छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित दंतेवाड़ा जिले में नक्सलियों के हमले में हमारे सीआरपीएफ के 7 जवान भी शहीद हो गए| असंतोष से पैदा हुआ नक्सलवाद आज बुरी तरह से रेड कॉरिडोर को जकड़ा हुआ है| उन सभी जवानों को भावभीनी श्रीधांजलि जो देश और इसके सैवधानिक मूल्यों की रक्षा करते-करते अपनी शहादत दे दी| वो जवान भी उसी बाबासाहेब के सैवाधानिक मूल्यों की रक्षा कर रहे थे जिसकी आवाजें अक्सर भाषणों और मीडिया चैनलों में सुनाई देती है|
हालाँकि नक्सल का कांसेप्ट बड़ा गन्दा है| मूलरूप से इस शब्द की उत्पत्ति पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी गाँव से हुई थी जहाँ से कम्युनिस्ट लोगों की आन्दोलन शुरू हुई थी| उनका अपना अधिकार का पक्ष हमेशा केंद्र में रहता है लेकिन हिंसा कभी किसी चीज का समाधान नहीं होता| जो लोग बन्दुक की नोख प सत्ता चाहते है तो स्वाभाविक सी बात है कि उसी नोख पर शासन भी करेंगे|
लेकिन कुछ प्रश्न जिसे मै समझ नहीं पता हु| पहला, आख़िरकार कैसे हथियार चाइना या पाकिस्तान से छतीसगढ़ पहुच जाता है और हमारी तमाम सुरक्षा एजेंसीयों को इसका अंदेशा भी नहीं होता? दूसरा, आज अगर किसी कम्मुनिस्ट नेता से भी पूछेंगे कि आप नक्सल का समर्थन करते है तो उसका जवाब यही आएगा कि बिल्कुल नहीं करते| अगर गलती से एनकाउंटर में उसमे से कुछ नक्सली को मार भी देते है वो तुरंत आम आदिवासी में परिवर्तित हो जाते है| कभी कभी ऐसा भी होता है कि वर्दी बचाने के चक्कर में किसी आदिवासी को ठोक के नक्सली का मुहर लगाया जाता है| बातें दोनों तरफ है| ऐसा नहीं है कि ये कोई नया हो, कांग्रेस के समय में भी यही रोना गाना था|
आख़िरकार इसका समाधान क्यों नहीं निकाला जाता? क्यों बाइनरी बना कर गेम खेली जाती है? प्रकाश झा ने अपनी फ़िल्म ‘चक्रविहू’ में उनके पक्षों को दिखाने के कोशिश की थी जो एक सत्य पर आधारित घटना थी| यह मामला किसी कश्मीर से बिल्कुल कम नहीं है| आखिर इसकी शुरुआत कहाँ से होती है? कुछ साल पहले मध्यप्रदेश में आदिवासी इलाकों में लगातार उनके बच्चे मर रहे थे| वहाँ यह बात किसी माता का प्रकोप मान कर लोग खामोश हो जाते थे| जब सरकारी एजेंसियों ने जाँच की तो पता चला कुपोषण से शिकार हो गए| कुपोषण से बच्चो को बचाने के लिए आंगनवाडी और मिड डे मील जैसी सरकारी योजनाएं है|
उन आदिवासियों को इसी बेचारगी को कारण बताते हुए कम्युनिस्ट लोग अपने पाले में लाने के लिए कोशिश करते है| चुकी आदिवासी ना तो लछेदार भाषण दे सकते और नाही उनकी बातें संसद तक पहुच पाती है| जिनकी मुख्य जिम्मेदारी है उनकी बातें यहाँ संसद तक पहुचाए वो टाई लगाकर स्टूडियों में इस चीज का एनालिसिस कर रहे होते है कि पूनम पाण्डेय या बलोच ने भारत के जितने पर क्या गिफ्ट किया है| तीसरा रास्ता उन्हें दिखाई देता है हथियार उठाना|
वो या तो खामोश होकर चुपचाप सहते है या फिर हथियार उठाते है| मणिपुर के इरोम शर्मीला को ही ले लीजिए कितने सालों से सरकारे इग्नोर करती आई है उस पर चर्चा करना भी मुनासिब नहीं समझते है| वही जब वहां की आवाम कुछ ऐसी हरकते करेंगी तो तुरंत बातें लाइमलाइट में आ जाएगी| मेरे कहने का मतलब है कि आजादी के इतने सालों बाद भी हम मुख्य धारा में क्यों नहीं ला पाए? आखिर हम ऐसे असंतोष क्यों पैदा होने का मौका देते है?
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