अशांत समाज का कारण जातिवादी टकराव

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आजादी के बाद से जातीवाद थी तो सही लेकिन ऐसे राजनितिक रूप में कतई नहीं थी। तब सवाल यह उठता है कि आखिर यह मोड़ कब आया ? बात 1975 की है जब इंदिरा गांधी अपनी भयावह अवतार में थी। इंदिरा गांधी को हार बिल्कुल पसंद नहीं था। उससे चार साल पहले यानी 1971 में चुनाव हुआ था। राजनारायण उनके खिलाफ चुनाव लड़े थे लेकिन उन्हें लगा कि इसमें गडबड़ी हुई थी उन्होंने कोर्ट में केस किया। इलाहबाद हाइकोर्ट ने फैसला राजनारायण के पक्ष में सुना दिया। इन सब से घबराकर इंदिरा गांधी सत्ता और कांग्रेस के मजबूती ख़त्म हो जाने से डरती थी। सबको कण्ट्रोल करने के लिए उन्होंने इमरजेंसी लगाया। इसी समय इंदिरा गांधी और कांग्रेस के तानाशाह के खिलाफ नौजवान लामबंद हुए जिसका नेतृत्व जयप्रकाश नारायण जी ने किया। यहाँ तक तो सब सही था। नौजवानों को लामबंद होना लोकतंत्र के स्वाथ्य के लिए लाभकारी होता है।

एक जबरजस्त आंदोलन हुआ। उम्मीद यह लगाई जाती थी कि देश की दिशा यहां से बदल सकती है। दो साल बाद 1977 में चुनाव हुआ और इंदिरा गांधी मुंह के बल गिरी। उसी राजनारायण ने उन्हें हरा दिया। जनता पार्टी की नई और गैरकांग्रेसी पहली सरकार बनी। लेकिन सरकार बनने के बाद जो कुर्सी की बंदरबांट हुई कि नौजवानों में असंतोष पैदा कर दिया। जो नौजवान लामबंद हुए थे वो दो धड़ों में बट गए। पहला धड़ चल पड़ा बाबरी मस्जिद विध्वंस और राम मंदिर निर्माण के लिए। दूसरा धड़ चल पड़ा विश्वनाथ प्रताप सिंह के मंडल कांसेप्ट की तरफ। एही से जो युवा बटें कि दोबारा कभी लामबंद नही हो पाए। वहीं से शुरुआत हुई नौजवानों को काठ के घोडा बनने की प्रक्रिया। इसका प्रतिबिम्ब आज भी दिख रहा है। एक मेटाफर उपयोग किया जाता है कि ताली कभी एक हाथ से नहीं बज सकती। यह सत्य भी है। गलतियां दोनों तरफ से हुई है।

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सबसे बड़ी गलती उच्च वर्ग की यह है कि उन्हें (दलितों) आज भी अपने बराबर आंकने में हिचकिचाता है। उसे हमेशा आरक्षण के टुकड़े पर पलने वाले के रूप में देखा है। यह काम वही नौजवान करते रहे है जिन्हें राजनितिक रूप से उपयोग किया गया है। बचपन से उसके दिमाग में एक बात घुसेड़ दी जाती है कि उसके नौकरी न लगने के पीछे यही आरक्षण कारन है। उसमें नफरत फैला दी जाती है। बच्चा जो अपनी क्षमता की वजह से असफल होता है वो अपनी गलती के मूल्यांकन करने के बजाए इसे मुख्य कारण मान बैठता है।

उस नौजवान जिसमे नफरत कूट कूट कर भरी होती है उसे यह नहीं पता होता है कि आरक्षण गरीबी उन्मूलयन नीति नहीं है बल्कि एक भागीदारी है। पूना पैक्ट में जब आरक्षण का रूप दिया जा रहा था तो इसका लक्ष्य यह कतई नहीं था कि दलितों को नौकरी दी जाए। वो लोग एक जातिविहीन मुल्क का सपना पिरो रहे थे। लेकिन दुर्भाग्यवश यह एक राजनितिक टूल मात्र बनकर रह गया जिसकी कल्पना डॉ आंबेडकर भी नहीं करते थे।

मैं भागीदारी शब्द को थोड़ा और एक्सपैंड करना चाहूंगा। दलितों की समस्या का रिप्रजेंटेशन उच्च वर्ग नही कर सकता। ठीक वैसे ही जैसे औरतों के मुद्दों को पुरुष रिप्रेजेंट नहीं कर सकता। बहुत सारी स्वाथ्य से सम्बंधित समस्याएं होगी जिसे वो पुरुष से कभी साझा नही कर पाती है। ऐसे मुद्दों को उठाने के लिए उनके बीच का एक प्रतिनिधि होना चाहिए जो उनकी बातों पर गौर फ़रमा सके।

भागीदारी का दूसरा मतलब यह कि कल गए कोई यह दावा न करे कि समाज के विकास में उनका कोई योगदान नहीं रहा। यह समाज और देश सबका है किसी खास जाती की बपौती नहीं है। चुकी आज यह हमेशा लोग पूछते है एक दूसरे से कि तुम्हारे पूर्वजों ने क्या किया देश की आजादी के लिए। आने वाली भावी पीढ़ियों को कभी ऐसे प्रश्न का सामना न करना पड़े जिनका वो उत्तर नहीं दे सकते, उनकी भागीदारी महत्वपूर्ण हो जाती है।

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उनके तरफ से सबसे बड़ी गलती यह हुई कि उन्होंने डॉ भीम राव आंबेडकर को अंतिम सत्य मान लिया। जो कह गए उसी पर आज भी डिबेट होता है। जबकि समय का अंतर लगभग 100 साल होने को है। कभी अपना दिमाग नहीं लगाया। जो कह गए उसे कोरा सच मान आज भी रोना रोते है। सबसे बड़ी गलत बात उनकी यह लगी थी कि वो दलितों को एक होने की बात करते थे। मैं इस बात से सौ प्रतिशत असहमत हूँ।

अगर उनकी बात सही है तो आप ये बताईये कि यही बात जब उच्च वर्ग का कोई एक होने की बातें करता है तो वो जातिवादी और दलित समाज का यही बात करने वाला संघर्षशील कैसे हो सकता है? मापदण्ड सबके के लिए एक होनी चाहिए। दूसरी बात डॉ आंबेडकर हिन्दू धर्म को खूब कोसते थे तो आज भी उनके समर्थक कोसते है। वो मूल्यांकन करके बिल्कुल नहीं कोसते, बल्कि इसलिए कोसते है कि बाबा साहेब ने कोसा था। यह बिल्कुल गलत बात है।

मुझे लगता है दलित लोगों को अब अपना रोड मैप खुद तैयार करना चाहिए। क्योंकि तब के समय में और अब के समय में बहुत अंतर है। समाज बदला है। हिन्दू धर्म कुरीतियों से अपना पीछा छुड़ाया है जिस पर डॉ आंबेडकर अपनी असहमतियां व्यक्त करते थे। पहले बहुत सारी कुरीतियां थी जिससे हिन्दू समाज आजाद हुआ है चाहे बात सती प्रथा की हो या फिर पॉलीगामी की हो, छुआछूत से लेकर मंदिर प्रवेश तक की बात हो, बहुत कुछ बदला है। इसके बावजूद भी उन्हीं कारणों पर आज भी तीखी आलोचना करना और धर्म छोड़ने की धमकियाँ देना बहुत गलत बात है।

आपको जो धर्म अच्छा लगे शौख से जाइए लेकिन ड्रामा और फसाद तो बिल्कुल नहीं कीजिए। जिस तरह की आर्मी खड़ी की जा रही है वो समाज में अशांति फैलाने का काम करेगी। मुझे एक बात समझ नहीं आई कि ये दलित-मुस्लिम आर्मी बनाने के पीछे सिद्धान्त क्या है? हिन्दू धर्म से नफरत या फिर मुस्लिम धर्म से मोहब्बत? हिन्दू धर्म से नफरत के पीछे यही कारण है न कि बाबासाहेब ने इसके कुरीतियों का विरोध किया था। बाबा साहेब ने तो मुस्लिम समाज के कुरीतियों का भी विरोध किया था फिर उसका क्या?

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दिक्कत बाबासाहेब में नहीं थी जितनी कि आज उनके फॉलो करने वालों में है। वो उस समय के हिसाब से प्रगतिशील व्यक्ति थे लेकिन आज फॉलो करने वाले आज भी वही चक्कर लगाते है। यही दिक्कत मुस्लिम समाज के कुछ नेताओं में है। सत्य तो यह है कि उन्होंने इन दोनों वर्गों मुस्लिम और दलितों का नेतृत्व तो किया लेकिन इनके लिए कुछ किया ही नहीं। संगठन, समूह और आर्मी जैसी चीजें बाइनरी डिस्कोर्स तैयार करेगा जो ना सिर्फ समाज बल्कि राष्ट्र के लिए भी घातक होगा।

जिस किसी भी समाज को या व्यक्ति को विकास करना है तो उसे आज के हिसाब से सोचना पड़ेगा। मैं भी एक हिन्दू धर्म के राजपूत परिवार से सम्बन्ध रखता हूँ लेकिन बकैती के लिए कोई जगह नहीं है। जो चीजें मुझे धर्म में ढोंग लगता है सिरे से खारिज करता हूँ। मैं वर्तमान की चुनौतियों से सामना करना चाहता हूँ। इसलिए ना तो कोई धार्मिक नेता मेरा पोस्टर बॉय है और नहीं जाती का कोई ऐतिहासिक तानाशाही राजा। मैं अपने जीवन का खुद पोस्टर बॉय हूँ।

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