अपने पहचान को तरसते गुजरात के भील आदिवासी

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जमीनी स्तर पर एक अनोखे ढंग से काम करने वाले पत्रकार है श्याम सुंदर जी| समय की कमी कहिए या फिर चमकने वाले पत्रकारों से मन उबना कहिए, पिछले साल भर से मै किसी का प्राइम टाइम नहीं देखता| श्याम सुंदर जी ने भारत के विलुप्त होते आदिवासियों पर बढ़िया सीरीज ‘मै भी भारत’ तईयार कर रहे है| इनके कार्यक्रम की खासियत यह है बिना तामझाम और शोर-सराबा से अपनी बात हम तक पहुचाते है| मै हमेशा देखता हु| उन्होंने झारखण्ड, अंडमान, छत्तीसगढ़, असम से होते हुए गुजरात के आदिवासी इलाको तक अभी पहुच चुके है|

सबसे ताजा वाले अंक में उन्होंने गुजरात के ‘भील आदिवासी’ के बारे में अवगत कराने में मदद की| इसमें सबसे इंटरेस्टिंग बात मुझे यह लगी कि जब वो उन इलाकों में विश्व आदिवासी दिवस (९ अगस्त) पर पहुचे तो वहाँ के लोग सहम गए| वहाँ के लोगो को लगा कि फिर कोई सरकारी बाबु यहाँ आया है बांध बनाने खातिर जमींन की मपाई के लिए| लेकिन जब अपनी पूरी बात बताई तब वहाँ के लोगों के जान में जान आई| उनका साधारण सा तर्क यह था कि जब तक सरकारी अधिकारी को काम न हो तो भला सरकारी अधिकारी कष्ट उठाकर यहाँ क्यों आएगा|

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सिचाई के भारी कमी की वजह से साल भर में वहा एक ही फसल हो पाता है| नर्मदा की पानी से उन्हें आज भी वंचित होना पड़ता है| सिचाई के लिए पहाड़ी इलाकों के लिए ड्रिप इरीगेशन की सुविधा तो है लेकिन उनकी पहुच नहीं है| श्याम सुंदर जी ने जब वहाँ के एक आदिवासी से पूछा कि बाकी के समय क्या करते है? जवाब मिलता है ‘काम करने गुजरात चले जाते है’| बस यही लाइन है जिसने मुझे इस शिर्षक पर लिखने को उत्तेजित किया|

गुजरात के अन्दर ही एक दुसरे गुजरात को ढूंढ रहे इन आदिवासियों को ना तो अब तक वाजिब पहचान नसीब हो पाई है और नाही मान-सम्मान| इनके लिए ऐसी सड़के है जिसपर श्याम सुंदर जी की टीम की गाड़ी नहीं चल पाई| इतिहास लिखने वालों ने भी इनके साथ नाइंसाफी की है| आजादी की लड़ाई में इनका भी बहुत बड़ा योगदान रहा है| एकसाथ हजारों आदिवासियों ने इस देश के लिए शहादत दिया है बस इस उम्मीद में की आजाद भारत में उन्हें सही पहचान मिल सके| अंग्रेजो द्वारा मानगढ़ की पहाड़ियों से चलाए गए तोपों को भी इन आदिवासियों ने झेला है| लेकिन इनकी पुकार सुनने वाला है कौन?

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इन आदिवासियों की अपनी नृत्य शैली है| इनका मशहूर नृत्य है झूमर| गैर इनका पारंपरिक ड्रामा है जिसे उनके समाज में काफी इज्जत दी जाती है| अपने तीज-त्यौहार को अपने तरह से मनाया करते है| उनके आम भाषा में जो गीतें होती थे उनमे अंग्रेजों के खिलाफ प्रतिरोध के स्वर निकला करते थे| अगर उसे हिंदी में अनुवाद किया जाए तो कुछ ऐसा आएगा| वो गीतें आज भी वहाँ के जनजातियों में गाई जाती है|

“गोरे अंग्रेज तेरी गुलामी ना मानु रे,

दाहोद हमारा, गोधरा हमारा अहमदाबाद भी हमारा|

रे अंग्रेज ! रे अंग्रेज ! रे अंग्रेज !

दिल्ली की गद्दी भी हमारा|

रे अंग्रेज ! रे अंग्रेज ! रे अंग्रेज !

हम मानगढ़ का बदला जरूर लेंगे|”

भील आदिवासी हमेशा अंग्रेजी सत्ता के विरोध करते रहते थे| इसके एवज में अपनी शहादत देने से कतई पीछे नहीं रहते थे| अंग्रेजों की भांति इनके पास बड़े बड़े बंदूके और हथियार तो नहीं हुआ करते थे फिर भी जो भी साधन हुआ करता था उसका पूरा-पूरा इस्तेमाल करते थे और अंग्रेजों का विरोध करते थे| भील आदिवासी आज भी अपनी परंपरागत संस्कृति को ‘विश्व आदिवासी दिवस’ के दिन मानगढ़ की पहाड़ियों पर याद करते है| यहाँ नोट करने वाली एक बात और है कि इन्हें किसी भी प्रकार की सरकारी रकम मुहैया नहीं करवाई जाती| जबकी देश में योगा डे से लेकर स्वच्छ भारत मिशन के प्रचार प्रसार पर हजारो करोडो रूपए युही झोक दिए जाते है|

ऐसा माना जाता है कि भील जनजाति आर्यनों से पहले की जनजाती है| ये आदिवासी जनजाती दक्षिण एशिया के सबसे बड़े जनजाती है और इनकी जनसँख्या तक़रीबन राजस्थान की जनसँख्या की कुल जनसँख्या के 40% है| ये जनजातियाँ मुख्य तौर पर महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, राजस्थान और गुजरात के पहाड़ी श्रृंखला पर पाई जाती है| इनका जिक्र हमारे पौराणिक कथाओं जैसे महाभारत और रामायण में भी मिलती है| कहा ये जाता है कि भगवान राम को बेर खिलाने वाली महिला भील आदिवासी ही थी जब भगवान राम माता सीता को ढूंढने जंगल निकले थे|

इन्होने ना सिर्फ अंग्रेजों बल्कि मुग़ल और मराठों से भी लोहा ले चुके है| अगर हम इनकी संस्कृति की बात करे तो ये सांस्कृतिक रूप से भी धनी है| पंचायती राज की आत्मा आज भी उनके गाओं में आसानी से देखी जा सकती है| भील जनजाती शादी ब्याह अपने परंपरागत तरीके से ही करते है जो पूरी तरह प्रेम और आदर से होता है| ये मिटटी के वस्तुएं हाथी, घोडा, बाघ और भगवानों की मूर्तियाँ बनाने में बहुत ही निपुण है|

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इन आदिवासियों की ख़ास बात यह भी है कि वे अपना घर खेतों के बीच में ही बनाते है| साल में एक ही खेती होने की वजह से ये लोग शहरों की ओर रुख करते है ताकी उन्हें कुछ काम मिल सके जिससे अपनी जीविका चलाते रहे| इसका सबसे ज्यादा असर उनके बच्चो पर पड़ता है| उनके बच्चों की पढाई लिखाई छूटती चली जाती है| इसी कारण की वजह से उनके बच्चो में सबसे ज्यादा ड्राप-आउट की स्तिथि बनी रहती है| भील आदिवासीयों को सामाजिक तंज भी सहना पड़ता है उनके कभी बनवासी कहकर बुलाया जाता है तो कभी बनबंधू कहकर|

उनके बच्चों के लिए जो शैक्षणिक संस्थाएं बनाई गई है उनपर आरोप है कि वो आदिवासियों की पहचान बदलने की कोशिश कर रहे है और एक खास तरह की संस्कृति थोपने की कोशिश कर रहे है| इसके अलावां संविधान में भी उन्हें उचित जगह नहीं मिली| अनुसूचित जनजाति का टैग लगाकर उन्हें हाशिए पर धकेल दिया गया| वो अपने पहचान से हमेशा दूर होते चले जा रहे है| उसके पीछे सबसे मुख्य कारण है कि आदिवासी लोग आज भी संगठित नहीं है और नाही उन्हें कोई ऐसा प्लेटफार्म दिया जाता है जिससे वो अपनी बातों को समाज के सामने चर्चा के लिए रख सके| वो आज भी सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक और राजनितिक रूप से हाशिए पर धकेले हए है| इसके बावजूद भी अपने सांस्कृतिक अस्मिता को लेकर काफी उत्साहित नजर आते है|

हमेशा से देश में आदिवासियों का एक ही शक्ल ‘नक्सलवाद’ के रूप में दिखाई जाती है| ना तो उनको समझने की कोशिश की जाती और नाही अपने साथ रखने की| कारन बस एक ही है भौतिकवाद की चमकते दुनियां बस अपने अलावां कोई और नहीं दिखता है| अगर थोडा पास जाकर समझने की कोशिश करेंगे तो पाएंगे कि आपसे और हमसे बहुत ज्यादा सभ्य है| सोशल हार्मोनी, संतोष, पर्यावरण के प्रति जागरूक, महिला सशक्तिकरण और सामाजिक सुरक्षा के मामले में हमसे और आपसे कहीं ज्यादा आगे है|

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हमारे लिए हजारो करोडो रूपए का जादुई आकडा खर्च किया जाता है इनसब पर फिर भी तथाकथित कृत्रिम समाज और संस्कृति के नाम पर वही के वही है| बिना सरकारी जादुई आकडे के वो सबकुछ पा चुके है| सुबह का नास्ता बनाकर बच्चो को खिलाने के बाद एकसाथ कदम से कदम मिलाकर काम करने जंगल में निकल जाते है| हमारी कृतिम संस्कृति ऐसी महिला सशक्तिकरण कतई बर्दास्त नहीं कर पाएगी| उदहारण के लिए ज्यादा दूर नहीं जाना हाल के हरियाणा के रागिनी सिंगर सपना का ही उदहारण ले लीजिये कैसे-कैसे व्यंग टिप्पड़ियां करके, करवाके उसे आत्महत्या जैसे कदम उठाने को मजबूर करती है ये कृतिम संस्कृति|

वास्तविकता तो यह है कि सरकार की तमाम प्रयासों के बावजूद इन्हें हमारा समाज मुख्यधारा में जोड़ने से इनकार करता आया है| काफी बड़ी तादाद में ये आदिवासी आज भी शहरों के लिए घुमंतू जनजाती ही बने हुए है| शहर में इनका जगह भी हाशिये पर ढकेला हुआ रहता है| रोड के किनारे इनकी झुग्गी झोपड़ियाँ आसानी से दिख जाती है| इनका मुख्य पेशा आज भी सिलबट्टे पर कढाई करके बेचनी और हाथों से बनाई गई सजावट की समानों की बिक्री होती है| बांस का उपयोग करके अच्छे अच्छे टोकरियाँ और खिलौने बनाते है|

चाइनीज सामानों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों से मशीन निर्मित सजावटों की प्रतिस्पर्धा में आदिवासियों का हाथों से बनी वस्तुएं फीकी सी दिखती है जभी तो हमारे ड्राइंगरूम का हिस्सा नहीं बन पाती है| सिलबट्टे का स्थान खासकर शहरों में आज मिक्सर ग्राइंडर पूरी तरह से ले चूका है| कोई विदशी शैलानी को आना होता है या ‘कामनवेल्थ’ जैसे खेलों का आयोजन होना होता है तो इन झोपड़ियों को उठाकर फेकने में भी पीछे नहीं होते है| उसके दुसरे पहलु की एक सच्चाई यह भी है कि उसी कामनवेल्थ और विदेशी शैलानियों के स्वागत कार्यक्रम में इन्ही आदिवासियों को बुलाया जाता है ताकी अपनी संस्कृति का प्रदर्शन कर सके| लेकिन भौतिकवाद के दुनिया में मतलब निकलते ही हम भूलने लगते है|

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