अपने देश के लोग सबसे ज्यादा भावुक है जो भावनाओं में बहुत जल्दी बह जाते है| भावनाओं में बहने के लिए बहुत सारे पैरामीटर्स है| धर्म, जाती, समाज के अलावां बहुत सारे पैरामीटर्स है जो लोगों को इतना भावुक बनाते है जो एक लोकतंत्र को बर्बाद करने के लिए काफी है| यही कारण है कि इस युग को ‘पोस्ट ट्रुथ एरा’ कहा गया है| इसका मतलब यह कि एक ऐसा युग जहाँ पर लोगों के विवेक पर भावनाएं हावी हो| यह भावनाएं ही है जिसकी वजह से देश में तमाम धार्मिक ठेकेदारों बाबाओं, मौलवियों या पादरियों का घर चलता है| यही लोग अक्सर आगे चलकर तमाम कुरीतियों में लिप्त पाए जाते है| मुझे लगता है उदहारण देने की कोई जरूरत नही है| यह सबलोग जानते ही है| इन्हीं भावनाओं के आधार पर देश में सरकारें बनती है| कोई राष्ट्रवादी होने का ढोंग करता है तो कोई सेक्युलर बनने की ढोंग करता है| वास्तव में इन सबके अपने मकसद का पूरा होना ही मुख्य चिंता का विषय होता है| अमूमन सारे राजनितिक दल यही करते है| इसका सबसे बड़ा घाटा यह है कि लोगों की वास्तविक चिंताएं अलोती रह जाती है|
सबसे पहले केस स्टडी के रूप में मै रेलवे को लेता हूँ| भारतीय रेलवे ऐसी संस्था है जो देश के दूर दराज तक अपनी पहुँच रखती है| इसका श्रेय आज के तथाकथित लोकतांत्रिक दलों को तो कतई नहीं जाता है| अंग्रेजों में अपने फायदे के लिए ही सही लेकिन रेलवे की बड़ी नेटवर्क बनाई थी| अगर आज के नेताओं के कंधो पर छोड़ दिया जाए तो अगले हजार सालों में भी ऐसा नेटवर्क नहीं बना पाते| आजादी के बाद से लेकर आज तक देश में रेलवे को लेकर कोई बड़ा परिवर्तन नहीं हुआ| इंफ्रास्ट्रक्चर, टेक्नोलॉजी और सर्विस तीनों क्षेत्रों में सरकारें आजादी के बाद से लेकर आज तक असफल रही है| इंफ्रास्ट्रक्चर इनता लचीला कि एक्सीडेंट की घटनाएँ अक्सर देखने को मिलती है| उसके बाद राजनितिक दलें अपनी-अपनी इसपर राजनीती करती है| विश्व और देश दोनों में तकनिकी विकास होने के बाद भी रेलवे का आकर डब्बा जैसा ही है| इसके एयरोडायनामिक क्षेत्र में विकास ना के बराबर हुआ है| सर्विस इतनी घटिया कि लोग पैसा देकर यात्रा करने को तैयार फिर भी उन्हें टिकट नहीं मिल पाता है| रेलवे में कोई भी पारदर्शिता नहीं है|
लूट ऐसी कि लोगों की जेब खाली कर दे| इसके बाद टिकट पर बड़े शान से लिखते है कि ‘क्या आपको पता है कि भारतीय रेल औसतन यात्रा का सिर्फ 57% ही रिकवर कर पाती है’| परोपकार करने की दिखावा का कोई मौका नहीं छोड़ा जाता| यात्रा का कुल 57% ही रिकवर हो पाना, यह सरकार की असफलताओं का परिणाम है| अपनी असफलताओं की ओर झांकने के बजाए टिकट पर ऐसे मेसेज लिखकर अपनी जिम्मेदारियों से भागते नजर आते है| साल में रेलवे के विकास के नाम पर पहले 14.2% उसके बाद 6.5% का इजाफा होता है| इसके अलावां पिछले दरवाजें से मोटी लूट होती है| लूट के लिए प्रीमियम तत्काल जैसी चीजें आती है जिसमें किराया हवाई जहाज जैसा बढ़ता चला जाता है| टिकट कैंसल का चार्ज वैसे ही दिन दुगना बढ़ता गया| तत्काल का चार्ज अब दुगना हो चला है| इसके बाद भी पेट नही भरता| इसके बाद भी कोई टिकट चाहे तो मिलता नहीं है| क्युकी इसके विकास के लिए आज तक कोई ख़ास कदम नहीं उठाया गया है|
इतना यात्रियों को कॉम्प्रेस करने के बाद भी सिर्फ 57% रिकवर होना ख़राब व्यवस्था, संभावित भ्रष्टाचार और जरूरी तकनिकी विकास का लागू न कर पाने का परिणाम है| होता क्या है कि सरकार किसी की भी हो| सब के सब कुछ ऐसे नमूनें पेश करके अपनी उपलब्धता गिनवाने लगते है| नमूने जैसे ‘दिल्ली से आगरा जाने के लिए अब तक की सबसे तेज रफ़्तार की ट्रेन लांच की गई है’ टाइप का ब्रेकिंग न्यूज़| या फिर ट्रेन में एंटरटेनमेंट सिस्टम या फिर कुछ एक गिने चुने ट्रेन बना दो जिसका इंटीरियर फोटो खिचने लायक हो जाए| बाद बाक़ी मूर्खों की जमात मुफ्त में शेयर करने के लिए बैठी तो है ही| इससे लोग भावुक होते जाते है और मुख्य चिंता दूर होती चली जाती है| आज के समय में जैसे हल्ला हो रहा है कि बस बुलेट ट्रेन आने ही वाली है| एक एक्सिस्टिंग सिस्टम है जिसकी पहुँच काफी गहरा है उसे दुदृस्त करने के बजाए दो चार लोगों को पहुचाने के लिए चमक-धमक, दिखावा और आम जनता के साथ छलावा के अलावां और कुछ नहीं है| यह एक आकर्षण है जिसके आधार पर वोटों की चोरी की जाती है|
चुकी नेताओं को अपनी कोई चिंता है ही नहीं उन्होंने अपने लिए तो VIP कोटा टाइप चीजों का इंतजाम करके रखा हुआ है| बाक़ी का तुम सोच लो| तुम्हारा 3 महीने पहले की गई टिकट कन्फर्म नहीं होगा लेकिन उसका आज वाला कल हो जाएगा| इसके अलावां भावुक करने के लिए बचियों के साथ रेप की घटनाओं को भी नहीं छोड़ा जाता चाहे सरकार किसी की हो| 2014 के इलेक्शन को मैंने अपने होश में देखा है| जहाँ चुनावी रैलियों में यह कहा जाता था कि वोट देते हुए निर्भया को याद करना और कमल पर वोट दबाना| यही चीज जब विपक्ष कर रहा है तो गन्दी राजनीती का हवाला देकर अपने आप को अलग करने की कोशिश करते है| हालाँकि दोनों दलें गलत है| लेकिन क्या ही कह सकते है यही ट्रेंड है| ऐसी घटनाओं में आम जन का सरोकार दूर दूर तक नहीं दीखता है| ऐसी घटनाएं एक पाप है जो मजहब, भाषा, रंग-रूप और क्षेत्र से कोई संबंध नहीं रखती| वो बात अलग है कि दोषी बचने के लिए कभी मजहब का आड़ लेता है तो कभी विरोधी उसी मजहब की आड़ लेकर असल मुद्दे को ख़त्म कर देता है|
तीसरे केस स्टडी में धर्म और राष्ट्र को ले सकते है| जैसा कि हमने देखा कि बाबाओं को मध्यप्रदेश में मंत्रालय दी गई जिसे मंत्रालय के ‘म’ का भी ज्ञान नही है| धार्मिक पोथी-पात्राओ का रट्टा लगाना और एक एग्जीक्यूटिव बन सरकार चलाना बहुत अलग है| यह सब आकर्षण है जिससे बहुसंख्यक हिन्दू लोगों को मुर्ख बनाया जा सके जिससे उन्हें यह लगे कि यह सरकार हिन्दुओं के विकास का काम कर रही है| भले हिन्दू किसान कर्ज में डूबकर फांसी लगा या फिर भूखा मर जाए| लेकिन ब्रांडिंग उसकी होनी चाहिए जो एक बड़े प्लेटफार्म पर हिंदूवादी लगे और वोटों को आकर्षित कर सके| हालाँकि यह एक मृगतृष्णा मात्र ही है| इसके अलावां राष्ट्र के नाम पर अक्सर लोगों को भावुक किया जाता है| उदा. के रूप में सर्जिकल स्ट्राइक जैसे चीजें रूटीन होती है लेकिन उसे ब्रांडिंग की जाती है ताकी लोगों में अपने पडोसी पाकिस्तान के प्रति जो गुस्सा है उसका फायदा उठाया जा सके| यही स्ट्राइक म्यांमार में भी हुई थी लेकिन क्या उस घटना के बारे में किसी को पता है? बल्कि म्यांमार वाला और भी ज्यादा बहादुरी भरा और स्ट्रेटेजिक था| लेकिन ब्रांडिंग उसी की हुई जिससे राजनितिक फायदा हो सके|
चौथे केस स्टडी में देश के बाबाओं, मौलवियों और पादरियों का ढोंग है जो लोगों को भावुक बनाकर अपने सत्ता का परिचय देने की कोशिश करते है| हालांकी कभी कभी इसका संबंध राजनितिक सत्ता से भी पाया गया है| ऐसे कई उदाहरण देखने को मिले है जिसमें राजनितिक दल उनके भीड़ के वोट को अपने पक्ष में के लिए धार्मिक गुरुओं को अपने विश्वास में लेते है| इसके आवाज में बाबाओं को राजनितिक संवर्धन मिलता है जिससे कि घिनौनी से घिनौनी हरकते करना शुरू कर देते है| इससे भी लोगों की वास्तविक चिंता दूर रह जाती है| हमारी वास्तविक चिंता है कि हमें और आने वाली पीढ़ियों को अच्छी शिक्षा मिल जाए, अच्छी स्वास्थ्य के लिए प्रबंधन किया जा सके ताकी लोग स्वस्थ्य रहे, किसान खेतों में अन्न उपजा रहा है उसे वाजिब कीमत मिल जाए जिससे वो अपना घर अच्छे से चला पाए, पलायन करके गए लोगों को सुरक्षा मिले और यातायात ऐसी हो कि अपने परिवार से कभी मिल सके, गरीब मजदूरों को समय पर और उचित वेतन मिलता रहे|
वास्तविक चिंताओं का निवारण न हो पाने के पीछे ना सिर्फ एस्टाब्लिश्मेंट जिम्मेदार है बल्कि हम भी बराबरी का भागिदार है जो कि भावुक हो जातें है| हम कभी भी अपनी चिंताओं को उस स्तर पर नहीं उठा पाते है| देश में सिर्फ बाइनरी है एस्टाब्लिश्मेंट बनाम देश की जनता| सिविल सोसाइटी नाम की कोई चीज ही नहीं है| फेसबुक जैसे सोशल नेटवर्क का बड़े स्तर पर हो रहे उभार को देखकर मुझे प्रतीत होता था कि फेसबुक देश में एक बड़े सिविल सोसाइटी को जन्म देगा| एक कॉल तैयार करेगा जिसमें लोग अपनी हक़ को लेकर सत्ता की मुखालफत करेंगे| लेकिन समय के साथ मुझे यह एहसास होता गया कि मै गलत अनुमान लगा रहा था| यहाँ भी लोग धर्म और जातियों के रंग से रंग गए और अपनी वास्तविक न सिर्फ दूर होते गए बल्कि राजनितिक दलों के मुफ्त वाले सहयोगी भी बन गए| यह भावुक प्रवृती स्वस्थ्य लोकतंत्र के लिए सही नही है|
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