म्यांमार में ‘मुस्लिम’ बनाम ‘बौध’ की लड़ाई में भारत का हस्तक्षेप बेहद जरूरी

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अभी दो दिन पहले मैंने रोहिंग्या मुस्लिम की समस्याओं को लेकर एक छोटा सा लेख लिखा था| मुझे बहुत अच्छा लगता है जब मेरा किसी वैचारिक असहमति का सामना होता है| मुझे थोड़े थ्रस्ट मिले जरूर थे लेकिन मैंने यह समझा कि शायद अपनी पूरी बात नहीं कह पा रहा हूँ| उसी लेख पर अपनी पूरी बातें कहूँगा| सबसे पहले हमें यह जानना होगा कि म्यांमार किस प्रकार का देश है| यह मुख्य रूप से बौध धर्म मानने वाले लोगों का देश है| कानूनन यह देश किसी खास धर्म का नहीं है| लेकिन वही मानवीय अहंकार बहुसख्यक होने के नाते अपनी दावेदारी पेश करने में बिल्कुल पीछा नहीं हटता| इसे बौध धर्म मानने वाले लोगो की प्राथमिकता दी जाती है ठीक वैसे जैसे पकिस्तान या बांग्लादेश में इस्लाम मानने वाले लोगों की दी जाती है| म्यांमार में मुस्लिम अल्पसख्यक में है जो वहां के रखाइन क्षेत्र में बसे है| यह रखाइन क्षेत्र बांग्लादेश के उस हिस्से से जुड़ा है जहाँ चकमा आदिवासी रहते है जिसे CHT(चित्तगोंग हिल ट्रैक्ट) के नाम से कहा जाता है| वैसे CHT में और भी एथिनिक ग्रुप्स है जिन्हें जुम्मा कहा जाता है लेकिन उसमे चकमा सबसे ज्यादा है|

यह चकमा समूह उसी समस्याओं का सामना सदियों से बांग्लादेश में कर रहा है जिसका सामना रोहिंग्या मुस्लिम म्यांमार में कर रहे है| यहाँ लड़ाई मुस्लिम बनाम बौध है| यह चकमा लोग बौध धर्म के मानने वाले लोग है जो बांग्लादेश में अल्पसंख्यक के रूप में रहते है| इन चकमा समुदाय का शोषण मुस्लिम समुदाय द्वारा वैसे ही होता रहा है जैसे रोहिंग्या मुस्लिम का शोषण बौद्धिस्टों द्वारा म्यांमार में किया जा रहा है| गौर करने वाली बात यह है कि दोनों ही सूरत में भारत प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होता ही है| यही कारण है कि भारत हमेशा इनके बीच सैंडविच बनता रहा है| अहिंसक बौध धर्म का यह दूसरा रूप है| खैर इसपर बातें नहीं करूँगा| मै उस बात पर गौर फरमाना चाहूँगा कि दिक्कत कहाँ है? क्या भारत को इसमें दखल देना चाहिए? ऐतिहासिक तजुर्बे से हमें क्या सिखने को मिलता है? हमारी डिप्लोमेसी का क्या योगदान हो सकता है? आदि जैसे सवालों का जवाब तर्क के साथ ढूंढते है|

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सबसे पहले सवाल यही है कि यह समस्या क्या है? म्यांमार का नागरिक कानून 1982 के तहत रोहिंग्या मुस्लिम को नागरिकता नहीं दी गई है| जब किसी भी समुदाय के पास नागरिकता ही नहीं होगी तो वह स्टेटलेस हो जाता है| इसकी वजह से सरकार के तरफ से कोई भी ना तो सुविधा मिल पाती है और नाही उनका विकास हो पाता है| म्यांमार के हुक्मरानों का यह मानना है कि वे मुख्य रूप से अवैध बांग्लादेशी प्रवासी हैं जो औपनिवेशिक शासन के दौरान लाए गए थे| अगर इतिहास के आधार पर डेमोग्राफी का पुनर्निर्माण करने की बात अगर की जाती है तो मै यह कह सकता हूँ कि विश्व युद्ध का यह अलग आयाम गढ़ेगा| क्युकी हर सदी में डेमोग्राफी हर जगह की बहुत बदली है| हिंदुस्तान में मुसलमान भी मुगलों के बाद ही आए थे| इस थ्योरी के हिसाब से तो हिंदुस्तान में भी यही होनी चाहिए? लेकिन यह गलत है| तब की और अबकी नीतियां बहुत बदली है|

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गलतियाँ रोहिंग्या मुस्लिम की तरफ से भी हुई है| रोहिंग्या मुस्लिम के चरमपंथी समूह ने हिंसा का सहारा लिया और म्यांमार के बॉर्डर सुरक्षा के पोस्ट हम हमला किया था| इसके जवाब में मिलिट्री ने इनका सामना किया जिसमे बहुत ज्यादा हिंसा हुई| परिणाम यह हुआ कि वहां से लोग भाग के बांग्लादेश और कुछ भारत में दखल हुए| रोहिंग्या मुस्लिम ने एक और बड़ी गलती यह की कि म्यांमार में चल रहे एथिनिक संघर्ष का बदला लेने के लिए भारत के बोधगया में ब्लास्ट करवाया| ऐसा इसलिए किया क्युकी बिहार में स्तिथि बौधगया बौध धर्म का उद्गम स्थल है| यह भी सत्य है कि जितनी भावनाएं और मीडिया कवरेज रोहिंग्या मुस्लिम को मिली उतनी बांग्लादेश में स्तिथ चकमा को कभी नहीं मिली है| भारत ने भी स्लीक्टिव तरीके से हस्तक्षेप किया| जब बात चकमा जाती की आई तो पूरा हस्तक्षेप किया, सिटीजनशिप कानूनों में बदलाव तक किया और उन्हें मिजोरम, असम और अरुणाचल प्रदेश में शरण दिया| लेकिन जब बात रोहिंग्या मुस्लिम की आई तो इसके समर्थित लोगों ने डेमोग्राफी का हवाला देते हुए उन्हें ना स्वीकारने की सलाह दे रहे है|

उनके कुछ तर्क कुछ हद तक ठीक है कि इससे भारत पर बुरा असर पड़ सकता है| पहली बात सुरक्षा की चिंताएं बढ़ सकती है| क्युकी बदला लेने के लिए उनके धार्मिक स्थल निशाना का केंद्र बन सकता है| दूसरी बात आर्थिक भार की है| तीसरी बात म्यांमार से हमारे संबंध से जुडी है| अगर उनका साथ दे तो शायद हमारी संबध बढ़िया रहेगा| मुझे लगता है यह शोर्ट टर्म गोल है| मुझे लगता है कि दक्षिण एशिया में सबसे बड़ा देश होने के नाते हमें सकारात्मक तरीके से हस्तक्षेप करनी चाहिए| लेकिन एक शर्त यह भी है कि वैसे बिल्कुल नहीं जैसे अमेरिका करता रहा है| इसलिए मुझे लगता है कि उन्हें तात्कालिक राहत देकर एक लॉन्ग टर्म हल ढूँढना बहुत जरूरी है| यह हमारे लिए दो वजहों से बहुत जरूरी है| पहली हम अपनी लीडरशिप कैपबिलिटी पूरी दुनिया के सामने रख सकते है| दूसरी वजह यह है कि म्यांमार और बाग्लादेश दोनों भारत के पडोसी मुल्क है| पड़ोसी देश के भीतर शांति बेहद जरूरी हिस्सा हो जाता है|

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ऐसा इसलिए है क्युकी कोई भी देश तब तक समृद्ध नहीं हो सकता जब तक उसके पडोसी खुशहाल न हो| उदाहरण के लिए मान लीजिए कि अमेरिका को हमसे लड़ना है तो क्या हमारे आस-पास बिना बेस बनाए लड़ सकता है? बिल्कुल नहीं| लेकिन अगर हमारे पड़ोस से रिश्ते ख़राब रहे तो जरूर वहाँ बेस बनाकर हमें निशाना बना सकता है| लॉन्ग टर्म में हमें हस्तक्षेप करके इसका हल इसलिए भी ढूंढना है क्युकी इस बात का डर है कि कहीं म्यांमार, चाइना की सॉफ्ट औपनिवेशवाद का हिस्सा न बन जाए| हिन्द महासागर में अगर देखे तो जितने भी पडोसी मुल्क है वहाँ अपना प्रभाव बनाया हुआ है| पाकिस्तान के ग्वादर पोर्ट से लेकर श्रीलंका के हम्बनटोटा होते हुए बांग्लादेश के चितागोंग पोर्ट पर अपनी फाइनेंस की हुई है| अभी वह व्यापारिक गतिविधियों के लिए उपयोग कर रहा है और समय आने पर लड़ाई के लिए भी कर सकता है| भारत के ऊपर बाकी का भूभाग वाले हिस्से पर भी प्रभाव दिखाना शुरू कर दिया है| जबरन विवादित हिस्से से CPEC की स्ट्रेटेजी उसका उदहारण मात्र है|

इसलिए कहीं ऐसा न हो कि म्यांमार में जिस लैंड रूट की सपना देख रहे है वो हमारे साथ से निकल कहीं पाकिस्तान न बन जाए| इसलिए म्यांमार भारत के लिए बेहद जरूरी मुद्दा है जहाँ भारत को हस्तक्षेप करनी ही चाहिए| ठीक वैसे ही जैसे इंदिरा गाँधी ने बांग्लादेश बनने के समय किया था| तात्कालिक शरण देकर उनके लिए हल ढूंढा और उन्हें स्थिर किया| मुझे लगता है कि अगर श्रीमती इंदिरा गाँधी ने अगर साहसिक कदम नहीं उठाया होता तो शायद भारत का खतरा और भी बड़ा होता| एक मुल्क और उसके दो-दो फ्रंट से हमें सामना करना होता| हमने अभी साल–दो साल पहले ही सीमा विवाद का समस्या बेहद आसानी से सुलझा दिया और किसी को पता भी नहीं चला| बाग्लादेश सीमा समस्या से 20 साल पुरानी सीमा समस्या पाकिस्तान से है जिसका हल आज तक नहीं निकल पाया| लॉन्ग टर्म में देखे तो इंदिरा गाँधी ने आने वाले भावी पीढ़ी के खतरों को बहुत कम किया है| नहीं तो आज तक बांग्लादेश सीमा विवाद सुलझ नहीं पाया होता|

जब भी डिप्लोमेटिक तरीके से हस्तक्षेप भी बातें होती है तो सामने दो उदहारण नेपाल और श्रीलंका का रखा जाता है| मेरा यह मानना है कि दोनों ही पड़ोसी देशों में हस्तक्षेप करना बहुत जरूरी था| ऐसा इसलिए क्युकी नेपाल और श्रीलंका दोनों देशों में हुए विवाद से भारत प्रभावित था| वो बात अलग है कि डिप्लोमेटिक स्तर पर हमसे कुछ भूलचूक हुई है| सबसे पहले श्रीलंका को लेते है| हमने प्रभाकरन को प्रशिक्षित किया| उसे भारत के सैन्य प्रशिक्षण केंद्र से भी मदद दी गई थी| हथियार से लेकर पैसे तक सब तरह से हमने मदद की| ठीक इसके कुछ दिन बाद श्रीलंका सरकार से हम ‘पीस एकॉर्ड’ साइन करते है और IPKF(इंडियन पीस कीपिंग फ़ोर्स) भेज देते है कि जाकर प्रभाकरन को ख़त्म करे| राजीव गाँधी की हत्या का यह मुख्य कारण था| जिसे हमने प्रशिक्षित किया उसे मारने के लिए हमने सेना भेजा| कोई भी निर्णय एक ही होनी चाहिए थी| यहाँ हम गलती कर बैठे थे यह बात इतिहासकार भी मानते है| जिसका इम्पैक्ट इतना बुरा हुआ कि हमें अपने प्रधानमत्री गवाना पड़ा|

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इसके बाद बात आती है नेपाल की| नेपाल के मधेशी लोगों का भारत से सांस्कृतिक जुडाव है| यहाँ शादियाँ करते है, काम करते है, यहाँ तक कि ‘गोरखा रेजिमेंट’ में हमारे सैनिक के रूप में भी जुड़े हुए है| भारत और नेपाल का रिश्ता हमेशा से बेहतर रहा है| वहाँ दिक्कत यह हुई कि संविधान सभा में लेफ्ट की जीत हुई और उसने अपने अनुसार संविधान सभा का रुपरेखा तैयार किया| इसमें मधेशी लोगों के अधिकारों के साथ छेड़-छाड़ हुई यह भी सत्य है| लेकिन हमने कौन सा डिप्लोमेटिक तरीका अपनाया? हमने निर्यात बंद कर दिया| तेल से लेकर बहुत सारें सामान हम नेपाल को निर्यात करते रहे है| हुआ क्या? आक्रोश इतना बढ़ा कि चाइना इस आक्रोश का फायदा उठा गया और एक विचारधारा होने की वजह से चाइना की तरफ मुडाव दिखने लगा था| हमने करना यही था कि तराई क्षेत्र में रह रहे मधेशी लोगों को सशक्त करना चाहिए थे जिससे वो सत्ता हासिल करे और सकारात्मक बदलाव करे| ठीक वैसे ही जैसे हमने पूर्वी पाकिस्तान में वहाँ के लोगों को अपने हक़ मांगने के लिए तैयार किया था| अंतर सिर्फ इतना होगा कि यहाँ राजनितिक रूप से तैयार करना था|

हस्तक्षेप करने का मतलब सिर्फ अमेरिका वाला तरीका नहीं होता है| और भी कई तरीके है| जैसे दलाई लामा के लीडरशिप में बुद्धिस्ट कांफ्रेंस का आयोजन करके सॉफ्ट तरीके से इनके मुद्दों को केंद्र में लाया जा सकता है| ASEAN और BIMSTEC जैसी जितनी भी लोकल फोरम है वहाँ उनकी बातों को रखकर दक्षिण एशिया में शांति स्थापित की जा सकती है| इसलिए मुझे लगता है कि भारत को तात्कालिक राहत देकर उसमे हस्तक्षेप करना बेहद जरूरी है|

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