भेदभाव के विभिन्न आयाम और उसकी सामाजिक प्रासंगिकता

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समाज में बहुत सारी चीजें रिलेटिव होती है जिसे परम (absolute) में मानना हमारी भूल होती है| रिलेटिव चीजों में ज्यादातर वो चीजें है जो हमारे समाज की चुनौतियाँ है जिसका ठीकरा अक्सर हम सरकार के ऊपर फोड़ते है चाहे बात गरीबी की हो, जातिवाद की हो, सामंतवाद की हो| ये सब जानते है गरीबी पूरा-पूरा 100% ख़त्म होना असंभव चीज है| आपको थोड़े समय के लिए मेरी बातें अजीब लगेंगी लेकिन इसी में मुझे सत्यता नजर आता है| इसका मतलब यह भी नहीं है कि हम निराशावादी हो जाए क्युकी कम करने की गुंजाईश हमेशा बनी रहती है| यह प्रकृति का नियम है| चुकी वामपंथी विचार वाले लोगों को लगता है कि बड़े लोगों से पैसे लूटकर रॉबिनहुड की तरह गरीबों में बाँट देने से गरीबी ख़त्म हो जाएगा तो शायद यह बहुत बड़ी भूल है| अगर वास्तव में कोई तानाशाही व्यक्ति यह काम करना भी चाहे तो यह क्षणिक (momentarily) होगा| लेकिन फिर अंतर पैदा होना शुरू हो जाएगा क्युकी विविधता कभी समानता की पक्षधर हो ही नहीं सकती| इसका मतलब यह बिलकुल नहीं है समानता को हम अपना लक्ष्य नहीं बना सकते|

ठीक ऐसा ही जातिवाद के साथ भी है| मूल समस्या है ‘भेदभाव’| जातिवाद उसका एक माध्यम मात्र है| चुकी आरक्षण के सन्दर्भ में दशकों से सुनने को मिलता है कि ‘भेदभाव’ पूरी तरह ख़तम नहीं हुआ है इसलिए इसे हटाया नहीं जा सकता है| यह रिलेटिव टर्म है कभी ख़तम नहीं होने वाली चीज है ही नही| इसके लिए बेशक एक दुसरे को मारो काटो और राजनितिक हथियार बनो| इसको कितना कम कर सकते है वो बहुत अच्छी बात है| मै ऐसा इसलिए कह रहा हूँ क्युकी मान लेते है कल गए जातिवादी भेदभाव ख़त्म हो जाए तो कल यही भेदभाव किसी दुसरे रूप में आएगा| यहाँ तक की वर्गीक भेदभाव आज भी हमारे समाज में है| वर्ग के आधार पर भेदभाव आज भी हमारे समाज में होता है| कभी कभी ऐसा होता आया है कि एक समय जो जातिगत भेदभाव का पीड़ित होता है वही अच्छा जॉब मिल जाने के बाद अपने ही लोगों के साथ वर्ग के आधार पर भेदभाव करने लगता है| यह भेदभाव का नया रूप है हो हमारे आम जीवन में एक्सिस्ट तो करता है पर दिखता नहीं है|

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यहीं नहीं हम स्त्री जगत को हमेशा से हमने सॉफ्ट रूप में देखा है| एक विशेषाधिकार जैसी चीजें देने की कोशिश की है| हमें लगता जरूर है कि परोपकार जैसी चीजें कर रहे है| लेकिन वास्तव में हम उनको सॉफ्ट मानकर, विशेषाधिकार देकर, समस्याओं के दौरान उन्हें अपराधमुक्त मानकर हम उन्हें कमजोर होने का एहसास करवाते है| यह हमारी तरफ से उनके साथ भेदभाव है जिसे महसूस नहीं कर पाते है| हमारा समाज उनकी आलोचना करने से हमेशा डरता है जो उनके और हमारे बीच अंतर को और गहरा करता है| ऐसा बिलकुल नहीं है कि स्त्रियाँ, मर्दों के साथ भेदभाव नहीं करती है| इस काम में बखूबी मर्द उनका साथ देते है| उदाहरण के रूप में, आपने बहुत कम ऐसे शादियाँ देखीं होंगी जहाँ लड़की का स्टेटस, लड़के से ज्यादा हो| क्युकी लड़कियां हमेशा अपने से ऊपर वर्ग के लड़कों को ही ढूढ़ती है| जब भी लड़कियों की शादी की बात आती है तो यह अपेक्षा की जाती है कि लड़का हमेशा उससे धन और शिक्षा के क्षेत्र में ऊपर हो| यह कहानी आपके घर की भी है और मेरे घर की भी है| यह स्त्रियों का मर्दों के साथ भेदभाव करने का एक उदहारण मात्र है|

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भेदभाव के और भी अलग अलग स्वरुप है| जैसा कि ऊपर बताया कि एक समय जो व्यक्ति जातिगत भेदभाव का पीड़ित होता है वो अच्छी जॉब और जीवनशैली पाने के बाद अपने ही लोगों के साथ वर्गीक भेदभाव करना शुरू कर देता है| ठीक वैसे ही एक समय जो स्त्री, पुरुष के लैंगिक भेदभाव की पीड़ित होती है वही स्त्री एक समय बाद जब अपनी जीवनशैली को जीना शुरू कर देती है वो भी अपने स्त्री वर्ग से भेदभाव करना शुरू कर देती है| उदहारण के रूप में जब उसकी खुद की लड़की होती है तो अपने लड़के के अपेक्षाकृत भेदभाव करना शुरू कर देती है| वो शायद यह भूल जाती है कि जब वो बच्ची थी तो उसे भी इसी भेदभाव का सामना करना पड़ा था| अक्सर हमारे समाज में सिर्फ पुरुष वर्ग को दहेज़ जैसी चीजों के लिए दोषी माना जाता है| लेकिन सूक्ष्मता से अगर देखे तो अप्रत्यक्ष रूप से उस प्रक्रिया में नारी वर्ग भी शामिल होती है| दहेज़ जैसी चीजें अकेले पुरुष का फैसला कभी नही होता है बल्कि शादी के मामलों में अक्सर औरतें नेतृत्व करती नजर आती है|

ऐसा ही भेदभाव का एक और तत्व है ‘धार्मिक’| धार्मिक भेदभाव कभी अल्पसंख्यक या बहुसंख्यक जैसी तत्वों पर निर्भर नहीं करता है| यह हमारी भूल होती है कि हम इस रूप में देखते है| हिंदुस्तान में अगर मुस्लिम बहुसंख्यक होते और हिन्दू अल्पसंख्यक होते तो यह संघर्ष तब भी होता| क्युकी हमारे देश धार्मिक भेदभाव सिर्फ हिन्दू और मुस्लिम के बीच थोड़े ही हुआ है| म्यांमार में मुस्लिम बनाम बौध, पंजाब में सिख बनाम हिन्दू, श्रीलंका में हिन्दू बनाम बौध ये ऐसे इतिहास के उदहारण है जो यह पुष्टि करता है धार्मिक भेदभाव और अंतर सिर्फ हिन्दू बनाम मुस्लिम नहीं है| बल्कि सभी धार्मिक समुदायों के साथ है जिसे हम देख नहीं पाते है| कहीं ज्यादा है और कहीं कम है| यही कारण है कि हमें इन सबको रिलेटिव कहा था परम (absolute) नहीं| जैसा की जाती और लैंगिक आधार पर ऊपर हमने देखा कि उनके भीतर आपसी संघर्ष भी है| ठीक वैसे धर्म के अन्दर भी आपसी संघर्ष है|

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जैसे मुस्लिम समुदाय में शिया, सुन्नी, हनफी (देवबंदी, बरेलवी), अहमदिया जैदी आदि जैसे अलग अलग पंथ है जो एक दुसरे के साथ भेदभाव करते है| ठीक वैसे ही हिन्दू धर्म के अंदर तमाम जातियां है जैसे ब्राम्हण, राजपूत, दलित, कुर्मी आदि| इन जातियों के अन्दर भी अलग अलग खांचे बटें हुए है जो एक दुसरे के साथ भेदभाव करते है| ऐसे ही बौध धर्म के अंदर भी अलग अलग पंथ है जैसे महायान, नवयान, थेरवाद और वज्रयान जिनके सिधांत आपस में संघर्ष करते नज़र आते है| इसके अलावां क्षेत्रीय आधार पर भी भेदभाव का एक रूप देखने को मिलता है| अक्सर हम देखते है कि नार्थईस्ट या भी पूरब के लोग जब एक जगह से दुसरे जगह रोजगार या शिक्षा के पलायान करते है तो उन्हें इसका सामना करना पड़ता है| उदहारण के लिए पूरब यानी बिहार, झारखण्ड और बंगाल आदि के लोग जब दिल्ली या मुंबई जाते है तब उन्हें इस भेदभाव का सामना करना पड़ता है| इसके अलावां भाषाई भेदभाव भी एक तत्व है जो भेदभाव जैसी चीजों की पुष्टि करता है|

भाषाई भेदभाव अक्सर नार्थ बनाम साउथ होता है क्युकी नार्थ के लोगों ने हिंदी का अधिपत्य स्वीकार्य कर चूका है| दक्षिण भारत के लोग अपने भाषा को बचाने के लिए आज भी संघर्ष में है| यह संघर्ष उस भेदभाव को जन्म देता है जिसे उत्तर भारत का व्यक्ति तब महसूस करता है जब वो दक्षिण में जाता है और दक्षिण भारत का व्यक्ति तब महसूस करता है जब उत्तर आता है| इस संघर्ष से भेदभाव का एक और रूप सामने आता है जो अक्सर खानपान और रंग में रूप में दिखता है| ठीक ऐसा ही भेदभाव सामाजिक रूप से तब दीखता है जब बात आदिवासी बनाम गैर-आदिवासी का होता है| इसका राजनितिक मोहरा वामपंथ और दक्षिणपंथ के रूप में बनता है| असल में वो सामाजिक अंतर है| दिल्ली जैसे महानगरों में घुमंतू आदिवासी सिलबट्टे और किचन के औजार बनाते उनकी पीढियां बदल जाती है लेकिन हम उन्हें अपने समाज में स्वीकार्य नहीं कर पाते है| ऐसा नही है कि यह प्रक्रिया एकतरफा है| वो लोग भी गैरादिवासी लोगों को अपने समाज में स्वीकार्य नहीं करते है|

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ऊपर जितने भी पैरामीटर्स पर भेदभाव वाली चीजों को उदहारण के साथ समझा वो असल में सब एक दुसरे के पूरक है| सामाजिक भेदभाव, लैंगिक भेदभाव, क्षेत्रीय भेदभाव, रंग के आधार पर भेदभाव, भाषाई भेदभाव, जातिगत भेदभाव और धार्मिक भेदभाव जितने भी है ये सब के सब एक दुसरे के पूरक (complement) है क्युकी भेदभाव हमेशा बाइनरी के रूप में एक्सिस्ट करता है| इनमे से जब भी दो तत्व भेदभाव के योधा होते है तब बाक़ी के तत्व एक दुसरे के साथ संधि कर उस युद्ध के भागीदारी होते है| उदाहरण के रूप में जब भी भाषाई भेदभाव उत्तर भारत बनाम दक्षिण भारत होता है तो उत्तर भारत के तमाम जातियां, धर्म, स्त्री-पुरुष सब के सब संधि करके दक्षिण भारत के लोगों का मुखालफत करते है| दूसरा उदहारण जब भी कोई बिहार, झारखण्ड, बंगाल या उड़ीसा का व्यक्ति दिल्ली या मुंबई में क्षेत्रीय भेदभाव का सामना करना होता है तो उस वक्त दिल्ली या मुंबई के सारे जाती, धर्म और भाषा के लोग संधि करके पुरबिया लोगों का विरोध करते है|

अंत में निष्कर्ष के रूप में यही कहना चाहूँगा कि ये सारे तत्व रिलेटिव और एक दुसरे के पूरक है| पीड़ित अक्सर आगे चलकर शोषक बन जाता है| इस पैटर्न को उदहारण के साथ हमने स्त्री, जाती और धर्म के सन्दर्भ में ऊपर देखा| यह चीज सामंतवाद पर भी लागू होती है| अक्सर लोग सामंतवाद का विरोध करते-करते आगे चलकर खुद सामंतवाद का एक हिस्सा हो जाते है| गरीबी का नेतृत्व करने वाले आगे चलकर अमीर बनते है और वो खुद उसी वर्ग का हिस्सा हो जाते है जिसके विरोध के अमीर बनते है| भेदभाव सिर्फ जातिगत नहीं होती बल्कि इसके और भी तत्व है| इसलिए ऐसे तत्वों को लेकर आपस में लड़ना और तोड़-फोड़ करके वर्त्तमान को प्रभावित करना हमारी बेवकूफी है|

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