जब भी अफ्रीका शब्द जेहन में आता है तब महात्मा गाँधी और नेल्सन मंडेला की प्रतिमा हमारे दिलों दिमाग पर अक्सर छा सा जाता है| अगर पडोसी देशों को छोड़ दिया जाए तो अफ्रीका उन महत्वपूर्ण देशों में से है जिससे सांस्कृतिक लगाव बहुत ही गहरा रहा है| यह इतना गहरा है कि अफ्रीका में कई शैक्षणिक संस्थाओं को भारत ने नेताओं के नाम पर रखा हुआ है और भारत में वहाँ के प्रमुख नेताओं के नाम पर| यहाँ तक अभी यूनिवर्सिटी के जिस ब्लॉक में रह रहा हूँ, उसका नाम ‘नेल्सन मंडेला ब्लॉक’ है|
साझा प्रतिबद्धताओं के आधार पर राजनीतिक एकजुटता से शुरुआत होने के बाद दोनों देशों के बीच आपसी रिश्ते ने पहले उपनिवेशवाद रोधी, नस्लवाद का विरोध, गुटनिरपेक्षता और एफ्रो-एशियाई एकजुटता का स्वरूप अख्तियार किया और उसके बाद यह व्यापार एवं निवेश प्रवाह के फैलाव की ओर उन्मुख होने की राह पर चल पड़ा था| लेकिन ऐसा क्या हो गया कि अचानक दक्षिण अफ्रीका में गाँधी विरोधी समीकरण का प्रवाह होना शुरू हो गया| उनकी मूर्तियाँ तोड़ी जाने लगी| और भारत में नस्लभेदी चीजों का उभार होने लगा जो हमेशा से नस्लभेद के खिलाफ संघर्षरत रहा है|
पिछले वर्ष, पश्चिम अफ्रीकी देश घाना के सोशल मीडिया में गाँधी विरोधी स्वर को हवा देने की पूरी कोशिश की गई और GandhiMustComeDown, GhandiForComeDown और GandiMustFall ट्रेंडिंग टॉपिक बने| वहाँ की राजधानी आक्र से महात्मा गाँधी की प्रतिमा हटाने की बातें भी जोरों शोर से चल रही थी| विरोध करने वालों का अपना भी पक्ष है जिसमे उनका मानना है कि वे नस्लवादी थे और उन्होंने अश्वेत आबादी को कभी बराबरी का दर्जा नहीं दिया| यह तबका दावा करता है कि वे अफ्रीका के नायक नहीं हैं क्योंकि इस देश में उनकी लड़ाई भारतीयों के हक की लड़ाई थी, न कि अश्वेतों के|
गांधी जी को प्रेरणा मानने वाले नेलसन मंडेला ने दक्षिण अफ्रीका में महात्मा गांधी की पहली प्रतिमा का अनावरण किया था| उस अवसर पर उनका कहना था, ‘गांधी के कामों से ही इस देश की अश्वेत जनता को उम्मीद मिली कि उन्हें भी बराबरी का दर्जा मिल सकता है|’ मंडेला ताउम्र जिस गांधी को अपनी प्रेरणा मानते रहे उसी गाँधी के प्रति विरोध भी इस अफ्रीका में पनपता रहा| हैरानी की बात है कि यह विरोध उसी अश्वेत समुदाय में है जिसका सर्वोच्च नेता महात्मा गांधी को अपना प्रेरणा स्रोत मानता था|
ये सारी चीजें इतनी सीधी नहीं है जितनी हमें दिख रही है| यह सब इतना आसान भी नहीं है| जिस पावन धरती ने मोहन दास करमचंद गाँधी को महात्मा गाँधी बनाया और वहाँ के अश्वेत लोगों में प्रतिरोध का विश्वास बढाया उस धरती पर उसी व्यक्तित्व का विरोध बड़ा असहज सा लगता है| अगर माध्यम की बात की जाए तो भारत की घटना से काफी सामानांतर है| ऐसा नहीं है की महात्मा गाँधी का विरोध सिर्फ अफ्रीका में ही होता है, जबकी भारत में भी उनका विरोध कम नहीं है|
भारत में महात्मा गाँधी के हत्यारा गोडसे की मंदिर बनवाने की बातें और उसे शहीद के तौर पर पेश करना प्रतिबिम्ब मात्र है| भारत में उनके खिलाफ विरोधी स्वर उपजाने के लिए कभी भारत-पाकिस्तान बटवारें का सहारा लिया जाता है तो कभी भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की फांसी को नैतिकता की हार के रूप में देखकर सहारा लिया जाता है| जबकी कई ऐसे तथ्य है जो इन सभी बातों को नेस्तनाबूद करने का क्षमता रखता है| लेकिन सवाल वही है कि तार्किक रूप में बातें करने का धैर्य रह ही कहाँ गया है|
दक्षिण अफ्रीका में गाँधी विरोधी स्वर को बढ़ाने के लिए ठीक इसी माध्यम को अख्तियार किया गया है| वहाँ भी नानाप्रकार की अफवाहें फैलाई जा रही है जैसा की भारत में| ये सब तो उनका पक्ष हो गया| भारत में भी कुछ इस प्रकार की चीजें हो रही है जो लगातार दूरियाँ बनाती जा रही है| पढ़ने के लिए ऑस्ट्रेलिया गए भारतीय छात्रों पर तकरीबन एक दशक पहले हिंसक हमले की बातें अक्सर सुनाई पड़ती थी| अमेरिका में गए बाहर के लोगों और काले लोगों पर नस्लवादी हमले सदियों से होते आ रहे है| लेकिन हम भारतीय तो नस्लवादी नहीं थे| आखिर ऐसा समीकरण क्यों बनते दिख रहा है जहाँ सारा नियम कानून और व्यावहारिकता को ताख पर रखकर अराजक बनते जा रहे है|
जब पुलिस ने उनके खिलाफ कोई सबूत ना होने के चलते नाइजीरियाई छात्रों को रिहा कर दिया तो भीड़ ने उनको घेर कर पिटाई क्यों की? देश लोकतंत्र से चलता है या भिडतंत्र से? फिर तो किसी कोर्ट-कचहरी पुलिस थाने की कोई जरूरत ही नहीं है जब खुद एक संगठित समुह फैसले लेकर सजा देने का अधिकार समझता हो| भारत में पढ़ाई और नौकरी के लिए हजारों की संख्या में अफ्रीकी लोग रहते हैं| यह लोग कई बार भेदभावपूर्ण व्यवहार के शिकार बनाए जाने की शिकायत करते रहे|
चुकी एक यहाँ पैटर्न बन चूका है कि सामने वाला अफ़्रीकी है और वो भारत के किसी शहर में दिखता है तो लोगों के दिमाग में वैसी प्रतिबिम्ब उभर आती है जैसे वो ड्रग्स माफिया है या किसी रैकेट से जुड़ा हुआ है| ठीक वैसे ही जैसे भारत में मुस्लिम को आतंकवादी के रूप में चित्रित किया जाता रहा है| यह भी वो सकता है कि उनका एक समुह ऐसी गतिविधियों में लिप्त रहा हो, लेकिन इसकी कोई गारंटी नहीं कि वो भी हो| बीते साल कांगो के एक शिक्षक की पीट पीट कर मार डालने की घटना सामने आई थी|
नई दिल्ली में ही तीन भारतीय युवाओं ने ऑटो रिक्शा को लेकर हुए विवाद के चलते उनकी हत्या कर दी| कुछ ही साल पहले एक नाइजीरियाई नागरिक गोवा में मारा गया था| दिल्ली के पूर्व कानून मंत्री सोमनाथ भारती पर भी 2014 में एक अफ्रीकी महिला का उत्पीड़न करने का आरोप लगा था| मंत्री लोगों की भीड़ लेकर दिल्ली के एक इलाके में पहुंचे थे, उन्होंने अफ्रीकी महिलाओं को देह व्यापार का आरोपी बताया था|
ये जो चित्रित करने का नेक्सस है वो वास्तविक जीवन पर बहुत गहरा असर डालता है| हो सकता है शायद हम यह बात इसलिए नहीं समझ पाएंगे क्युकी किसी भी प्रकार से पीड़ित होने वाली श्रेणी में नहीं आते है| इतिहास में कई ऐसे उदाहरण है जो यह साबित करता है कि ऐसे असर का कितना प्रभाव पड़ता है| अमेरिका और अफ्रीका जैसे देशों में इसका असर क्रांति के रूप में पाई गई है| मार्टिन लूथर किंग को भी ऐसे नस्लभेद का शिकार होना पड़ा था| वो तब जब वो एक डिबेट में हिस्सा लेने डिक्सी स्टेट गए हुए थे|
उस समय वो मात्र 14 साल के थे| डिक्सी स्टेट नस्लभेद के लिए ही मशहूर हुआ करता था| डिबेट में वो जीते भी उन्हें खूब प्रशंसा भी मिली| लेकिन वास्तविक जीवन उस डिबेट और प्रशंसा से बहुत अलग था| जब वो वापस आ रहे थे| उनकी शिक्षिका जो लेकर गई थी उन्होंने मार्टिन लूथर को सीट छोड़ने के लिए कहा जब गोरे छात्र बस में प्रवेश किए| पहले थोडा विरोध किया लेकिन शिक्षिका द्वारा उन्हें समझा दिया गया कि यही कानून है और यही सत्य है| उस घटना का इतना बड़ा असर पड़ा कि बहुत ही छोटे उम्र में बहुत बड़े काम कर गए|
इसलिए दुनिया में हर इन्सान एक जैसा है| हमारा और अफ्रीका का तो बहुत ही करीबी रिश्ता रहा है| संस्कृति से लेकर अर्थव्यवथा तक| आखिर क्यों हमारी दूरियाँ बढती जा रही है? हम नस्लवादी तो थे नहीं फिर हम नस्लवादी क्यों बनते जा रहे है? दुनिया को लोकतंत्र का पाठ पढ़ाने वाला देश के लोग इतने अराजक तो नहीं थे कि वो तालिबानियों की तरह लोकतंत्र से भिडतंत्र पर उतर आएँगे? हमें आत्मवलोकन की जरूरत है| हमें इंसानियत को समझने की जरूरत है|
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