बाढ़ क्या होता है? यह एक प्राकतिक प्रक्रिया है| अब यह हमारे ऊपर निर्भर करता है कि हम इसे प्राकृतिक आपदा के रूप में स्वीकारते है या प्रकृति के आशीर्वाद के रूप में| चुकी मै बिहार के दक्षिणी भाग से आता हु इसलिए मुझे वास्तविक अनुभव तो नहीं है लेकिन जिस तरह की भयावह चीजें हमारे सामने दिखती है वो एक चिंता का विषय है| शायद ही कोई साल हो जब लोगों को इसका सामना नहीं करना पड़ता है| बिहार ही नहीं असम, उत्तराखंड, उत्तरप्रदेश का पूर्वांचल का उत्तरी इलाका आदि भी प्रभावित होते आए है|
देश का एक हिस्सा सुखा से मरता है और दूसरा बाढ़ से| जो प्राकृतिक प्रक्रिया होती है क्या इसमें हमारी कोई भागीदारी नहीं है? हम लोग भी अपने जीवन में देखते है कि तमाम संस्थाएं हमारे समाज में बनाई हुई है जो यह सुच्निश्चित करने की कोशिश करती है कि ‘जल ही जीवन है इसे बूंद बूंद बचाइए’| लोगों को हम हर घर में पानी का कम से कम उपयोग करने के लिए आवाहन करते है लेकिन जो हमारे पास बहुतायत में पानी है उसे व्यर्थ जाने देते है|
‘आज भी खरे हैं तालाब‘, ‘राजस्थान की रजत बूंदें’ जैसी किताबें लिखने वाले पर्यावरणविद अनुपम मिश्र अपने किताब ‘आज भी खरे हैं तालाब’ में सवाल करते है कि आखिर क्या हुआ कि जो तकनीक और परंपरा कई हज़ार साल तक चली वो बीसवीं सदी के बाद बंद हो गई| आगे लिखते हैं कि कोई सौ बरस पहले मास प्रेसिडेंसी में 53000 तालाब थे और मैसूर में 1980 तक 39000 तालाब| बीसवीं सदी के प्रारंभ तक भारत में 11-12 लाख तालाब थे|
अनुपम जी ने लिखा है कि इस नए समाज के मन में इतनी भी उत्सकुता नहीं बची है कि यह जाने कि उससे पहले के दौर में इतने सारे तालाब भला कौन बनाता था| उन्होंने बिल्कुल सही कहा था कि हम पानी पीते तो हैं, मगर पानी के बारे में कम जानते हैं| धीरे-धीरे कंपनियों के नाम जानेंगे और पानी के बारे में भूल जाएंगे| ऐसा क्यों होता है? क्युकी जब हमारे पास पानी होता है उससे मोहब्बत करने के बजाए हम नफरत मोड़ लेते है जो बाढ़ का रूप ले लेता है| जब पानी का मौसम चला जाता है तो फिर पग-पग पानी के तलाश में घूमते फिरते है|
हमारे राजनितिक तंत्र द्वारा बिहार में आने वाले बाढ़ को लेकर यह बहाने बनाए जाते है| यह कहा जाता है कि नेपाल से छोड़ा गया पानी हमारे लिए नाशुर बन रहा है| यह बात सही है लेकिन यह तर्क सही नहीं है| बारिस होनी है तो होगी ही| नेपाल ऊँचे पर है और हमारा देश नेपाल के अपेक्षाकृत थोड़ा ढलान पर है| ऐसे में बारिस के पानी का उत्तरी बिहार और आस पास के राज्यों में बहना लाजमी है| अब सवाल यह है कि हमारे पास इसके लिए क्या प्रबंधन है? यह बाढ़ कोई पहली मर्तबा नहीं आया है| पहले भी आते रहे है|
हमने पिछले बाढ़ से क्या सिखा है? अपनी गलतियों में कहाँ सुधार किया है? जवाब यही होगा कि हमलोगों ने मौसम गुजर जाने के बाद चीजों को नजरंदाज कर दिया है| सुरक्षा दो प्रकार की होती है| पहली सक्रीय सुरक्षा (Active Safety), यह वह सुरक्षा है जिसे हम आपदा को न्यूनतम करने के लिए करते है| और दूसरी होती है निष्क्रिय सुरक्षा (Passive Safety), यह वह सुरक्षा होती है जिससे आपदा होने के बाद कम से कम जानमाल की हानी हो|
हमने अब तक जो भी किया है वो सब निष्क्रिय सुरक्षा के लिए किया है| NDRF बल, खाद्य प्रबंधन, टोल फ्री नंबर, मुख्यमंत्री का हेलिकॉप्टर से दौरा, स्वास्थ्य प्रबंधन आदि यह सब तब किया जाता है जब बाढ़ आ चूका होता है| बाढ़ की संभावनाएं कम करने और बाढ़ का पूरा-पूरा फायदा उठाने में हम अब तक असफल रहे है| चुकी हमने अब तक बाढ़ का सिर्फ एक पक्ष को ही देखा है जो भयावह होता है| इसके पोटेंशियल के तौर पर हमने कभी देखा ही नहीं है| यह इसलिए होता है क्युकी हमारा इस पर विशेष ध्यान नहीं होता है| हमने कभी यह नहीं सोचते है कि बाढ़ न आने पर नदी के किनारे की ज़मीन और उसकी उर्वरता पर कैसा असर पड़ता है| स्कूल के पाठ्यक्रम में भी हम यही पढ़ते है कि बाढ़ आती है तो उसके साथ पहाड़ों से उपजाऊ गाद मैदानों की तरफ आता है| पोषक तत्वों से लैस मिट्टी की नई परत बन जाती है जो खेती के लिए वरदान का काम करती है| यही नहीं उसके आस पास रहने वाले लोगों के लिए स्वादिष्ट मछलियों का भी अवसर प्राप्त होता है| कुछ दिनों तक भोजन का एक अच्छा ख़ासा हिस्सा बनकर रहता है|
आखिर हम यह क्यों नहीं समझ पाते कि बाढ़ नदी की जीवन प्रक्रिया का एह अहम् हिस्सा है| बाढ़ के बगैर नदी का जीवन चक्र अधुरा रह जाता है| बाढ़ अपने साथ नई मिटटी लेकर लाती है जो फसल की उपजाऊ शक्ति को बढाती है| यही कारण है कि देश की आधी से ज्यादा आबादी गंगा-यमुना के मैदानों में ही बसती है| इसके अलावां बाढ़ उन सारे नहरों और छोटी नदियों की सफाई कर देता है जिसे सरकारी तंत्र मोटा पैसा लगाने के बाद भी असफल रहता है| होता क्या है कि छोटी नदियाँ जब रेतें अपने साथ लेकर आती है वो किनारे-किनारे जमा करती चलती जाती है| इसकी वजह से नदी का मुंह और संकरा होता चला जाता है| वहीं जब बाढ़ आता है तो पानी अपने बल से उसकी पूरी सफाई कर पूरा मुंह खोल देता है| यही बाढ़ जब आता है तो अंडरग्राउंड पानी के स्तर को बढ़ा देता है| यही पानी बाद के समय में पेड़ो के सेवन और हमारी जरूरतों को पूरा करने के काम आता है| इसलिए मुझे नहीं लगता कि यह आपदा है| इसे आपदा के रूप में हम परिवर्तित करते है|
अगर यह आपदा होता तो बिहार के लोग स्थानांतरित कर कहीं और जाकर बस जाते| लेकीन उपजाऊं जमीन और बाढ़ के होने वाले तमाम मुनाफे की वजह दोबारा वही बसते है| राजस्थान की भांति यहाँ पर लोग दूर-दूर पानी भरने नहीं जाते क्युकी हर घर का चापाकल शुद्ध पानी देने में समर्थ रहता है| उसका मुख्य कारण बाढ़ ही है| अनुपम मिश्र जी अपने किताब में वो आश्चर्य करते है कि आखिर पानी नहीं होने के बाद भी कितना बढ़िया तरीका से राजस्थान के लोग पानी का प्रबंधन करते है|
ठीक वैसे ही वो बिहार को लेकर आश्चर्य करते है कि सोचिये जब सरकारें नहीं थीं, हेलिकॉप्टर नहीं था तब लोग बाढ़ से कैसे अपनी रक्षा करते होंगे, क्योंकि जिस ज़मीन पर वे रहते आए हैं, वहां बाढ़ तो सदियों से आ रही है| हम बाढ़ के रास्ते में जाकर बसे हैं, बाढ़ हमारे रास्ते में कभी नहीं आती है| तब एक अहम सवाल यह पैदा होता है कि फिर बाढ़ हमारे लिए इतना दुखदायी क्यों होता है? आखिर जब जब आता है जब जब प्रलय का सा वातावरण क्यों बन सा जाता है?
जवाब बिल्कुल सीधा और सपाट है| जैसा कि अनुपम मिश्र जी ने अपने किताब में लिखा कि सौ बरस पहले मास प्रेसिडेंसी में 53000 तालाब थे और मैसूर में 1980 तक 39000 तालाब| बीसवीं सदी के प्रारंभ तक भारत में 11-12 लाख तालाब थे| आज हमारे यहाँ कितने तालाब और कुँए बचे हुए है? हम अगर आस पास देखे तो जहाँ आज के 10 पहले कुआँ रहा होगा वो भी भर चूका होगा| तालाब और कुआँ ग्राउंड वाटर रिचार्ज करने का प्राथमिक प्रक्रिया है जिसका सीधा संपर्क ग्राउंड वाटर से होता है| अचानक से आने वाले पानी का ग्रहण करने की क्षमता रखती है| दूसरा तरीका होता है फ़िल्टर प्रक्रिया से जो मिटटी से धीरे धीरे फ़िल्टर होकर निचे जाता है|
इसकी ग्रहण करने की गति बहुत ही कम होती है| अचानक से आने वाले पानी को सोखने में कुआँ और तालाब बहुत मददगार होते है| अभी साल भर पहले चेन्नई में विशाल बाढ़ क्यों आया था जो घर घर पहुचं गया था| क्युकी चेन्नई में आज के 20 साल पहले जो भी तालाब थे वो अपार्टमेंट बनाने के लिए भर दिए गए| वहाँ पर बिल्डिंग बना दी गई| अब जब बारिश का पानी आएगा वो कहाँ जाएगा? जहाँ जाना था वहाँ तो गलत तरीके से पैसे देकर अपार्टमेंट बना दिए गए|
परिणाम यह हुआ था कि महीने भर तक रोड पर पानी भरता रहा था| कितनी गाड़ियाँ पानी भरने से ख़राब हो गई और अर्थव्यवस्था का एक बड़ा नुकसान हुआ| सोचिये एक तालाब भरने से कितना कुछ नुक्सान सहना पड़ा| वैसे ही बिहार में भी दिनों दिन तालाब और कुँए पहले के अपेक्षाकृत कम होते जा रहे है| पानी संग्रहण करने का सही उपाय करने में हम असफल रहे है| अगर पानी का सही से प्रबंधन किया जाए तो जहाँ भी पानी की दिक्कतें होती है उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति हम बिहार के पानी से पूरी कर सकते है|
क्या बिहार से राजस्थान और महाराष्ट्र के मराठवाडा तक पानी पहुचाने के लिए चैनल का विकास नहीं कर सकते है? क्या हम खेती के पानी संग्रह करने के लिए तकनिकी विकास नहीं कर सकते है? बाढ़ की वजह से अचानक आने वाले पानी के लिए रास्ते का विकास नहीं कर सकते है? अगर चीजों की प्रधानता दी जाए और इमानदारी से काम की जाए तो सब कुछ संभव हो सकता है| अगर पानी का प्रबंधन सही नहीं होगा तो हर बाढ़ आपदा ही होगा और सही से उसे पोटेंशियल के तौर पर देखा जाएगा तो हमारे लिए वरदान साबित होगा| बाढ़ के लिए प्रकृति नहीं बल्कि हम खुद जिम्मेदार है|
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