भारतीय रेल के बारें में बहुत सारी बातें होती रही है| नए ट्रेन के लांच होने पर उसके इंटीरियर का फोटो अक्सर इन्टरनेट पर दिखता ही रहता है| साधारणतः रेलवे स्टेशन पर वैसा ट्रेन देखने को नहीं मिलता है| हमारे रेलवे मंत्री श्री सुरेश प्रभु के कागजी प्लान हमें बहुत चमकता सा दिखता है, लेकिन वास्तविकता बहुत अलग है| अखबारी अनुभव, सरकारी रिपोर्ट्स के साथ साथ व्यक्तिगत अनुभव भी है जिसे साझा करना जरूरी है| ये आप भी जानते है कि यात्रा करने की प्राथमिक ध्येय क्या होता है? यात्री एक स्थान से दुसरे स्थान तक “सुरक्षित” और “सही समय” पर पहुच जाए| जब तक हमारा बेसिक इंफ्रास्ट्रक्चर सही नहीं होगा तो बुलेट जैसी चीजों के बारें में सोचना भी बेईमानी लगता है| किसी भी परीक्षा में अच्छे मार्क्स महत्वपूर्ण होता है ना कि आपने कितना कठिन सवाल को हल किया है| आप एक दो कठिन सवाल हल करके भी फेल होते है तो फेल ही माना जाएगा| इसलिए ज्यादा जरूरी यह है कि हम आसान सवालों का हल पहले ढूंढे| बुलेट ट्रेन जैसी चीजें अभी के लिए सिर्फ एक चमक है जो लोगों को राजनितिक रूप से आकर्षित कर सकता है|
इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं है कि मै किसी प्रकार के नए प्रयोग से रेलवे को अछूता रखने की अपेक्षा करता हूँ| ऐसा बिल्कुल नहीं है| नए प्रयोग बिल्कुल होने चाहिए| विज्ञान के विद्यार्थी होने के नाते तो बिलकुल ऐसा नहीं चाहूँगा कि प्रयोग न हो| लेकिन पुरानी जो चल रही व्यवस्था है उसको दुरुस्त करना उससे भी ज्यादा जरूरी है जिसपर देश का एक बड़ा भाग निर्भर करता है| चार महानगरों के कुछ चंद लोगों को कम समय में यात्रा करवाने के पीछे करोड़ों लोगों की व्यवस्था को नजर अंदाज कर दे यह जायज नहीं है| ट्रेन सुविधा करके एक वेबसाइट है| इसने रेलवे पर एक अच्छा खासा रिसर्च किया है| इस रिसर्च में पिछले चार साल में ट्रेन को अपने गंतव्य स्थान पर पहुचनी की स्तिथि के बारें में बताया है| मै सिर्फ इस साल 2017 के आकड़ा को रखना चाहता हूँ| जनवरी 2017 से अप्रैल 2017 तक के चली ट्रेनों में 2144 ट्रेनों के पहुचने की स्तिथि है| इसमें 1409 बार 15 घंटे से ज्यादा लेट हुई है| यह तो हद ही है| 1520 बार ट्रेनें 10 घंटे से ज्यादा लेट हुई है| 5533 बार ट्रेन 5 घंटे से ज्यादा लेट हुई है| 12023 बार ट्रेन 2 घंटे से ज्यादा लेट हुई है|
देश में प्रधानमत्री श्री नरेन्द्र मोदी का ध्येय रहा है कि भारत एक प्रोफेशनल देश बने| इसके लिए डिजिटल इंडिया, मेक इन इंडिया और खेती बारी में ‘मिटटी की जाँच’ आदि जैसे बहुत सारी चीजों का आवाहन किया है जो यह दर्शाता है कि वो देश में प्रोफेशनलिज्म का विस्तार चाहते है| प्राइवेट सेक्टर में देखे तो कंपनियां दिनों दिन प्रोफेशनल होतीं जा रही है| कार्ड से एंट्री और शाम को कार्ड से ही एक्सिस्ट होता है| बड़ी मुश्किल से कुछ छुट्टियाँ अपने कर्मचारीयों और अधिकारीयों को देते है| जब ट्रेनें 15 घंटें से ज्यादा लेट होंगी तो काम करने वाला कैसे प्रोफेशनल हो सकता है| कंपनी को दिए समय से दो दिन बाद पहुचता है तो उसका वेतन कटता है| दो आप्शन है या तो सारे कंपनियों को बोल दिया जाए कि जो ट्रेन से लेट हो जाए उसका वेतन नहीं कटेगा| यानी कि उसे स्वीकार्य किया जाएगा| दूसरा आप्शन है कि ट्रेन के समय सारणी का ध्यान रखा जाए| ट्रेन अगर औसतन 40 से 50 किलोमीटर प्रतिघंटा की गति से भी ना चल पाए तो यह दुर्भाग्य की बात है| इसका नुक्सान हमें भुगतना ही पड़ेगा|
जिस तरह से रेलवे में एक के बाद एक रेल दुर्घटना हुई है वो आश्चर्य कर देने वाली बात है| NDTV की छपी रिपोर्ट के मुताबिक इस समय का आकलन यह है कि पिछले तीन साल से हर साल 100 से ज्यादा ट्रेन हादसे होने लगे हैं| यह बताता है कि सुरक्षा का इंतजाम नहीं हो पा रहा है| मूल्यतः सुरक्षा के दोनो ही पायदानों (एक्टिव और पैसिव) पर अभी तक असफल रहे है| एक्टिव सुरक्षा जिससे होने वाले दुर्घटनाओं को रोका जा सके| दुर्घटना होने के बाद हम उसका मूल्यांकन करके सही करने में सक्षम नहीं है| कमी को स्पष्टता के साथ पहचाना जाना चाहिए| हमारा सिगनल सिस्टम नहीं बन पाया या पटरी खराब हैं या कुछ और? सिर्फ पहचानने से बात नहीं बनती क्युकी यह हल का पहला स्टेप है| उस पहचान के बाद कितने इफेक्टिव और एफ्फीसिएंट तरीके से उस पर काम कर पाते है वो ज्यादा महत्वपूर्व होता है| दूसरा होता है पैसिव सेफ्टी जिसका प्रबंधन दुर्घटना घटित हो जाने के बाद होता है| दुर्घटना घटित हो जाने के बाद कितने कम समय में हम मेडिकल, राहत सामग्री आदि का प्रबंधन कर पाते है और वहाँ से यात्रियों को बचा पाते है| यहाँ भी हम थोड़े पीछे नजर आते है|
मै इस पायदान पर भी पीछे होने की बातें इसलिए कर रहा हूँ क्युकी अभी का ताजा उदहारण है जो इस बात की पुष्टि करता है कि किस तरह से बड़े पदों को सुशोभित करने वाले अधिकारी बहाना बनाते दिखते है| बात खतौली हादसे की है| खतौली हादसे के पांच घंटे बाद तक मुसाफिरों की जान बचाने का काम चल रहा था| वो तो मीडिया आजकल मौके पर चालू राहत के काम को मुस्तैदी से बताता रहता है वरना हालत यह है कि राहत के काम में किसी कमी के आरोप से बचने के लिए संबधित विभाग एक-दूसरे को चिट्ठी लिखने में ही लगे रहते हैं| खतौली हादसे में राहत के काम में अंधेरे की समस्या का जिक्र बार-बार किया गया जो की एक दुर्भाग्यपूर्ण बात है| क्या डिजिटल इंडिया और तकनीक के ज़माने में भी तात्कालिक लाइट का प्रबंध कर पाना मुश्किल है? इसलिए ऐसा लगता है कि शाम के वक्त हादसा होने के कारण राहत के काम में अड़चन का तर्क देना किसी भी बहाने से कम नहीं है| यह दर्शाता है कि हम सुरक्षा के दुसरे पायदान पर भी हम पीछे ही है|
किराए में बड़े इजाफा होने के बाद भी रेलवे में व्यवस्था की स्तिथि उतनी अच्छी नहीं है जितने की उम्मीद लगाईं जा रही थी| अभी पिछले महीने रेलवे के खाने को लेकर सीएजी की रिपोर्ट आई है| सीएजी की तरफ से जारी रिपोर्ट में बताया गया है कि रेलवे स्टेशनों पर जो खाने पीने की चीजें परोसी जा रही हैं, वो इंसानी इस्तेमाल के लायक ही नहीं हैं| इस निंदनीय रिपोर्ट में कहा गया है कि जांच में यह भी पाया गया कि रेलवे परिसरों और ट्रेनों में साफ-सफाई का बिलकुल ध्यान नहीं रखा जा रहा| इस रिपोर्ट को बनाने के लिए सीएजी और रेलवे की जॉइंट टीम ने 74 स्टेशनों और 80 ट्रेनों का मुआयना किया| इसके बाद इस रिपोर्ट को तैयार किया है| ट्रेन में बिक रहीं चीजों का बिल न दिए जाने और फूड क्वॉलिटी में कई तरह की खामियों की भी शिकायतें हैं| इस ऑडिट रिपोर्ट में लिखा है, ‘पेय पदार्थों को तैयार करने के लिए नल से सीधे अशुद्ध पानी लेकर इस्तेमाल किया जा रहा था| कूड़ेदान ढके नहीं हुए थे और उनकी नियमित अंतराल पर सफाई नहीं हो रही थी| खाने की चीजों को मक्खी, कीड़ों और धूल से बचाने के लिए उन्हें ढककर नहीं रखा जा रहा था| इसके अलावा, ट्रेनों में चूहे, कॉकरोच पाए गए।’
यही नहीं, मेरे अभिभावक सीनियर सिटीजन में आते है| रूटीन मेडिकल चेकउप के लिए वेल्लोर जा रहे थे| स्टेशन पर डब्बा का नंबर तक नहीं था| इन्टरनेट पर AC कोच का पोजीशन पीछे दिखा रहा था और लगा आगे दिया| ट्रेन रुकनी दो मिनट है| ऐसे में क्या उम्मीद करते है कि साठ साल से ऊपर के उमिर के लोग दौड़ कर एक छोर से दुसरे छोर पहुचे? ऐसे बहुत सारे और भी लोग होंगे जो परेशान होते होंगे| जरूरत पहले यह है कि जो व्यवस्था देश के बड़े भाग के लिए है उसे दुरुस्त करे| बुलेट में चढ़ने वाले तो फ्लाइट से भी दिल्ली से मुंबई या अहमदाबाद चले जाएँगे| लेकिन ट्रेन की अपनी अलग पहचान है| इसे दुरुस्त करना बुलेट के अपेक्षाकृत बहुत ज्यादा जरूरी है| जब भी दुरुस्त करने की बातें आतीं है तब सबसे पहला तर्क पैसे को लेकर आमने आता है| पैसे का रोना भी नहीं रो सकते| ट्रेन के किराए बढ़ते-बढ़ते हवाई जहाज के किराए के पास पहुंच गए हैं| ऐसे में संसाधनों की कमी के बारे में भी सरकार अब नहीं कह सकती| लगातार रखरखाव और देखभाल होनी चाहिए| दिन पर दिन बढ़ती रेल मुसाफिरों की संख्या और उसके मुताबिक मानव संसाधन को न बढ़ा पाने की चर्चा कब तक करते रहेंगे|
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