पश्चिमी देशो के लिए जरूरी गिरमिटिया स्किल्ड लेबर की जरूरत का दबाव हो | कोई भी ब्यवस्था का खाका तैयार करना उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना उसको एक श्रृखला में ब्यवस्थागत तरीके से लागु करना | जहाँ तक रही बात दुसरे देशो की वहां पर हर विषय के 14-15 स्लॉट्स होते है सिर्फ यूनिवर्सिटी के एक कॉलेज में, अगर दो-दो शिक्षक उपलब्ध करवाए भी तो उनके पास हर विषय के 30 के आस पास शिक्षको का ब्यवस्था होता है |
यही नहीं पूरी मैकेनिज्म उनके शिक्षा प्रणाली के मुताबिक ही बनाई गई है जिसका हम सीधा अनुसरण नहीं कर सकते | कई कई वर्षो से तो हमारे यहाँ कई कॉलेजो में शिक्षको की नियुक्ति तक नहीं हुई है | इसलिए सारे पहलुओ को निरेखने के बाद ही शुरू करनी चाहिए | इसे ऐसे समझा जा सकता है कि आप परीक्षा देने जा रहे है तो पूरी तैयारी के साथ ही जाए, पेन, पेंसिल, घडी, एडमिट कार्ड और तमाम जरूरत की चीजे लेकर ही जाए | कही ऐसा नौबत नहीं आना चाहिए अगर घडी होता तो मै सारे पेपर अटेंड कर सकता था, अगर पेन्सिल होता तो अच्छा डायग्राम बना सकता था | ठीक उसी तरह इंफ्रास्ट्रक्चर, शिक्षको, इंजिनियर, प्रशासन और तमाम जरूरत की अवलोकन की ज्यादा जरूरत है CBCS जैसे परीक्षा में बैठने से पहले |
असल में दिक्कत ये है कि जब भी किसी नई शिक्षा ब्यवस्था की बात की जाती है उच्च संस्थानों में तो बात दिल्ली यूनिवर्सिटी से शुरू होकर JNU यूनिवर्सिटी में ख़तम होते नजर आती है | बल्कि होना ये चाहिए कि हमें पूरे देश की शैक्षणिक माहौल को भापना चाहिए सभी बातो को ध्यान में रखकर यूनिफार्म मैकेनिज्म बनानी चाहिए | मैंने कई बार सुना है जिसमे JNU में इसकी सफलता के लिए पीठ थप थपाया जाता है जबकि उसमे विद इन द यूनिवर्सिटी थी और यहाँ इंटर यूनिवर्सिटी की बात होती है |
मानिए X जगह के यूनिवर्सिटी की हालात सही नहीं है अगर वो सारे विद्यार्थी Y जगह के यूनिवर्सिटी की ओर रुख करना शुरू कर दे, जिसका इंफ्रास्ट्रक्चर और कुछ चीजे अच्छी है तो क्या वहाँ उन बच्चो के उपयुक्त ब्यवस्था है ? कहाँ से जनाब ? कई यूनिवर्सिटीयों में तो 15-20 सालो से शिक्षको की न्युक्ति तक नहीं हो पाई है | यही नहीं इंफ्रास्ट्रक्चर भी उस मुताबिक नहीं है जिससे आने वाले दुसरे यूनिवर्सिटी के विद्यार्थियों को स्वीकार्य सके | शिक्षा पर जीडीपी का 6% देने का वायदा हमेशा किया गया है लेकिन सरकार ढंग से 3 प्रतिशत भी देने में असमर्थ रही है | UGC भले ही दावा करती हो कि उसने 37 यूनिवर्सिटी के चांसलर से एस ब्यवस्था पर समर्थन ले लिया हो लेकिन ये उतना आसान नहीं है जितना कि इस ब्यवस्था का चार दिवारी के भीतर इसका खाका बनाया गया |
इसके लिए होना क्या चाहिए था कि सबसे पहले भारत के उन यूनिवर्सिटीयों का यात्रा करते जहाँ ये ब्यवस्था सक्रीय रूप से लागु किया गया है | वहां के प्रशासन के इस मुद्दे पर बातचीत करते, वहां के विद्यार्थियों के बीच एक वाद विवाद का प्रोग्राम आयोजित करते और उन विद्यार्थियों की बातो को नोट करते उनकी बातो पर भी विचार करते क्युकी जो उन चीजो को पढ़ रहा है वो भी बेहतर समझेगा इन बातो को चुकी उसके पास ऐसी व्यवस्था से पढने का एक तजुर्बा होता है | इसके चुनौतियों के बारे में विचार करते फिर इंजिनियरस और प्रशासन के मदद से उसका हल ढूढने की कोशिश करते |
सबसे पहले हमें इसका आधार तैयार करनी चाहिए थी जैसा कि हमारे माननीय प्रधानमंत्री जी इ गवर्नेंस पर जोर दिया है इसे बेहतर बनाते पहले, फिर उस इ गवर्नेंस वाली नीव पर CBCS जैसा कमरा तैयार कर सकते थे | क्युकी उसी इ-गवर्नेंस की नीव पर अपने देश को डिजिटलाइजड कर सकते, विद्यार्थियों को इ बुक उपलब्ध कराने का कोई फायदा हो सकता है, या CBCS जैसी कमरे का निर्माण कर सकते है | इसलिए आपको पहले नीव के बारे में सोचना ज्यादा जरूरी अन्यथा इसमे और स्वच्छ भारत अभियान के प्रोग्राम में कोई अंतर नहीं रह जाएगा |
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