जैसा की हम सभी जानते है 14 अप्रैल को बाबा भीम राव आंबेडकर का जन्म दिवस मनाते है. सभी राजनितिक पार्टियाँ अपने अपने पक्षों के साथ अपनी हिस्सेदरी का दावा करती है, वैसे सबके पक्षों को सुनने के बाद एक ही सार निकलता है. बाबा को विशेषतौर पर संविधान निर्माता के तौर पर जाना जाता है वो भारत के पहले कानून मंत्री भी रहे है इसके साथ वो एक काबिल अर्थशास्त्री भी थे लेकिन उनकी एक और पहचान है कि वो दलित के बहूत बड़े नेता भी थे.
उन्होंने पूरे जीवन दलितों के उत्थान के लिए सकारात्मक संघर्ष किया, आज के नेताओ की तरह नहीं बल्कि पूरे जतन से संघर्ष और प्रयास किए. क्या राजनितिक दल सच में आंबेडकर के पहचान का फायदा उठाना चाहते है ? आरएसएस हो या बीजेपी, कांग्रेस, ओवैसी बधुओ की AIMIM या फिर मायावती की BSP क्यों न हो.
सभी राजनितिक दलों में अपने बाप की बपौती को पाने की होड़ लगी रहती है जिसमे सबके अपने अपने पक्ष होते है. मुझे याद आ रहा है जब मै बल्लभगढ़ में रहता था तब एक बात नोटिस की हुई थी वहाँ चौक का नाम ही आंबेडकर चौक है और उस चौक पर माल्यार्पण करने की बात हो या फिर बाकि के ताम झाम की वो दो मौके पर ही देखे जाते थे एक जब चुनाव आए और दूसरा जब अपनी बात सरकार से मनवाने की बात आए. सच तो यह भी है ये सब इसलिए है क्युकी वो तबका अब धीरे धीरे परिपक्व हो रहा है और बहूत सारी असमानताए धीरे धीरे कम होती जा रही है जैसे जैसे समय गुजर रहा है.
हाल में हुए लोकसभा चुनाव के परिणाम में उत्तरप्रदेश का परिणाम दलित जातियों के परिपक्वता का ज्वलंत उदहारण है जहाँ दलितों की मसीहा कहलाने वाली मायावती को 17 के 17 दलित सीटो पर मुह की खानी पड़ी. ऐसे परिपक्वता और कम होती असमानता के पीछे के कारण के सन्दर्भ में कुछ लोगो का मानना आरक्षण है तो कुछ लोग मंडलीकरण को श्रेय देते है. मेरा मानना भी ज्यादा मंडलीकरण के पक्ष में जाता है ना की आरक्षण के, इस विषय पर भी काफी लबी चौड़ी बाते हो सकती है लेकिन कभी और, नहीं तो वो मुद्दा रह जाएगा जो मै लिखना चाहता हु.
एक बात और है आपने भी नोटिस किया होगा हैदराबाद के मुसलमानों के शहंशाह कहलाने ओवैसी बंधुओ ने भी खूब जमकर उनको अपने पक्ष में करने की कोशिशे की है. उसके पीछे दो कारन है पहला हिन्दू धर्म को लेकर एक गलत अन्धविश्वास समाज के बीच फ़ैलाने की कोशिश की गई, जैसा कि हम सभी जानते है 1950 के दशक में अम्बेडकर बौद्ध धर्म के प्रति आकर्षित हुए और बौद्ध भिक्षुओं व विद्वानों के एक सम्मेलन में भाग लेने के लिए श्रीलंका गये इसके साथ उन्होंने भारत में बौध विहार भी खोले और म्यामार बर्मा भी गए और उन्होंने अपना धर्म परिवर्तन भी किया था बाद में. इसका मतलब ये बिल्कुल नहीं है कि वो हिन्दू धर्म की जातिगत बेड़ियों से हार गए थे बल्कि बहूत संघर्ष किया था दलितों के लिए.
वोटो का घ्रुविकरण का गैप के रूप में देखने की भूल कर रहे है क्युकी मुस्लमान+दलित की युगल जोड़ी महारष्ट्र और तेलंगाना जैसे प्रदेशो में जीत की संभावनाए बाधा देती है. ज्यादातर जगहों पर उन समूहों के वोट को पाने की लालसा में अपने साथ पोस्टर भी छपवाया था. हिन्दू समाज ने भी बहूत सारी सामाजिक बुराइयों की घोर निंदा कर आज यहाँ खड़ा किया है उम्मीद है आने वाले 50 वर्षो में वो भी ख़तम हो जाएँगे. लेकिन बाबा आंबेडकर का हिन्दू धर्म से मोहभंग के रूप में देखना लोगो की भूल है. क्युकी आंबेडकर ने हिन्दू समाज की सामाजिक कुरीतियों को लताड़ने के साथ साथ उन्होंने कहा था कि मुस्लिम समाज मे तो हिंदू समाज से भी अधिक सामाजिक बुराइयाँ हैं और मुसलमान उन्हें “भाईचारे” जैसे नरम शब्दों के प्रयोग से छुपाते हैं.
उन्होंने मुसलमानो द्वारा अर्ज़ल वर्गों के खिलाफ भेदभाव जिन्हें निचले दर्जे का माना जाता था के साथ ही मुस्लिम समाज में महिलाओं के उत्पीड़न की दमनकारी पर्दा प्रथा की भी आलोचना की थी. ठीक उसी प्रकार कांग्रेस अपने पक्ष में करने के लिए सदा तत्पर रहती है क्युकी उनका मानना है कि कांग्रेस के पहले कानून मंत्री थे. लेकिन एक बात ये भी सत्य है कि महात्मा गाँधी से मतभेद भी 36 के आकडे जैसे ही था.
इसी कांग्रेस द्वारा हिन्दू कोड बिल के मसौदे को रोके जाने के बाद अम्बेडकर ने मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया था जिसमे उत्तराधिकार, विवाह और अर्थव्यवस्था के कानूनों में लैंगिक समानता की मांग की गयी थी जो की बाद में एक एक करके लाई गई समयानुसार. ऐसे मै सारी पार्टियों के सन्दर्भ में बिन्दुए गिनवा सकता हु जो उनके सिधान्तो के विपरीत है, इसलिए बाबा भीम राव आंबेडकर किसी भी राजनितिक पार्टी के नेता नहीं थे वो हमारे देश के नेता था और उनके कार्यशैली पर हमें गर्व है.
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