चरखा से ज्यादा कपास को इज्जत देना ज्यादा जरूरी

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आजकल नेताओं में फोटो के लिए, चरखा से सूत कातकर महात्मा गाँधी बनने का नया शौख जग आया है| मुझे ख़ुशी तब होती जब उनके गुणों को भी अपना लेते| खैर यह भारतीय राजनीती का पैटर्न रहा है जिसमे पूर्वजों को अपने-अपने पक्ष में करने की होड़ लगी रहती है| यह कोई नई बात नहीं है| महात्मा गाँधी का मानना था कि खादी ना सिर्फ वस्त्र है बल्कि एक विचार है| आज स्तिथि यह है कि विचार तो छोड़िए वस्त्र भी नहीं रहा| भारत की राजधानी, दिल्ली का खादी भवन आज संग्रहालय बनने की ओर है| हो सकता है हमारे पूर्वजों की यह ताकत आने वाले समय में इतिहास के पन्नो में भी शायद देखने को न मिले|

हो सकता है कि ये सब पढने के बाद विकसित लोगों को लगे कि मेरी सोच आज भीं विकास की बातें नहीं करती| जबकी ऐसा नहीं है| स्वयं महात्मा गाँधी ने स्पष्ट किया था कि भारत के विकास का चरखा कोई अचर लक्षण नहीं है, जो हमेशा मौजूद रहेगा। वे मशीनों व प्रौद्योगिकी के एक नए ढांचे को अपनाने के लिए भी तैयार थे, जो खादी और चरखे के साथ जुड़े आदर्शों, अहिंसक, अशोषणकारी और सामंजस्यपूर्ण आर्थिक विकास को बढ़ावा दे सके|

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हो सकता है कि आज के नेता चरखे के सामने फोटो खिचवाकर वोटों का ध्रुवीकरण करने में सफल हो जाए लेकिन महात्मा गाँधी के विचारों से अपने आप को ओझल भी नहीं कर पाएंगे| यह चरखा तब अच्छा लगता जब कपास और सूत की भी उतनी ही इज्जत करते| साठ के अंतिम वर्ष में नक्सलवाद का सिर्फ एक जिला था आज एक तिहाई से ज्यादा जिला इसके चपेट में जिसे सरकारी भाषा में ‘रेड कॉरिडोर’ कहते है| आज के बाजारवाद के दौर में युवा अपनी आस्था खोते जा रहे है| किसान आत्महत्या कर रहे है| आज के समय में गाँधी और उनका चरखा तब और प्रासंगिक दिखेगा जब मुनाफे के बजाए समाज को सर्वोपरि रखा जाएगा|

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जबकी ऐसा होता नहीं है| आज खादी का यह सोच खतरे में है क्युकी बाजारवाद की प्रवृति ही ऐसी रही है| पहले सपने दिखाता है फिर भोगी बनाता है और बाद में नशाखोर बनाकर शोषण करता है| एक समय था जब भारत पुरे विश्व का सूती कपड़ों का केंद्र हुआ करता था| अंग्रेजों ने इसका पूरा फायदा उठाया और खूब लूटा| और आज की स्तिथि यह है कि हम खुद लुटवाने के लिए सामने जाते है| औपनिवेशवाद और वैश्वीकरण में यही मौलिक अंतर है| औपनिवेशवाद में वो हमें जबरजस्ती लुटते थे और बाजारवाद वाली वैश्वीकरण के युग में हम खुद सामने जाकर लुटवाते है|

अक्सर सरकारी डाटा में दिखाया जाता है कि प्राथमिक क्रियाओं से उतना अर्थव्यवस्था को लाभ नहीं पहुचता जितना की सेवाओं से| आखिर क्यों नहीं पहुचेगा? राज्यसभा टीवी के मेहनतकश पत्रकार अरविन्द कुमार की रिपोर्ट जो बयाँ कर रही है वो वाकई चौकाने वाली है| कपास उगाने वाले मजदूरों की हालात हमसे छुपी नहीं है| लागत ज्यादा और मुनाफा कम के परिणामस्वरुप तंग किसान किसी उम्मीद की ओर देखता है तो उसे सिर्फ धोखा मिलता है| बाजारवाद उन किसानों को उत्पादकता बढ़ाने की लालच देकर फैक्ट्री निर्मित उर्वरकता की ओर रुख करने का सलाह देता है|

साल दो साल तक शायद कुछ उत्पादकता बढ़ जाए लेकिन आने वाले समय में मिटटी की उर्वरकता ख़त्म देती है जो किसानों को विस्कस सर्किल में फसने को मजबूर कर देती है| हर क्षेत्र की तरह मिडिल मैन जो सेवा क्षेत्र के एजेंट होते है और बड़े मुनाफे कमाते है जिसे बाद में उस क्षेत्र का विकास मॉडल बनाकर प्रचारित किया जाता है| सत्य यह भी है कि कुछ जो ओरिजिनल उर्वरक होते है जिसे वैज्ञानिक शोध करके उपयोग करने के लिए आवाहन करते है, उससे किसान अछूते रह जाते है| ऐसा इसलिए क्युकी किसान के पास तकनिकी सलाहकार नहीं है जो इन सभी बातों को बताए| उनका सलाहकार बाजार में बैठा दुकानदार ही है जो उस दवाइयों को रेकॉम्मेंड करता जिसपर उसे ज्यादा मुनाफा मिलता है|

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