घनघोर संकट में छात्र राजनीती

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छात्र राजनीती आजादी के बाद से लेकर आज तक हमेशा काठ का घोडा बन के रह गई है| सबने समय-समय पर अपनी जरूरते पूरा करने के लिए उपयोग किया| आज भी कर रहे है| हो सकता है इस पर कुछ लोगों के मन में 1975 वाला छात्र आन्दोलन की बातें याद आ रही हो, मंडल कमीशन के दौरान आन्दोलन की याद आ रही हो, हाल के कन्हैया वाली कहानी याद आ रही हो जिससे लगता होगा कि छात्र राजनीती हमेशा स्वतंत्र रही है| लेकिन अगर एक दुसरे एंगल से देखे तो लगेला कि कही न कही गुलामी तो झलकती ही है|

आजादी के समय जब वरिष्ठ नेता जेल चले जाते थे तब सारे काम की जिम्मेदारी छात्र नेताओं पर ही आती थी| इसमें कोई दो राय नहीं है छात्र नेता अपने काम को सौ प्रतिशत देते थे| पूरी उर्जा के साथ काम मुक्कमल करते थे| आजादी के पहले की बात कुछ और थी| लेकिन जैसे आजादी मिली तब से बंधुआ बन गए| अगर नहीं बनते तो आजादी के बाद वाली पहली सरकार में उस तरह से मनमानी नहीं चलती जैसी चली|

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उसके बाद फिर मौका आया जब जयप्रकाश नारायण जी ने आन्दोलन के लिए आवाहन किया| वो एक सैधांतिक व्यक्ति थे| गुजरात के मेस की रोटी से उठी चिंगारी पटना यूनिवर्सिटी जा पहुची| छात्रों ने एकबार फिर दम लगाया और इंदिरा गाँधी की सरकार को उखाड फेका| छात्रों ने जरूरत के मुताबिक वहाँ पर भी अपना पूरा योगदान दिया| लेकिन उसके बाद उनके हाथ सिर्फ निराशा ही लगी| यहाँ पर जयप्रकाश नारायण जी का भी वही हाल हुआ जो गाँधी जी के साथ हुआ था|

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यहाँ पर मोरारजी जी का वही तेवर था जो वहाँ नेहरु जी का था| सिधांतों के पक्के जे.पी. जी की आवाजें जैसे कमजोर पड़ने लगी वैसे ही कांग्रेस में छात्र नेताओं की भर्ती शुरू हो गई| इस काम की बागडोर संजय गाँधी के हाथों में थी, जिनका सिधांत था कि डंडे के बल पर सबकुछ कण्ट्रोल किया जाए| उस वक्त छात्र राजनीती का अपराधीकरण भी हुआ| सत्ता के बंदरबाट में उस वक्त भी छात्र निराश ही रहे| छात्रों की आन्दोलन से बनी सत्ता पर उनका कुछ प्रभाव नहीं रह गया था|

उसके बाद तुरंत पलटवार करके जैसे ही राजीव गाँधी ने चुनाव जीता और सरकार बनाई, तब उस समय हो रहे तमाम भ्रष्टाचार (विशेषतौर पर बोफोर्स) को केंद्र में लेते हुए वी.पी. सिंह ने मोर्चा खोलना शुरू कर दिए थे| उस समय भी छात्रों ने अपनी उम्मीद नहीं खोया| उन्हें उम्मीद के रूप में देखते हुए दोबारा जबरजस्त समर्थन दिया| फिर वही कहानी, मंडल कमीशन को जल्दबाजी में लागु करने की वजह से छात्र वहाँ से दो धड़े में टूट गए| पहला गुट आरक्षण विरोधी बना और दूसरा बाबरी मस्जिद की ओर रवाना हो गया| वहाँ भी उन्हें वही निराशा हाथ लगी|

आज भी वही हाल है| हैदराबाद यूनिवर्सिटी में आत्महत्या पहले भी हुआ था आज भी हुआ| जे.एन.यू. में अफजल की बरसी पहले भी मनाते थे और इस बार भी मनाया| भारत मैच पहले भी हारती थी और इस वर्ल्डकप में भी हारी, श्रीनगर में गैर कश्मीरी लड़के पहले भी पढ़ते थे और आज भी|

लेकिन ऐसा क्या है जिससे कहानी हैदराबाद से जे.एन.यू. आती है फिर जाधवपुर यूनिवर्सिटी को स्थानातरित होती है| फिर इलाहबाद यूनिवर्सिटी को किस करते हुए NIT श्रीनगर पहुच जाती है| हर जगह एक ही सिधांत से कहानी शुरू हुई| अगर थोडा मैदान से बाहर बैठकर एकबार देखने की कोशिश करेंगे तो पाएँगे कि आज फिर छात्र काठ का घोडा कहिए या माध्यम कहिए, बनते जा रहा है|

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लास्ट लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने अन्ना आन्दोलन और भ्रष्टाचार को केंद्र में रखते हुए कांग्रेस को चारो खाने चित की थी| और अब कांग्रेस चुनावी वादें और छात्रों को केंद्र में रखकर उसी काम में लग गई है| ध्यान रखिए जब इमरजेंसी जैसी आपदाओं की वजह से सत्ता खोने के बाद भी अभूतपूर्व कमबैक(400+ सीट) कर सकती है तो UPA के दौरान की घटनाएँ उसके मुकाबले कुछ भी नहीं है|

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