अपने ही मुल्क की धरती पर बाहरी कैसे हो गए बिहारी

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‘प्राकृतिक रूप से लोग राजनीतिक जानवर है’ यह वाकया मशहूर राजनीतिक विचारक एरिस्टोटल के है| इनकी यह बात मौजूदा वक्त में अपनी प्रासंगिकता सिद्ध करता नजर आ रहा है| हाल में यूपी.-बिहार के लोगों को गुजरात से भगाया जा रहा है| बड़ा अजीब समय चल रहा है जहाँ अपने ही मुल्क की धरती पर कभी बिहारियों को बाहरी होने का अहसास दिलाया जाता है, तो कभी मुसलमानों को अपने आप को भारतीय सिद्ध करने की चुनौती मिलती है| ऐसे ही समाज में दलितों को एहसास दिलाया जाता है कि सामाजिक संरचना में उसकी स्थिति निचले पायदान पर है| सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस और प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के पूर्व चेयरमैन कभी जस्टिस मार्कंडेय काटजू कहते है कि पाकिस्तान के लिए ऑफर है, अगर उसे कश्मीर चाहिए तो उसके साथ बिहार को भी लेना होगा| नफरत करने की एक हद होती है| ये सभी बातें उसके ऊपर की बातें है|

पश्चिमी भारत के कुछ लोगों द्वारा यूपी बिहार के लोगों को जन्मजात रूप से अपराधी मानने की रूढ़िवादी धारणा बनी हुई है| एक समय अंग्रेजों का था| जो किया वो आज-तक याद किया जाता है| अंग्रेजों ने अपराधी आदिवासी अधिनियम 1871 बनाया था| कानून बनाने वाले अंग्रेज मानते थे कि देश का एक समूह, आदिवासियों का पेशा ही अपराध करना है। ठीक वैसे ही मौजूदा वक्त में देश के पश्चिमी हिस्से के लोगों और वहाँ के कुछ गिने-चुने, अपनी अस्तित्व कि लड़ाई लड़ रहे नेताओं का मानना है कि पुरबिया लोग जो यूपी बिहार से आते है वो अपराधी है| राज ठाकरे जैसे नेताओं ने तो बेझिझक मीडिया के सामने यूपी-बिहार से आने वाले लोगों को अपराधी के रूप में स्वीकारा था| और तो और 1980 के दशक के मध्य में एक आर्थिक विश्लेषक आशीष बोस ने बीमारू शब्द का प्रयोग तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री राजीव गांधी को प्रस्तुत एक पेपर में किया था। यह मामला कुछ वैसा ही है जब औरतों को हर कदम पर कमजोर होने का एहसास दिलाया जाता है|

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निःसंदेह अपराधी हमेशा अपराधी ही रहता है| देशहित के नजरिए से अपराधी को कभी बख्शा नहीं जाना चाहिए| चाहे वो गुजरात, महाराष्ट्र में पैदा हुआ हो या यूपी, बिहार में| लेकिन कुछ सेलेक्टिव घटनाओं को लेकर लोगों के धर्म, जाती या स्थान के नाम पर पूर्वाग्रह बनाया जाए कि वो अपराधी है इससे तुच्छ और नासमझ वाली कोई चीज नहीं हो सकती| NCRB (National Crime Records Bureau) कि रिपोर्ट माने तो सिर्फ 2016 में, उसी गुजरात में औरतों के सन्दर्भ में 8,532 केस पंजीकृत हुए हो| क्या इन सारी घटनाओं में उत्तर भारतीय लोग शामिल थे? इन घटनाओं में वही के रहने वाले गुजराती शामिल थे जो वैसा ही अपराधी है जैसा कि हाल के घटना में अपराधी है| अपराधी दोनों लोग है| देश के कानून के हिसाब से दोनों को उचित दंड दिया जाना चाहिए| किसी को भी बख्शा नहीं जाना चाहिए|

जो लोग भी भीड़ बनाकर वहाँ रह रहे यूपी. बिहार के लोगों को धमका रहे है और भगा रहे है उनपर भी उसी प्रकार से उचित कार्रवाई होनी चाहिए| हर व्यक्ति को संविधान अधिकार देता है कि जहाँ चाहे वहाँ रह सकता है, जहाँ चाहे वहाँ अपना व्यवसाय कर सकता है, जहाँ चाहे वहाँ पढ़ सकता है क्युकी यह ‘हिंदुस्तान’ कि धरती है| इस हिंदुस्तान की धरती पर जितना अधिकार मराठियों और गुजरातियों की है उतनी ही यूपी और बिहार के लोगों की भी है| यह बात भी ठीक उसी पैमाने पर है जैसे इस मुल्क पर जितना हक़ हिन्दू लोगों का है, उतना ही बाकी के मजहबों के मानने वाले लोगों का है| राज्यों का निर्माण शक्ति प्रदर्शन के लिए नहीं बनाया गया है| राज्यों का निर्माण इसलिए किया गया है ताकी प्रशासनिक इकाइयों को छोटे करने से बेहतर प्रशासन की उम्मीद की जाती है| सत्ता के विकेंद्रीकरण का दुस्प्रभाव है कि ऐसा गुंडागर्दी हमें समाज में देखने को मिल रहा है|

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मूल रूप से यह समस्या है नहीं बल्कि बनाई गई है| हमारे देश में तमाम तरह के बाइनरी डिस्कोर्स हिन्दुस्तानी वातावरण में तैर रहे है| देश में सिर्फ कुछ लोग है जो समयानुसार अपने अलग-अलग रूप में हमारे सामने प्रकट होते रहते है| इन कुछ लोगों को हम “Supreme Society” कह सकते है जो देश के हर संसाधनों पर अपना पहला हक़ समझते है| इस सोसाइटी में हर तबके के कुछ लोग है| इनमें कुछ हिन्दू है, कुछ मुस्लिम है, कुछ पुरुष है, कुछ महिलाएं है, कुछ उच्च जाती के है, कुछ दलित है, कुछ उत्तर भारतीय है, कुछ दक्षिण भारतीय है, कुछ पश्चिम भारतीय है| ये सब समय अनुसार एक-दूसरे से मिलकर तीसरे का शोषण करते है| ऐसे घटनाओं के पीछे यही असल राजनीति है| उदाहरण के रूप में जब बात पुरुष बनाम औरत की होती है तो सारे पुरुष मिलकर एक ‘पुरुष प्रधान समाज’ का निर्माण करते है और औरतों का शोषण करते है|

जब बात दलितों के खिलाफ हो रहे शोषण की होती है तो दलित छोड़ सारे एक हो जाते है और एक ‘दबंग समाज’ का निर्माण करते है| ऐसे ही जब बात हिंदी बनाम गैर हिंदी की होती है सारे उत्तर भारतीय, दक्षिण भारतीय के खिलाफ खड़े हो जाते है पिछले उदाहरण में शोषित हो रहे दलित भी हिंदी के नाम पर उस बड़ी हुजूम का हिस्सा बन जाता है| इस बार दलित शोषित नहीं बल्कि शोषणकर्ता बना जाता है| हिंदी के नाम पर वो औरत भी उसी शोषणकर्ता वाली हुजूम खड़ी हो जाती है जो एक वक्त पुरुष प्रधान समाज के हाथों शोषित थी| कहने का मतलब यह है कि यह बाइनरी डिस्कोर्स है जो समय, अवस्था और सुविधा के अनुसार अपने अलग-अलग रूपों में हमें दिखता है| कभी पुरुष बनाम स्त्री, कभी हिन्दू बनाम मुस्लिम, कभी उत्तर भारतीय बनाम दक्षिण भारतीय, कभी स्वर्ण बनाम दलित, कभी आदिवासी बनाम गैर-आदिवासी, कभी बिहारी बनाम मराठी तो कभी समलैंगिक बनाम लैंगिक के रूप में दिखता है| अंतर बस इतना है कि एक समय एक शोषित होता है दूसरा शोषणकर्ता बनता है|

सब एक दुसरे का शोषण करते है| गुजरात के केस में भी यही बात है| सारे ठाकुर समाज एक होकर बिहारियों को भगा रहे है| अरे भाई ! उन बिहारियों में भी तो कुछ ठाकुर होंगे| लेकिन इस बार जो डिस्कोर्स है वो जातिगत नहीं है बल्कि स्थान को लेकर गुजराती बनाम यूपी-बिहारी है| असल रूप में सारे डिस्कोर्स बनाए गए है जिससे नफरत किया जा सके| स्त्री, बिहारी, दलित, मुस्लिम, मद्रासी, आदिवासी, समलैंगिक आदि में से कोई भी शब्द प्राकृतिक (Natural) नहीं है| ये सारे शब्द हमारे ही समाज के हमारे ही बीच के लोगों ने बनाए है जिससे नफरत किया जा सकते है| प्रकृति ने सबको एक जैसा बनाया है| ये तो हमारी कलाकारी है कि मुस्लिम लोगों को समझने के लिए हमेशा ‘उस्मान भाई’ का रूप बनाया जाता है जिसकी आँखें हमेशा चढ़ी हो और हाथों में छुरा लिए घूम रहा हो| ऐसे ही दलित को समझने के गंदगी के पर्याय बनाया जाता है| औरतों के समझने के उसे कमजोर का अहसास दिलाया जाता है|

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ठीक ऐसे ही दलितों को समझने के लिए उन्हें कभी ‘नक्सली’ के रूप में चित्रित किया जाता है तो कभी Uncivilized रूप में किया जाता है| बिहारियों में समझने के लिए घोर गरीबी, मरियल और काले लोगों के रूप में चित्रित किया जाता है मानों पैदा होने के दुसरे दिन उनके हाथों में बन्दुक थमा दिया जाता है| समलैंगिक लोगों को एलियन समझ उसे गाली का प्रतीक बना दिया जाता है| विश्वास न हो तो किसी भी आदमी को एकबार समलैंगिक कहकर देखिए कैसे भड़क जाता है| ये सारे शब्द हमने बनाए है जिससे समझ में एक डिस्कोर्स बना सके| एक दुसरे से नफरत कर सके| ऐसा इसलिए क्युकी इसी नफरत के आधार पर सत्ता का ढांचा बनता है| राजनीतिक विचारक Aristotle ने बहुत सही कहा था कि “Man is by nature a political animal” ये सब का सब सत्ता की लड़ाई है| सत्ता सिर्फ राजनीतिक नहीं होता बल्कि जातीय, धार्मिक, प्रांतीय भी प्रांतीय होता है|

नफरत की फसल इसीलिए उग पाती है क्युकी देश के ज्यादातर लोग चीजों को अपने विवेक के अनुसार नहीं समझना चाहते है| शायद यही कारण होगा जिसकी वजह इस युग को ‘पोस्ट ट्रुथ एरा’ कहा गया है जहाँ पर लोगों की भावनाएं विवेक पर हावी हो रही है| लोग अगर अपनी विवेक से चीजों को समझते तो ना तो ठाकरे की बात सुनते और नाही गुजरात वाले ठाकोर की| क्युकी कुछ लोग बिना सोचें उनकी बातों को ही सत्य मानकर अपनी मानसिक गुलामी की परिचय दे चुके होते है| रही बात जिसकी चर्चा हमेशा होती रहती है कि जहाँ पैदा हुए वही काम क्यों नहीं करते? उनकी राज्य सरकारें क्यों उन्हें रोजगार नहीं दिला पाती है? ये सब अंग्रेजों का बोया हुआ शनिचर है जिस परिणाम आज भी पूर्वी लोग भुगत रहे है| देश जब गुलाम भी था तब भी शोषित वर्ग वही थे जो किसान और मजदूर थे| व्यवसाय करने वाले लोग तो अंग्रेजों के साथ मिलकर (ट्रीटी के सहारे) करके अपनी संभावनाओं को ढूंढते थे और व्यवसाय करके अपना जीवन यापन किया करते थे| अगर ऐसा नहीं होता तो महात्मा गाँधी को आन्दोलन के लिए बिहार के ‘चंपारण’ नहीं आना पड़ता|

मेहनतकश पूर्वी लोग जो श्रम में निपुण हमेशा से रहे है, सबसे ज्यादा अंग्रेजों ने उन्हें ही पलायन करवाया है| कभी असम के चाय बागानों में तो कभी उन देशों में जो अंग्रेजों के गुलाम थे| यही कारण है कि यहाँ के लोग वही जाकर बस गए चाहे वो देश मॉरीशस हो यह फिजी हो| अंग्रेजों ने उद्योगों का विकास भी किया तो उन्हीं तटवर्ती इलाकों में किया जहाँ से सामान यूरोपीय देशों में भेज सके| इसलिए पूर्वी क्षेत्र हमेशा से शोषण का ही शिकार रहा है| आजादी के बाद देश आजाद तो हुआ लेकिन नीतियाँ सारी अंग्रेजों की यही रह गई| परिणाम यह है कि आज भी पूर्वी इलाके सरकार की नजरों से अझोले है| अगर ऐसा नहीं होता तो सोचिए भारत के पूर्वी इलाके छत्तीसगढ़, बिहार, झारखण्ड, उड़ीसा जैसे क्षेत्र संसाधन में सबसे धनी राज्य होने के बावजूद भी उन राज्यों की स्थिति स्वीकार्य करने योग्य नहीं है| पैराडॉक्स वाली बाते ही है नहीं तो संसाधन से धनी वाले राज्य गरीब क्यों होते ?

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पिछड़ापन होने का एक कारण यह भी है उत्तरप्रदेश और बिहार गंगा के मैदानों में बसा हुआ है जिसकी भूमि बहुत उपजाऊ है लेकिन दिक्कत यह है कि आज के समय में कृषि की महत्ता वो रह नहीं गई जिससे उन्हें उस स्तर का फायदा हो जिससे आर्थिक स्थिति में आमूलचूल परिवर्तन देखा जा सके| अब जब गंगा के मैदान में है तो प्राकृतिक आपदा भी उन्हें के हिस्से में है जिसकी जरूरत मुताबिक व्यवस्था न होना राज्यों को और पीछे करने में मदद करता है| यही कारण है कि पूर्वी लोग ‘पलायन’ शब्द को अपनी संस्कृति का हिस्सा बना चुके है नहीं तो किसी भी व्यक्ति को अपने परिवार और समाज से दूर रह सिर्फ ‘पैसों’ के लिए मजदूरी करना पसंद नहीं होता| लोकगीत में भी औरतें ‘पलायन’ के लिए ना तो सरकार को दोष देती है और नाही एस्टाब्लिश्मेंट की| बल्कि कभी रेल को बैरन बताती है तो कभी यह कामना करती है कि ऐसी बारिश हो कि कागज की बनी टिकट ही गल जाए|

रेलिया बैरन पिया को लिए जाए रे|
जौन टिकसवा से बलम मोरे जैहें, रे सजना मोरे जैहें,
पानी बरसे टिकस गल जाए रे, रेलिया बैरन ।।
जौन सवतिया पे बलमा मोरे रीझे, रे सजना मोरे रीझें,
खाए धतूरा सवत बौराए रे, रेलिया बैरन ।।

इसलिए मुझे लगता है कि देश के तमाम लोगों को नफरत करने से पहले इन सभी बातों को भी समझना चाहिए| अपने आप को इन्सान बने रहने की जरूरी है कि उन गन्दी राजनीती का हिस्सा न बन पाए जो नफरत के आधार पर खड़ी होती है| जरूरी है बिहारी लोगों के मेहनत को समझा जाए जो अपने खून-पसीने से शहर का निर्माण करते है| एक-एक ईंटें जोड़ बड़ी-बड़ी इमारतें खड़ी करते है, सब्जियों को आपके दरवाजे तक पहुँचाते है, चौकीदार बन रात-रात भर जागकर सोसाइटी की सुरक्षा करते है, ऐसे में इनसे नफरत करना कहाँ तक जायज है? शहरी समाज के हिस्सा बन चुके है जो इनके बगैर पूरी नहीं हो सकती है| अंततः आपको किराए भी तो देते ही है जो आपके आजीविका का मुख्य श्रोत भी है| ऐसे में मुहब्बत नहीं कर सकते तो कम से कम नफरत तो ना ही करें| बेहतर होता कि देश के हर तबके, समाज, मजहब, जाती के लोगों को उनके कामों को इज्जत दे और सामाजिक सौहार्द बनाए रखे|

 

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