लोकतंत्र पर हावी होता भीडतंत्र

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भारत एक विविधताओं वाला देश है जहाँ दुरी पर पानी के साथ साथ बोल-चाल, खान-पान, पहनावा-ओढावा, रहन-सहन आदि सबकुछ बदलता है| यहाँ अनेको जातियां है और अलग अलग धर्मों के मानने वाले लोग है| सामाजिक स्तर पर भी विविधता है| आदिवासी लोगों का रहने और अपने अनोखे संस्कृति को जीने का सलीका भी बाकी के समाज से अलग है| ऐसे ही दक्षिण भारत में होने वाली शादियों की प्रक्रिया उत्तर भारत से बिल्कुल अलग है|

यही एक मुख्य कारण था, जिसकी वजह से रविंद्रनाथ टैगोर और महात्मा गाँधी दोनों ‘राष्ट्रवाद’ के कांसेप्ट से अपने आप को दूर रखा और संविधान में भी ‘इंडियन नेशन’ की जगह ‘इंडियन स्टेट’ शब्द का उपयोग किया| हमारे पूर्वज बहुत दूर दृष्टी वाले नेता थे| ऐसे विविधताओं वाले देशों में राष्ट्रवाद की कल्पना करने का मतलब ही है जिसकी लाठी उसकी भैस, जिसका प्रतिबिम्ब आज हमारे समाज में दिख रहा है| बहुत कुछ चीजें बदल रही है| राजनितिक संवर्धन ही घिनौने कृत्यों को करने के लिए प्रोत्साहित कर रहा है जिसे बाद में इस पर निंदा व्यक्त कर टालने की कोशिश की जाती है|

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देश का संविधान इस तरह से बनाया गया ताकी किसी खास समुह या समाज की मनमानी से रोका जाए| इसके लिए आरक्षण जैसी चीजों को माध्यम बनाया गया, जिसका गम आज तक, आरक्षण क्षेत्र में न आने वाले समूह, भूल नहीं पाते| आज भी उनको अन्याय लगता है क्युकी वो समूह इसे “भागीदारी” के बजाए “गरीबी उन्मुल्यन” समझते है, जो कि दुर्भाग्य की बात है| क्युकी कि बचपन से ही आरक्षण के खिलाफ नफरत भरा गया और कभी भी उसके मूल्यांकन के बारे में बातें नहीं हुई| ठीक ऐसे ही बचपन से एक ऐसी प्रतिबिम्ब बनाई जा चुकी है कि अगर कोई मुसलमान जानवर खरीदता है तो उसका उद्देश्य सिर्फ मांस निकलना ही होता है|

कोई मुसलमान किसी जानवर को पाले, ऐसी बातें कभी की ही नहीं गई| ना तो कभी मीडिया ने की और नहीं किसी शैक्षणिक संस्था के पाठ्यक्रम के उदहारण में दी गई| ऐसा नेक्सस बनाया गया है जैसे दुधारू जानवर जैसे गाय, भैंस आदि के पालने का ठेका सिर्फ और सिर्फ हिन्दुओं के पास ही है| मुसलमान तो सिर्फ उसे काटकर खाने और बेचने का ही काम करता है| पहले उत्तरप्रदेश में दादरी, नॉएडा में अफ़्रीकी लोगों पर सामूहिक हमला और अब राजस्थान में ऐसा सामूहिक हमला एह दर्शाता है कि लोकतंत्र पर भीडतंत्र हावी होने की कोशिश कर रहा है|

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यह बिल्कुल सही ही कहा गया है कि विद्वान लोग का शरीर तो मर जाता है पर उनका व्यक्तित्व और विचार हमेशा जिन्दा रहता है| मैंने बहुत दिन पहले पढ़ा था जिसमे महात्मा गाँधी ने जिक्र किया था कि जो अल्पसंख्यक होता है या फिर सामाजिक रूप से हाशिए पर होता है वो बहुत ही सहनशील होता है| यह बात बहुत सही है| दादरी के घटना होने के बाद पीड़ित का लड़का या फिर राजस्थान में हुए घटने के बाद पीड़ित का दोनों लड़का जब कैमरे पर आया तो सिर्फ बेचारगी नजर आ रही थी| उनके चेहरे पर गुस्सा के लिए कोई जगह ही नहीं था| सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि उनका मांग मात्र इतना है कि उन्हें इंसाफ मिले|

किसी के पिताजी पर ऐसे सामूहिक और अवैध हमले होने के मृत्यु होने के बाद भी उसे वैधिक न्याय पर पूरा भरोसा है| यह बहुत बड़ी बात है| खुदा न खस्ता अगर मेरे साथ होता तो शायद मै टीवी के सामने ऐसी व्यावहारिक बात नहीं कर पाता| अगर संक्षेप्त में कहूँ तो अवैध अटैक पर वैधिक कार्यवाई का क्षमता रखना बहुत बड़ी चीज है| कुछ लोग शायद इस चीज को नहीं समझ पाएंगे क्युकी वो किसी भी प्रकार के हाशिए पर ढकेले हुए वर्ग से सम्बन्ध नहीं रखते हो| चुकी इन लोगों ने हमेशा उगते सूरज को ही देखा होगा|

हमारे न्यायपालिका के पास लाखों केस पेंडिंग में पड़े हुए है| कुछ व्यवस्था की खामियां है और कुछ न्यायपालिका का सैधांतिक वसूल| न्यायपालिका किसी भी निर्दोष को गलती से भी सजा न दी जाए इसके लिए लम्बा समय देता है और पूरा मौका जिससे अपनी बात रख पाए| हमारे समाज में इसका मजाक भी उड़ाया जाता है| अगर वकील रखने की हैसियत नहीं होती तो सरकारी वकील भी उपलब्ध करवाई जाती है| किसलिए? ताकी पांच दोषी बेसक छुट जाए लेकिन किसी भी एक निर्दोष को गलत सजा नहीं मिल पाए| पहली बात कि ये कौन सा न्याय है कि अगर कोई मुसलमान गाड़ी में जानवर एक जगह से दूसरी जगह ले जा रहा है तो बिना पूछे, बिना जांचे, या फिर बिना किसी आधार पर सेकंड भर में उसे अवैध पशु तस्कर का दोषी बनाकर मार दिया जाए|

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आरोप लगाने का भी कोई जगह नहीं| बाद में पता लगता है कि वो एक पशुपालक था जिसे पशु तस्कर समझ के मार दिए| अब इस पाप का भागी कौन होगा? दूसरी बात जब पूरी पुलिस प्रशासन और तंत्र है तो ये लोग कौन होते है इसमें हस्तक्षेप करने वाले? इसका प्रक्रिया ऐसे होता है कि पहले दोषी तय कर दिया जाए फिर बाद में उसके खिलाफ सबुत इक्कठा की जाए| अगर न मिले तो असामाजिक तत्व कह अपने को उस सब से दूर कर लिया जाए|

लोकतंत्र में जनता की शक्ति भी तय है| जनता न तो सीधे कानून बना सकती है और नाही न्याय| अगर उसमे भाग लेना है तो या तो उसे राजनितिक रास्ता अख्तियार करना पड़ता है या फिर एक गैर राजनितिक रास्ता जिसमे वो न्यायलय को एप्रोच करे और इसके लिए पूरा अधिकार निहित है| लेकिन इस तरह का भीडतंत्र का हमला तो बिल्कुल अवैध और गलत है जो लोकतंत्र पर एक धब्बा है| ऐसा लगता है मानों लोकतंत्र पर भीडतंत्र हावी होता जा रहा है|

कुछ लोग ऐसी जहिलाना अफवाहें भी फैलाते है कि वो लोग पालने के बहाने मात्र से ही खरीदते है जबकी उनका मकसद तो मांस निकलना और बेचना होता है| पहली बात, दूध देने वाली पशु न दुध देने वाली पशु के अपेक्षाकृत लगभग दुगनी दाम के होती है| दूसरी बात दूध देने वाली पशु न दुध देने वाली पशु के अपेक्षाकृत वजन में बहुत हलकी होती है जिससे मांस कम निकलता है| इतना जाहिल तो दुकानदार नहीं हो सकता कि दुगने दाम में हल्का जानवर खरीद कर बेचे और उसपर हानि सहे|

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हाल में हुए नोयडा वाला मामला भी बिल्कुल सामानांतर है| देश में एक पैटर्न बन सा गया है कि सामने वाला अफ़्रीकी है और वो भारत के किसी शहर में दिखता है तो लोगों के दिमाग में वैसी प्रतिबिम्ब उभर आती है जैसे वो ड्रग्स माफिया है या किसी रैकेट से जुड़ा हुआ है| ठीक वैसे ही जैसे भारत में मुस्लिम को आतंकवादी या फिर आवेश पशु तस्कर के रूप में चित्रित किया जाता रहा है| ठीक वैसे ही जैसे हर आदिवासियों को नक्सली के रूप में चित्रित किया जाता है| जब पुलिस ने उनके खिलाफ कोई सबूत ना होने के चलते नाइजीरियाई छात्रों को रिहा कर दिया तो भीड़ ने उनको घेर कर पिटाई क्यों की? देश लोकतंत्र से चलता है या भिडतंत्र से?

फिर तो किसी कोर्ट-कचहरी पुलिस थाने की कोई जरूरत ही नहीं है जब खुद एक संगठित समुह फैसले लेकर सजा देने का अधिकार समझता हो| यही नहीं बड़ा दुर्भाग्य की बात है हमारे नेता किसी विमान के कर्मचारी को चप्पल से मारते है और कंपनी एथिक्स को ध्यान में रखकर करवाई करती है ताकी बाक़ी के कर्मचारियों पर ऐसी नीच हरकतों से बुरा असर न पड़े| बाद में दबाव में आकर फैसला वापस लेना पड जाता है, क्युकी नेता गायकवाड़ जिस पार्टी से आते है उनके पास भी भीड़ की पूरी फ़ौज है जो अपनी घिनौनी कृत्य पहले दिखा चुकी है| भीडतंत्र की ताकत ने ही एयर इंडिया को फैसले वापस लेने को मजबूर किया|

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