जल्लीकट्टू अगर क्रूरता है तो बकरीद क्यों नहीं?

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सुप्रीम कोर्ट द्वारा जल्लीकट्टू खेल पर लगे प्रतिबंध को लेकर राज्य भर में विरोध प्रदर्शन जारी है| लोगों की मांग यह है कि पोंगल के मौके पर होने वाले जल्लीकट्टू खेल पर सुप्रीम कोर्ट ने जो प्रतिबंध लगाया है, उसे हटाया जाए| हम सुप्रीम कोर्ट पर ऊँगली उठाए उससे पहले यह समझना होगा कि कोई भी कोर्ट फैसला कैसे सुनाता है| हाल ही में दो चार दिन पहले सुप्रीम कोर्ट का एक आदेश आया था जिसमे सुप्रीम कोर्ट ने पार्टी फंडिंग को ब्यौरा ना देने को उचित माना था और फाइल की गई पेटिशन को ख़ारिज कर दिया था| इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं है कि जो मर्जी आए और जैसे आए फैसला सुना दिया|

सामने बैठा जज अपने से फैसला लेने के लिए स्वतंत्र नहीं है बल्कि नियम-कानून और प्रमाणों के प्रति बाध्य है| बेसक जज को यह पता हो कि सामने बैठा व्यक्ति ही दोषी है, इसके बावजूद तब तक फैसले नहीं ले सकता जब तक उसके पास प्रमाण न आ जाए| जज का व्यक्तिगत मानना सुप्रीम का फैसला कभी नहीं होता है| इसलिए जो भी सुप्रीम कोर्ट का फैसला आए चाहे सलमान खान पर आए, चाहे पार्टी फंडिंग को पब्लिक ना करने के पक्ष में आए या फिर जल्लीकट्टू पर प्रतिबन्ध लगाने के पक्ष में आए वो फैसला स्वीकार्य होगा ही|

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क्युकी इन सारे फैसलों का कुछ बुनियाद जरूर है| हमें दूर से देखने से जो लगता है वो जरूरी नहीं है कि वो हकीकत हो| मैने खुद जब पार्टी फंडिंग ना प्रदर्शित करने वाला फैसला सुना तो थोडा अजीब लगा| फिर थोड़ी उत्सुकता बढ़ी कि देखते है कोर्ट क्या प्रमाण देता है| जब मैंने पढ़ा तो संतुष्टि हुई कि ना कोर्ट अपने जगह पर सही है| ऐसे ही जल्लीकट्टू के लेकर जिस तरह का हंगामा किया जा रहा है वो भी उचित नहीं है|

इससे बेहतर यही होगा कि इसके खिलाफ नया पेटीशन दायर करे और बढ़िया तथ्य के साथ कोर्ट में अपना पक्ष रखे| हंगामा करने और अराजकता फैलाने से कोर्ट के फैसलों पर कभी प्रभाव नहीं पड़ता है| कोर्ट अपनी कार्यवाई वैसे ही करेगी जो उसकी कानूनन प्रक्रिया है| जिस तरह के तथ्य कोर्ट में पेश किए गए है वो विपक्ष के लिए नाकाफी है| यह सत्य है कि जल्लीकट्टू को तमिलनाडु के गौरव तथा संस्कृति का प्रतीक कहा जाता रहा है| जल्‍लीकट्टू तमिलनाडु के ग्रामीण इलाक़ों का एक परंपरागत खेल है जो पोंगल (एक किसानी त्यौहार) पर आयोजित कराया जाता है|

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जल्लीकट्टू मूल रूप से ‘जल्ली’ शब्द दरअसल ‘सल्ली’ से आया है जिसका मतलब होता है ‘सिक्के’ और कट्टू का अर्थ है ‘बांधा हुआ’| जल्लीकट्टू सांडों का खेल है जिसमें उसके सींग पर कपड़ा बांधा जाता है| जो खिलाड़ी सांड के सींग पर बांधे हुए इस कपड़े को निकाल लेता है उसे ईनाम के रूप में सिक्के या पैसे मिलते हैं| इसलिए इस खेल को जल्लीकट्टू के नाम से जाना जाता है| संस्कृति के प्रतिक मशहूर इस खेल का अपना पक्ष है कि यह किसानों से जुड़ा रहा है और बहुत पुराने समय से चला आ रहा है|

लेकिन दूसरी तरफ सत्य यह भी है कि जानवरों की सुरक्षा वाली संस्था पेटा के अनुसार जल्‍लीकट्टू खेल के दौरान बैलों के साथ क्रूरता की घटनाएं होती हैं| इलज़ाम ये भी है कि बैलों को नशीले पदार्थ खिलाये जाते हैं और उन्हें भड़काने के लिए आँखों में मिर्च डालने तक की बातें सामने आई है| इसके अलावां उनकी पूंछों को मरोड़ा तक जाता है, ताकि वे तेज दौड़ सकें| कहीं न कहीं इन मानवीय हरकतों को स्वीकार्य तो नहीं किया जा सकता है न| लेकिन एक बात यह भी है कि प्रतिबंधित करना किसी भी एंगल से इसका हल नहीं है|

इस त्यौहार के अपने पक्ष भी है और अपने विपक्ष भी| इस संसार में हम यह मानकर चलते है कि मानव ही सबसे श्रेष्ठ है| अनबोलता जीव तो अपना पक्ष कभी रख भी नहीं पाएगा कि क्या वो सच में आपके इस खेल को स्वीकार्य करता है कि नहीं| हालाँकि तमिलनाडु में यह माना जाता है कि बैल उनके परिवार का एक हिस्सा रहा है| लेकिन अपने परिवार के सदस्य के साथ वो अमानवीय वर्ताव भी तो नहीं की जाती है न जिस तरह का यहाँ के लोग जल्लीकट्टू पर किया करते है|

लेकिन हाँ इस अमानवीय वर्ताव का आरोप देश के अभी वर्गों पर लागु किया जाना चाहिए ना कि सिर्फ किसी ख़ास धर्म के लोगों पर| अगर इसको प्रतिबंधित करना जस्टीफ़ाइड है तो मुस्लिम धर्म में क़ुरबानी के नाम पर दिए जाने वाली जानवरों की बलि क्यों नहीं? मुस्लमान भी बकरे को अपने घर में सदस्य की तरह पालते है और बकरीद के दिन उसकी बलि चढ़ाना क्या जल्लीकट्टू से कम बर्बर है? अगर बकरीद पर धार्मिक पह्लुएँ अपनी जगह ले सकती है तो जल्लीकट्टू पर क्यों नहीं ले सकती है? पेटा के कार्यकर्ताओं को उस समय भी अपनी आवाजें बुलंद करता देखता तो मुझे ख़ुशी होती| लेकिन सेलेक्टिव तरीके से करना सही नहीं है|

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कुछ विश्लेषकों का मानना है कि यदि किसी त्योहार में पशुओं के साथ क्रूरता होती है और उसे ईश्वर की पूजा का नाम दिया जाए, यह कहां तक सही है? यह बात तब मानी जाएगी जब यूनिफार्म रूप से देश के सभी वर्गों पर लागु होगा| यही तर्क बकरीद पर लागु क्यों नहीं होता? प्रतिबन्ध को सही मानने वाले कुछ और विश्लेषकों का मानना है कि किसी भी शान और इज्जत को परंपरा और पाखंड का नाम तो नहीं दिया जा सकता है? फिर मेरा काउंटर सवाल यह है कि बकरीद के दिन दिए जाने वाली बलि को कुर्बानी और परम्परा को पाखंड का नाम क्यों नहीं दिया जाता? सुप्रीम कोर्ट के फैसले का मै स्वीकार्य और इज्जत करता हूँ लेकिन मै अपना पक्ष रखने के लिए भी स्वतंत्र हूँ|

सुप्रीम कोर्ट ने जल्लीकट्टू को बैन करते समय अपने फैसले में पशुओं को पांच आजादी देने की बात साफ तौर पर कही थी| फिर मै काउंटर सवाल यही करूँगा कि जब देश में पशुओं की आजादी की बात हो रही है तो धर्म को आधार मानकर पशुओं की होने वाली हत्या पर खामोश क्यों है? अगर सच में संवेदनशील है तो हमें APEDA जैसी संस्थाओं को भी बंद कर देना चाहिए जो भारत में मांस उद्योग और इसके निर्यात का संचालन करता है| फिर यहाँ पर अर्थव्यवस्था आड़े क्यों आती है?

कुछ विश्लेषकों का मानना है कोई भी उत्सव जो पर्यावरण और ईश्वरीय रचना (जीव-जंतु) को नुकसान पहुंचाए, उसे तुरंत बंद करने की जरूरत है| वो पशु भी ईश्वरीय रचना है जिसके लिए मांस उद्योग का निर्माण किया जा रहा है और दुसरे धर्मों में बलि चढ़ाई जाती है| इसका एक पक्ष यह भी रहा है कि आजकल देश में एक पैटर्न सा बन गया है जिससे हिन्दू धर्म की परंपराओं को गलत कह अपने आप को श्रेष्ठ कहा जा सके| सिर्फ जल्लीकट्टू ही नहीं, पिछले कुछ सालों में हिन्दू परम्पराओं के नाम पर खोट निकालने का एक चलन सा हो गया|

रंगों के खेल होली से कुछ दिन पहले पानी बचाने की कैम्पेनिंग शुरू हो जाती है, तो दिवाली से ऐन पहले प्रदूषण को रोकने के नाम पर पटाखों को प्रतिबंधित करने की मांग शुरू हो जाती है| जबकि सभी लोग इस बात से अच्छी तरह से अवगत हैं कि होली की वजह से न तो पानी की कमी होती है और न ही दिवाली की वजह से प्रदूषण बढ़ रहा है| अभी कुछ ही दिन पहले सर्वोच्च न्यायालय ने कृष्ण जन्माष्टमी के दिन दही हांडी के खेल की ऊंचाई निर्धारित की थी, जिसका समाज में बड़े पैमाने पर विरोध हुआ था| सिर्फ हिन्दू धर्म की परंपराओं पर कटाक्ष करके अपने आप को संवेदनशील समाजसेवी और धर्मनिरपेक्ष कहलाने की जिस प्रवृति का आगाज हुआ है वो खतरनाक है|

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ऊपर मैंने हिन्दू धर्म का जिक्र के बारें में सुनकर अजीब लग रहा होगा कि सारे तो नहीं करते फिर ऐसा क्यों लिखा है| बात यह है कि हमारे देश का यह दुर्भाग्य है कि लोग भारत को सब अपने अपने हिसाब से डिफाइन करते है| जैसे उत्तर भारत में यह माना जाता है कि बाप अपनी बेटी के घर का एक गिलास पानी भी नहीं पिता है जबकी दक्षिण भारत में ऐसा नहीं है| इसका मतलब यह नहीं कि भारत में ऐसा नहीं होता है| तमिल लोग भी हिन्दू ही है वो अपने हिसाब से अपने त्योहारों का आनंद लेते है इसलिए हम उन्हें दरकिनार नहीं कर सकते है|

यह हिन्दू धर्म की आंतरिक स्वतंत्रता है| यूनिफार्म रूप से कोई भी त्यौहार थोपा नहीं गया है| भारत में रह रहे हिन्दू एक ही पर्व को अलग अलग जगहों पर अपने अनुकूल ढंग से मानते है जिसमे कोई हर्ज नहीं है| कल को गए पूर्वांचल में मनाए जाने वाला पर्व छठ को प्रतिबंधित करना शुरू कर दे यह कहकर कि ठंढ की वजह से पानी में खड़े होकर अर्ग देने की वजह से लोगों मर रहे है, ये उचित नहीं है न? ये वहां की पुरानी परंपरा है जैसे तमिलनाडु की जल्लीकट्टू| इसलिए मुझे नहीं लगता कि सिर्फ जल्लीकट्टू को प्रतिबंधित करने से जीव जंतुओं का कल्याण हो जाएगा|

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