क्या विकास के पैमाने के लिए जीडीपी पर्याप्त है ?

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आज मेरे एक मित्र ने हुन्दुस्तान टाइम्स का एक डेटा पोस्ट किया था। उसमें यह कहा गया है कि 1960 में पश्चिम बंगाल के लोगों की औसत कमाई 390 रु थी और तमिलनाडु के लोगों की 330 रु थी। लेकिन 2014 में पश्चिम बंगाल के लोगों की औसत कमाई 80000 रु है जबकि तमिलनाडु की 1,36,000 रु है। दक्षिण भारत के लगभग सभी राज्यों ने ऐसी ही वृद्धि की है जबकि उत्तर भारत के राज्यों जैसे बंगाल और राजस्थान के लोगों की औसत कमाई में गिरावट आई है। इसमें तमिलनाडु का एक उदहारण देते है कि 1960 में तमिलनाडु चौथा गरीब राज्य था जो अब दूसरा धनी राज्य है। अब सवाल यह उठता है कि ऐसा होने के पीछे क्या संभावित कारण है?

मैंने उनके पोस्ट के कुछ कमैंट्स को पढ़ा जिसमे राजनितिक स्तर पर बटें युवा ने अपने अपने एंगल से इसका कारण दिया। तथाकथित अतिराष्ट्रवादी और क्रन्तिकारी छात्र ने इसका कारण जब लेफ्ट राईट करके ढूंढने की कोशिश की तब मुझे हस्तक्षेप करना पड़ा और अपनी बात रखनी पड़ी। इसका कारण लेफ्ट राईट में है ही नहीं। अगर सच में होता तो केरल में लेफ्ट की भी सरकार रही है। वहां भी विकास एक अच्छे लेवल पर हुआ है।

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दूसरी बात राजस्थान में कभी भी लेफ्ट की सरकार नहीं रही है इसके बावजूद उसकी स्तिथि भी तो गिरी है। इसलिए मेरे समझ से इसका मुख्य कारण है कि वहां के लोगों में सांस्कृतिक समझ और जागरूकता कूट कूट के भरी है जिसने इन्हें विकास का अनुभव कराने में बेपनाह मदद की है। भाषाई विकास और सांस्कृतिक संवर्धन से इनके विकास में चार चाँद लगे है।

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ये तर्क लड़के को हास्यपद लगा। उसे यह मजाक सा लग रहा था। ऐसा इसलिए लग रहा था क्योंकि वो जीडीपी के शिगूफे से बाहर निकलना नहीं चाहता है। शायद उसने कभी इस एंगल से सोचा नहीं होगा कि क्या सच में सांस्कृतिक और भाषाई विकास के वहां की जनता का विकास भी हो सकता है। वो लड़का मुझे जीडीपी, परचेजिंग पावर पैरिटी, पर कैपिटा इनकम का मतलब मुझे समझाने लगा। मैं तो थोड़ी देर के लिए आश्चर्य हो गया फिर बाद में हल्के में बात टाल दिया।

आज लड़कों के दिमाग में यह बात ठुसी जा चुकी है उसकी उम्मीद सिर्फ जीडीपी है। हमेशा यह बात सही नहीं है। उसके भी लिमिटेशन है कुछ शर्तें है जिसे हमें समझना होगा। इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं कि इन थ्योरी से मेरी राय अलग है। मेरी चिंता वो शर्ते है कहीं ऐसा तो नहीं कि उसके शर्तों की अवहेलना कर रहे है। अगर ऐसा होगा तो विश्वास कीजिए इसका रिवर्स रिएक्शन हो सकता है।

जीडीपी क्या होता है किसी भी देश के भीतर उत्पादित वस्तु का अंतिम मूल्य। दूसरे शब्द में कहूँ तो ज्यादा प्रोडक्शन ज्यादा जीडीपी। लेकिन सवाल यह है कंपनिया जो सिर्फ मुनाफे के लिए ही होती है वो उत्पादन बढ़ाने और मुनाफा कमाने के लिए ऑटोमेशन का उपयोग करती है तो उत्पादन तो होगा लेकिन वहाँ के लोगों को नौकरी नहीं मिल पाएगी।

चुकी उत्पादन ज्यादा होगी तो जीडीपी का आंकड़ा भी बढ़ता हुआ दिखेगा लेकिन वहां के लोगों का संभावित विकास नहीं हो पाएगा। दूसरी बात जीडीपी का कैलकुलेशन बेस ईयर के आधार पर होता है। सरकारें अपनी वाहवाही करवाने के लिए बेस इयर बदलता है तो हमें जीडीपी के डाटा में बढ़ोतरी दिखेगा लेकिन जमीनी स्तर पर इस डेटा के बढ़ोतरी से वहाँ के लोगों का विकास कैसे होगा।

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रही बात परचेजिंग पावर पैरिटी की तो यह हमें समझना होगा कि जब बैंक हमसे पैसा सेविंग में लेता है औए इसके एवज में मात्र 4% ब्याज देता है। अगर किसी व्यक्ति को घर लेना होता है या कोई गाड़ी खरीदनी होती है तो वही बैंक 8% से ऊपर के ब्याज पर पैसे देता है। दूसरी बात अगर महंगाई 2014-15 की तरह 11% तक पहुँच जाती है तो आप ही बताइए कि पावर पैरिटी शिगूफा बनेगा कि नहीं।

इसलिए टीवी पत्रकारों से मुहं से इकनोमिक टर्म सुनके हांकना नहीं चाहिए। बेहतर होगा कोई अच्छी किताब पढ़े या किसी इकोनॉमिस्ट का विचार पढ़े और तार्किकता से बात करे। इस बात पर भी विचार करे कि भाषाई और सांस्कृतिक विकास में हमारा विकास कैसे निहित है।

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