2019 चुनाव : लोकतांत्रिक राजनीती की एक नई मोड़

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लोकतंत्र सामान्यतः जनादेश के रूप में स्वीकार्य किया जाता है| 2019 चुनाव के जनादेश के अनुसार देश की जनता ने कांग्रेस को हराया नहीं है बल्कि पूरी तरह से रिजेक्ट कर दिया है| अगर कोई पार्टी इतनी भी सीट लेने में असफल होती है जिससे कि वो विपक्ष में बैठ सके, इसे हार नहीं बल्कि रिजेक्शन कहा जाता है| कहा जाता है कि जिसने भी यूपी और बिहार के लोकसभा क्षेत्रो पर कब्ज़ा कर लेता है उसकी केंद्र में सरकार बननी लगभग तय हो जाती है| यह बदलते वक्त का जनादेश है| इसे सभी को स्वीकार्य करनी चाहिए| यह जनता की मर्जी है कि विपक्ष रहे या नहीं रहे| जब तक जनता को स्वतंत्र रूप से चुनने का मौका मिलता है तब तक लोकतंत्र किसी भी कीमत पर खतरे में नहीं हो सकता चाहे विपक्ष रहे या ना रहे| मै ऐसा इसलिए कह रहा हु क्युकी जनता पहले के अपेक्षाकृत बहुत ज्यादा सूचित है| आज लोगों के हाथ में RTI ऐसे अधिकार है, सस्ते कीमत पर हाई स्पीड इन्टरनेट की सुविधा और मोबाइल है| इसलिए जनता का निर्णय पहले से ज्यादा परिपक्कव है|

2019 का चुनाव एक बड़ी राजनितिक शिफ्ट है| आजादी के बाद से लेकर अबतक पांच बड़े राजनितिक बदलाव हुए| उसमें कुछ सफल हुए और कुछ असफल हुए| पहला बड़ा शिफ्ट 1964 में हुआ जब सत्ता जवाहर लाल नेहरु के हाथ से स्थानांतरित होकर लालबहादुर शास्त्री के पास पहुंची| चीन से मिले धोखे से नेहरू का ‘हिन्दी-चीनी भाई-भाई’ का सपना चूर-चूर हो गया था। सारा देश स्तब्ध और मायूस था| नेहरू का सिर शर्म से झुक गया था| इतिहास में ऐसी पराजय का कोई उदाहरण नहीं था| हमारी सेना जिस तरह पीछे हटी थी उससे सबको सदमा लगा| 1964 तक सिर्फ और सिर्फ नेहरु जी की चलती थी| पहले वो निर्णय करते थे और बाद में कैबिनेट की मजूरी नामक औपचारिकता होती थी| उलट सवाल करने की किसी की हिम्मत तक नहीं होती थी| सत्ता का वो एक दौर था| लाल बहादुर शास्त्री के समय राजनीती ने एक नाय मोड़ लिया| लेकिन यह बहुत दिन तक चल नहीं सका और महज एक साल बाद भारत-पाकिस्तान के युधोपरांत ताशकंत में एक समझौता होता है| ताशकंद में ही शास्त्रीजी की रहस्यमय हालात में मृत्यु हो गई और 1966 में इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री बनीं|

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इसके बाद दूसरा बड़ा बदलाव हुआ जब इंदिरा गाँधी सत्ता में आई| इनकी काम करने की शैली नेहरु जी से काफी अलग और राष्ट्रवादी थी| राजनितिक बुद्धिजीवी नेहरु जी को समाजवादी खेमे में रखती है| चुनाव में धांधली होता है और इलाहबाद हाई कोर्ट चुनाव नहीं लड़ने का आदेश देता है| सत्ता खोने का डर उन्हें तानाशाह बनाने की पहल करता है| इसके बाद भारतीय लोकतंत्र का काला दिन “आपातकाल” के रूप में शुरू होता है| यह बदलाव इतना बड़ा था कि लोगों के ताकत को चुनौती दे रहा था| लोगों ने कडा मुकाबला किया और इंदिरा गाँधी की तानाशाही सोंच को मटियामेट कर दिया| इसके बाद भारतीय लोकतंत्र में तीसरा बड़ा बदलाव हुआ जहाँ पहली बार एक गैर कांग्रेसी सरकार बनी जहाँ सत्ता ऐसे पार्टी के हाथ में आई जो एक आन्दोलन से निकली थी| लेकिन यह बदलाव भी छोटा की प्रतीत हुआ| षड़यंत्र में माहिर कांग्रेस, जनता पार्टी को भेदने में सफल रही| 5 सालों की अवधि पूरा करने से पहले ही कांग्रेस दोबारा सत्ता में आ गई| कुछ समय इंदिरा गाँधी फिर उनके पुत्र राजीव गाँधी सत्ता संभाले|

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चौथा बदलाव तब हुए जब कांग्रेस कमजोर पड़ने लगी| गठबंधन की सरकारें बनी| खासकर तब जब वी.पी. सिंह सत्ता में आए और मंडल कमीशन की सिफारिसों को लागु किये| यह एक बड़ा मोड़ था जहाँ से क्षेत्रीय पार्टी और मजबूत हुई और भारत में जातिगत राजनीती की शुरुआत हुई| तब से लेकर अब तक हमेशा चुनाव में जातिगत समीकरण बनते आए| इसमें एक और वेरिएबल (चर) धर्म के रूप में जोड़कर भारतीय राजनीती में एक नई किस्म की शुरुआत हुई| उदाहरण के रूप में यूपी और बिहार में क्रमशः समाजवादी पार्टी और राजद के लिए MY (मुस्लिम यादव) समीकरण को उनकी जीत के लिए एक बहुत बड़ा हथियार माना जाता रहा था| पांचवां और सबसे बड़ा बदलाव 2019 में हुआ जहाँ लगभग 25 सालों बाद जातिगत समीकरण का महत्त्व ख़त्म हो गया| इसे ख़तम करने में बीजेपी की भूमिका कम है और विपक्ष की ज्यादा है| इसलिए पहले और अब में अंतर बस इतना है कि जातिगत राजनीती ने धार्मिक राजनीती का स्थान ले लिए|

ऐसा इसलिए हो पाया क्युकी विपक्ष ने बिना मुद्दा का चुनाव लड़ा| विपक्ष ने पूरी कोशिश की कि बीजेपी को ठीक वैसे ही घेरकर हराया जाए जैसे बीजेपी ने कांग्रेस को घेरकर 2014 में हराया था| लेकिन तब के चुनाव और अब के चुनाव में परिस्थितियों का अंतर है| तब की परिस्थिति और अब की परिस्थिति में अंतर है| जनता की डिमांड अलग है| जनता के पास सुचना की उपलब्धता बढ़ चुकी है| हालांकी कांग्रेस ने अपने सारे दिशाहीन और असफल दाव लगा कर देख चुके| हर बार मात खाए| पहले भ्रष्टाचार की कहानियाँ बनाने की कोशिश की, उसके बाद “चौकीदार चोर है” जैसे नारों से लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने की कोशिश की वहाँ भी असफल हुए| उसके बाद “हिन्दू आतंकवाद” जैसे बलंडर कांसेप्ट बनाने की झूठी कोशिश की, जो उल्टा पड गया| उसके बाद अल्पसंख्यक समूह को डर दिखाने की कोशिश की गई| अमूमन हर प्रयास असफल रहा| अंततः कुछ सकारात्मक चीजें अपने मैनिफेस्टो के तहत लाने की कोशिश भी किये तो वो भी ख्वाबी पुलाव सा प्रतीत हुआ| बाबाओं को भी अपने साथ रखकर हिन्दू वोटों को लुभाने की कोशिश जरूर की मगर असफल रहे| एक तरफ “हिन्दू आतंकवाद” जैसे झूठे प्रचार और दुसरी तरफ बाबाओं से चुनावी प्रचार करवाना ढोंग मात्र ही है| यूपी में अखिलेश बाबु तो CM योगीनाथ के हमशकल तक ढूंढ लाए लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ|

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इसके अलावां कांग्रेस के पास कोई बढ़िया नेतृत्व नहीं था| जहाँ तक बात रही राहुल गाँधी की तो वो बेशक 15 सालों से लोकसभा के सांसद जरूर रहे लेकिन उनके पास किसी भी तरह की बड़ी जिम्मेदारी नहीं रही| जैसे ना तो कभी केंद्र में मंत्री रहे और नाही राज्यों में मुख्यमंत्री| इसलिए लोगों के पास किसी भी तरह का ब्लू प्रिंट नहीं पेश कर पाए| पार्टी ने एक के बाद एक मुद्दों को जनता के सामने लाने की कोशिश की। मसलन, पहले नोटबंदी फिर जीएसटी और फिर राफेल में हेराफेरी का मामला। कांग्रेस ने किसानों और बेरोजगारी का सवाल भी उठाया। लेकिन नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी ने उनके सभी मुद्दों को हवा कर दिया। हालत यह हो गई कि जब राहुल गांधी ‘न्याय’ के तहत लोगों को प्रतिवर्ष 70,000 रुपए देने की बात कही तब भी लोगों ने इसे जुमला ही समझा। ठीक वैसे ही जैसे 2014 में नरेंद्र मोदी ने सभी के खाते में 15-15 लाख देने का वादा किया था और बाद में अमित शाह ने इसे राजनीतिक जुमला करार दे दिया। लोकसभा के तीन बड़े राज्य यूपी, बिहार और बंगाल (जहाँ सीटें बहुत ज्यादा है) में कांग्रेस चर्चाहीन रही| एक समय था जब सभी पार्टियाँ कांग्रेस से गठबंधन करने के लिए लालायित रहती थी लेकिन आज कांग्रेस क्षेत्रिए दलों की पिछलग्गू बनी हुई है| यूपी में तो इन्हें शामिल तक करने को मना कर दिया|

इस बड़े बदलाव का एक और मुख्य कारण है कि राजनीती के मुखिया परिवार के पीढ़ी में बदलाव हुआ है| जो जमीन से जुड़े नेता थे जिसने पार्टी का गठन किया, उसका सेवन करके बड़ा किया वो सब लोग या तो वृध हो गए है, या स्वस्थ्य नहीं है या फिर पार्टी की जिम्मेदारी अपने युवराजों को सौंप दी है| उदारहण के तौर पर उत्तरप्रदेश में मुलायम सिंह यादव का राजनितिक रूप से सक्रीय नहीं होना| इसका परिणाम यह हुआ कि सपा-बसपा गठबंधन में सपा अपने अनुभव का फायदा उठाने में असफल रही| दूसरी ओर बिहार में लालू प्रसाद यादव का जेल में होना कहीं न कहीं राजद के हीत में नहीं था| बेशक लालू यादव का प्रशासनिक जीवन कैसा भी हो लेकिन वो जनता के दिमाग को पढना बखूबी जानते है| यही कारण है कि लालू प्रसाद यादव लोगों को आकर्षित करने में हमेशा सफल रहे है और अपनी सुझबुझ के आधार पर सत्ता में आने की कला भी उनकी कमाल की थी| उनके पुत्रों में न तो वो सुझबुझ है और नाहीं लोगो को आकर्षित करने का तरीका|

बाक़ी के राज्यों में भी क्षेत्रीय पार्टियों का लगभग यही हाल रहा है| तमिलनाडु में भी एक ऐसी ही लोकप्रिय और जमीन से जुडी नेता थी – जय ललिता| 2014  की बीजेपी लहर भी तमिलनाडु को भेदने में असफल रहा था| 2014 में कुल 39 सीटों में से अकेले AIDMK 37 सीटें लेने में सफल रही थी| जयललिता के देहांत में उनकी पार्टी का परिणाम भी वैसा ही है जैसा कि मुलायम सिंह यादव के बिना उत्तरप्रदेश, लालूप्रसाद यादव के बगैर बिहार का है| 2019 में 37 सीटें जितनी वाली पार्टी AIDMK 2019 में महज 1 सीट पर सिमट के रह गई है| लोकप्रिय चेहरा नहीं होने पर पार्टी का हाल ऐसा ही होता है| जब तक बीजेपी ने एक लोकप्रिय चेहरा नहीं उतारा जिसके पास बतौर मुख्यमंत्री तजुर्बा हो और लोगों को दिखने के लिए “गुजरात मॉडल” जैसे सपने हो तब तक बीजेपी का भी यही हाल था जैसा आज कांग्रेस का है| हो सकता है कि आने वाले भविष्य में जब नरेन्द्र मोदी जी अपने राजनितिक सफ़र को अलविदा कहें तब बीजेपी का भी राजनैतिक वैकुम के कारण यही हाल हो|

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सिर्फ हिंदुस्तान ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में दक्षिणपंथी समूह वाली पार्टियों का उदय हो रहा है| लॉजिक सबका एक जैसा ही है| चेहरा दमदार होना चाहिए| चाहे अमेरिका के ट्रम्प हो या ब्राजील के जॉन बोल्सेनारो| लोकप्रिय और दमदार नेता है तो सत्ता संभव है| वर्ना आज के मौजूदा वक्त में अगर मुखिया का चेहरा साफ़ और शक्तिशाली नहीं है तो कोई भी प्रतिनिधि हार सकता है| चाहे वो पहले के मुख्यमंत्री हो या केंद्र में मंत्री हो या फिर पारिवारिक सीट क्यों न हो| घरेलु सीटों में राहुल गाँधी भी हार सकते है, डिंपल यादव भी हाल सकती है, ज्योतिराज सिंधिया भी हार सकते है| पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह भी कर सकते है, भूपेंद्र सिंह हुड्डा भी हार सकते| इसके पीछे भी एक कारण है| हिंदुस्तान की भौगोलिक स्तिथि भी ऐसी ही है कि यहाँ की प्रवृति निर्भरता वाली रही है| प्राकृतिक आपदा के लिए आसमान में अपनी आस्था की तरफ देखते है और दैनिक समस्याओं के लिए सरकारों की ओर देखते है| वो बात अलग है कि भगवान या सरकार जनता की तरफ कैसे देखती है|

इसलिए बेशक कुछ करे या न करे कम से कम हिन्दुस्तान के चुनावी नजरिए से नेता भरोसेमंद होना चाहिए| जनता की इस कमजोरी को नरेन्द्र मोदी बखूबी समझते है| सर्जिकल स्ट्राइक जैसे फैसलों से एक तीर से दो शिकार हुए| अन्तराष्ट्रीय राजनीती में राष्ट्रिय हीत और घरेलु राजनीती में लोगों का भरोसा जीतने में यह निर्णय काभी मददगार साबित हुआ है जिसका प्रतिबिम्ब चुनाव में दिखा|

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