डीमोनेटाईजेशन का उद्देश्य क्या है ?

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अभी हाल में सरकार और आर.बी.आई. ने 1000 और 500 के नोटों का डीमोनेटाईजेशन करने का फैसला किया| निसंदेह यह बात सही है कि इसका प्रभाव करप्शन कम करने पर पड़ेगा| लेकिन कितना पड़ेगा वो ज्यादा महत्वपूर्ण है| कुछ अर्थशास्त्रियों का मानना है कि अगर बढ़िया से मुक्कमल होता है तो कुल काला धन का मात्र 1% पैसा ही रिकवर हो पाएगा| इसमें लोग लूपहोल बनाकर अपने पैसे निकाल ले सकते है| उदहारण के जरिए समझते है| मान लीजिए मै एक ऐसा व्यक्ति हु जिसके पास काला धन है|

मुझे इसके बारे में भनक लगते ही गोल्ड में निवेश कर दिया| अलग अलग जगहों से खरीदने की वजह से पैसा बंट तो गया लेकिन गोल्ड एक जगह इक्कट्ठा हो गया जिसे मै गोल्ड के भाव ऊपर होते ही आने वाले महीने में बेच कर पैसा रिकवर कर लूँगा| होगा क्या ? सिर्फ नोट का रंग बदलेगा लेकिन मेरी स्तिथि वैसी ही रहेगी| हाल के बदलते सोने का भाव इसका साक्षात् गवाह है|

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फायदा किसको होगा? मुझे होगा| इसके अलावां किया हुआ वादा लोगो को पूरा होते हुए प्रतीत होगा| इसलिए राजनितिक फायदा होने की भी उम्मीद है| फसेगा कौन? फसेगा वो जिसने कमा कर पैसे घर रखे हुए है| उसमे इमानदार भी हो सकते है| हो सकता है उन इमानदारों को पैसे वाइट बनाने के लिए उसका कुछ हिस्सा ब्लैक बनाकर साहब लोगो की जेब गर्म करनी पड़े| निसंदेह यह भी सत्य है कि घिनिया-पोठिया सहित गरई मछलीयां जरूर फस सकती है|

लेकिन विकेट, बांगुर और हिल्सा जैसी बड़ी मछलियाँ? बैंक एक दिन में चार हजार से ज्यादा रूपए भी नहीं लेगी| वैसे रेलवे बजट में भाषण में ये कहा गया था कि रेलवे को दुसरे स्तर पर ले जाना है| पैसे चाहिए| उद्योगपति से ज्यादा जनता की निवेश और भागीदारी की जरूरत है| वो कैसे? जनता अपना पैसा बैंक में रखेगी वो पैसा किसी उद्योगपतियों के लिए निवेश की पूँजी बनेगी और इंफ्रास्ट्रक्चर डेवेलोप किया जाएगा| फिर बैंक के सहारे ‘पब्लिक पार्टिसिपेशन’ को अवरोधित क्यों?

अगर यह बात सही है कि उर्जित पटेल अंबानी के फाइनेंसियल एडवाइजर रहे है| फिर अम्बानी का इतना बड़ा इन्वेस्टमेंट, वो भी इसके पहले, हो सकता है यह किसी शाजिस का हिस्सा हो| अगर नहीं है तो फिर 2000 का नोट क्यों? डीमोनेटाईजेशन में तो नोट छोटे होते है| हजार हटा लेकिन 2000 आया| फिर किस प्रकार का डीमोनेटाइजेसन? वो जमाना गया जब लोग ब्लैक मनी तकिए और रजाई के भीतर छुपा के रखा करते है| ये ज़माना है बिट कॉइन और पी-नोट जैसे चीजो है|

पहले इसे डिफाइन कर देता हूँ| बिट कॉइन आई.टी. सेक्टर में भरपूर उपयोग किया जाता है जिसे सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त नहीं होता है| इसका कोई आइडेंटिटी भी नहीं है| बैंगलोर में बैठा सॉफ्टवेर इंजिनियर, सॉफ्टवेर बनाकर बिट कॉइन करेंसी के तहत अमेरिका में बेचता है जिसको आर.बी.आई. ट्रैक नहीं कर पाती है| तब ट्रैक नहीं कर पाती तो वाजिब सी बात है टैक्स कहाँ मिलेगा? ये है बड़ी मछली जो फास काट के भाग जाती है|

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दूसरा है पी-नोट(पार्टिसिपेट्री नोट) यह एक ऐसा पेपर होता है जिसके तहत विदेशी निवेशक बिना भारत सरकार के (SEBI) में रजिस्टर्ड करवाए एक गुप्त रूप से भारत में निवेश कर सकता है| इसमें होता क्या है कि मानलीजिए गौरव सिंह के पास भरपूर ब्लैक मनी है| मैंने तुरंत इसे हवाला के जरिए स्विस भेजवा दिया| एजेंट ने रूपए को डॉलर में कन्वर्ट करके बोम्बे के स्टॉक एक्सचेंज में लगा दिया| वहां से जो फायदा होता है उसका कुछ प्रतिशत कमीशन रखके मुझे उसी हवाला के थ्रू अपना मुनाफा मिल जाएगा|

पी-नोट की कंडीशन ही यह है कि उसके ओनर का नाम नहीं बताना होता है| बहुत कम पेपर वर्क साथ में CGS टैक्स भी नहीं देना होता है| मुनाफा भी बेहद होता है| सरकार को ऐसा लगता है कि विदेशिया बाबु ने निवेश किया है लेकिन सच्चाई तो यह है कि वो तो अपने ही गौरव बाबु है जो ब्लैक मनी खाए बैठे है| जब हवाला से पैसे भेजूंगा फिर टैक्स काहे का? मै हुआ न बड़ी मछली|

सरकार ने नोटों का डीमोनेटाईजेशन करने का जो फैसला किया था उसमे एक बात यह थी कि आखिर दोनों 500 और 1000 का नोट को एकसाथ अबोलिश क्यों किया? मुझे ऐसा लगता था कि पहले हजार वाला कर देते ताकी मध्यम वर्ग के लोगों को दिक्कत न आए| लेकिन मुझे इसके पक्ष में ऐसा भी लगा था कि हो सकता है कि हमारी सुरक्षा एजेंसीयों को फेक करेंसी भारत में पम्प होने की खबर मिली होगी| दूसरी बात कि 2000 के नोट क्यों चलाया जब बड़े नोट ख़त्म ही करनी थी तो? इसके पक्ष में मेरे दिमाग में यही बात आई कि हो सकता है जिनके पास ज्यादा वाइट पैसे हो उन्हें अपने काम में तात्कालिक दिक्कत न हो|

लेकिन सवाल है कि अब तक कितने MLs और MPs का नाम आया कालाधन में? किसी का नहीं? हमारे नेता इतने आइडियल? और जनता इतनी भ्रष्ट| चलो एक दफा मान लिया कि पक्ष के नेताओ को पहले बता दिया लेकिन कम से कम विपक्ष का नेता ता नाम आना तो चाहिए था न? याद करो विकिलीक्स जैसी संस्थाए जब नाम देती है तो उसे पब्लिक न करने के लिए दोनों दलें हाय तौबा तो मचता ही है न| विकिलीक्स वाले बड़े झूठे है| है न? आखिर ऐसा कैसे हो सकता है?

एक बात और सामने आ रही है कि आज के चार पहिना पहले के NDTL और आज के NDTL के डाटा में एक्स्पोनेंसियली ग्रोथ हुआ है| पहले मै NDTL को डिफाइन कर देता हूँ| इसका मतलब है नेट डिमांड एंड टाइम लायबिलिटीज| यह बैंक में जमा हुए और निकाले हुए पैसों का अंतर होता है| देश की जनता दो महीने में इतनी जागरूक हो गई कि एक साथ ‘पब्लिक पार्टिसिपेशन’ करने लिए नोट बदले जाने के पहले, लगातार पैसे पर पैसे बैंक में जमा करने लगी? कैसे?

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ये भी आपको पता है कि सुचना का अधिकार(RTI) किसी पार्टी फंडिंग को जानने पर लागु नहीं होता है| यह कहा जाता है कि पार्टी इलेक्शन कमीशन को देती ही है तो पब्लिक को क्यों दे| इसपर भी बहुत राजनीती होती रही है| यही लोग आज चार हजार के नोट को बदलने के लिए पैन कार्ड और सरकारी तामझाम मांग रहे है जो इलेक्शन कमीशन के कान में जाके अपनी फंडिंग बताते है|

हमारे देश में वैसे जनसख्या की आबादी बहुत है जो दिन के कमाए पर रात को खाना खाते है| आज तिन दिन से दिहाड़ी छोड़ बैंक के चक्कर लगा रहे है| दुसरे के ऑटो को किराया पर चलाने वाले बेवजह घाटे में जा रहे है| इनकम टैक्स वालें बैंक से कह रहे जिसके पास ढाई लाख से ज्यादा पैसे है उनका नाम दे दे| मेरा तो मानना है कि जितने नेता है सबके नाम लिखो और जांच करना शुरू करो|

इतना तो उनके पी.ओ. के पास ही होते है| है संभव? नहीं न| फिर क्यों छोड़े दिहाड़ी मजदूरी और लगे लाइन में? देश के मुद्रा के लगभग 85% रुपया 500 और हजार के है| इसका स्केलिंग करते तो शायद ज्यादा अच्छा होता ताकी बड़े नोटों का सर्कुलेशन कम होता| सरकार, मीडिया और सेंट्रल बैंक सब मिलकर हमें मुर्ख बना रहे है| मीडिया कहती है नोट में चिप लगी हुई है तो सरकार कहती है ब्लैकमनी उसका उद्देश्य है|

सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि आज कल बहुत जल्द नैरेटिव बदल दिया जाता है| अभी सरकार ने डीमोनेटाईजेशन का फैसला लिया| यह फैसला गलत नहीं है| लेकिन फैसले के जो उद्देश्य है वो बहुत अपारदर्शी है| अभी तक लोग इस बात से बहुत दूर है कि इसका उद्देश्य क्या है? एनालिसिस करने वाले एक्सपर्ट्स और पार्टी प्रवक्ताओं की माने तो काला धन ख़त्म करने का मुहीम है| वही दूसरी ओर प्रधानमंत्री जी अपने भाषण में यह कहते है कि बैंकों में पैसो की बढ़ोतरी हुई है|

इससे लोगो को लोन देकर बिसनेस एक्सपेंशन करने में मदद मिलेगा| राज्यसभा टीवी पर जेटली साहब का संबोधन सुन रहा था वो भी यही बात कह रहे है| कोई तो स्टैंड साफ़ होनी चाहिए| जबकी मुझे ऐसा लगता है कि सच्चाई वही है जो प्रधानमंत्री जी और वित्तमंत्री जी ने अपने भाषण में कहा| जब ऐसा है तो ब्लैकमनी और देशभक्ति के नाम पर लोगों को इमोशनल करना बेवकूफ बनाने मात्र ही है|

अगर कोई व्यक्ति इस बात से असहमति रखता है कि इसका उद्देश्य गलत है तो उसे इर्रेलेवेंट जवाब यह मिलता है कि तुम भ्रष्टाचार के मुहीम के खिलाफ हो| जबकी ऐसा नहीं है| सामने वाले की बातें सुनने का धीरज रखिए और समझिए कि वो क्या कहना चाहता है| यह जरूरी नहीं है कि कैश में रखा पैसा ब्लैक हो| बैंको के लाइन में ज्यादातर वही लोग लग रहे है जिनके पास सही पैसा है| सवाल यह उठता है कि सरकारी खामियों (खासकर कांग्रेस के समय से) की वजह से ही ये ब्लैक बना है इसका खामियाजा वो लोग क्यों भुगते जिनके पास सही पैसा है| दूसरी चीज मैंने दोनों लोग से एक और कॉमन बात सुनी जिसमे उन्होंने बैंकों में आने वाले पैसो को पोटेंशियल के रूप में देखते है और गर्व करने की बात करते है|

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इस पर मेरा मानना यह है कि आप फ़ोर्स करके लोगो से पैसे बैंक में मंगाकर खुश रहे है| जबकी होना यह चाहिए था कि बैंकिंग निति ऐसी होनी चाहिए थी कि लोग अपने आप आकर बैंकों में जमा करने के लिए आकर्षित होते| बैंक में, अगर सेविंग के रूप में कोई व्यक्ति पैसे रखता है तो उसे सिर्फ औसतन 4% प्रति वर्ष ही ब्याज मिलता है| वही व्यक्ति अगर अपने बेटे के लिए एजुकेशन लोन लेने जाता है तो 14% के आस पास व्याज देना पड़ता है| ऐसे में कोई क्यों बैंकों में पैसे रखेगा|

हाँ यह बात सत्य है कि बैंको में सेविंग के रूप पैसे होना आर्थव्यवस्था के लिए बहुत जरूरी होता है लेकिन इस कीमत पर नहीं| यह भी सत्य है कि किसी भी सरकार को ऐसे निर्णय लेना बहुत आसान नहीं होता है| लेकिन निर्णय में कितनी सार्थकता है वो ज्यादा महत्वपूर्ण है| क्युकी सरकार के पास और कोई आप्शन भी नहीं बच गया था|

इस निर्णय से एक और बात मुझे समझ में यह आती है कि सरकार का जनधन योजना वाकई में उतनी मजबूत नहीं हो पाई है जितनी उम्मीद की जाती थी| क्युकी जनधन का उद्देश्य सिर्फ यह नहीं था कि सबके खाते खोल दिए जाए| बल्कि बैंकों का ग्रामीण क्षेत्रों में प्रसार करना भी था| अगर वो वाकई में मुक्कमल हुआ होता तो शायद बैंक के एक्सेसिबिलिटी में लोगों को जरा भी दिक्कत नहीं आती|

इसलिए टेरर फंडिंग पर लगाम लगाने वाली बातें सिर्फ उत्तरपत्रिका के पेज भरने भर ही है| मै ऐसा इसलिए कह रहा हु क्युकी यह भी सही बात है कि पाकिस्तान के प्रिंटिंग मशीन में उनके जरूरत से ज्यादा पेज और इंक की जरूरत पड़ती है| पैसे वही से पंप होने की संभावनाए जताई जाती रही है| वो नए नोट का भी तो प्रिंटिंग कर सकते है| उन पैसों का भारत के बाजारों तक फैलना हमारी प्रसाशनिक फेलियर है जिसका हल डीमोनेटाईजेशन कतई नहीं हो सकता है|

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