किसानों की बत्तर हालात के लिए सभी सरकारें जिम्मेदार

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अगर मै यह कहूँ कि किसानों की बिगड़ी हालात के लिए सभी सरकारें जिम्मेदार है तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी| मै इस कथन को मजबूत करने के लिए कुछ तर्क पेश करता हूँ जिसपर गौर फरमाना बेहद जरूरी है| अपनी बातें रखने से पहले मै यह सूचित कर देना चाहता हूँ कि इसका मतलब यह भी नहीं है कि मध्यप्रदेश में हुए किसानों के साथ बर्बर हत्या को सही ठहराया जा सके| वो पुलिसिया कार्यवाई कल भी गलत थी आज भी गलत और आने वाले कल भी गलत ही रहेगी| किसी भी लोकतान्त्रिक देश में किसी आन्दोलनकारी पर गोली चलाना जायज नहीं है बशर्ते उससे राष्ट्रिय सुरक्षा को आंच न आए|

मेरा पहला तर्क इतिहास से जुडा हुआ है| यह हम सबको पता है कि जिस देश ने औपनिवेशिक शासन किया है उसने शासित देश का और देश की अर्थव्यवस्था का दोहन ही किया है| अंग्रेजों ने अपने यूरोपियन देशों के बाजार के हिसाब से ही भारत में खेती जबरन करवाते थे| बहुत सारी समस्याएँ थी| अंग्रेजों को हमारी खेती के पोटेंशियल का अच्छा खासा एहसास था| यही कारण है कि जब तक थक नहीं गए तब तक शासन किया|

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जब देश आजाद हुआ तक ज्यादातर नेता सत्ता के नशे में अभिभूत थे जिससे बहुत सारी चीजें अछूती रह गई| उस समय समस्या यह थी कि खेती और उद्योग में किसे प्राथमिक बल के रूप में देखे? सत्ता के नशे में पश्चिमी देशो का अनुसरण करने में बिल्कुल पीछे नहीं रहे| यह देश के ऊपर निर्भर करता है कि गुलामी के बाद आजाद देश किस फैक्टर को प्राथमिकता देता है| हो सकता है जिस देश का अनुसरण किया होगा वहां की जलवायु भूमि खेतिसंगत हो ही नहीं| लेकिन हमारा तो था न? जबकी एक बात और यह भी है कि उद्योग लायक हमारे पास कोई संसाधन तक नहीं थे और नाही स्किल्ड लोग फिर उद्योग को क्यों चुना गया?

इस पर बहुत सारे इतिहासकार आज भी गहरी चिंता व्यक्त करते है जिसपर चर्चाएँ आज भी होती है| समय के अनुसार हम खेती से उद्योग और बाक़ी के सेवाओं की ओर शिफ्ट कर सकते थे| अगर खेती को उस समय प्राथमिकता दी गई होती तो न सिर्फ लोगों की आर्थिक हालात बल्कि कावेरी नदी जैसे तमाम नदियों के झगड़ो का समाधान भी किया गया होता जो ऐसी चिंता है जिसका संबंध कृषि से बिल्कुल सीधा है|

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दूसरी गलती तब हुई जब आजादी के तुरंत बाद खेती को पहले बल के रूप में ना देखने के बाद भी खेती सुधार के कोई भी तत्परता से काम नहीं हुआ| वैसे औपचारिक रूप से बहुत सारी चीजें हुई है लेकिन तत्परता की कमी रही है| अगर खेती तो प्राथमिक बल नहीं भी दिया गया तो कम से कम खेती से जुड़े प्रावधानों को सही और इफेक्टिव बनाना चाहिए थे| उदहारण के रूप में भूमि सुधार, सिंचाई व्यवस्था, राज्य और केंद्र के बीच नदियों को लेकर विवाद आदि आदि| इन सब पर बाद में रिफार्म लाने चाहिए थे जो जमीन पर उतारा जा सके| अगर बढ़िया से संज्ञान लिया गया होता तो शायद ये समस्याएं आज नहीं होती|

ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि किसानों द्वारा आवाजें नहीं उठाई गई| कावेरी नदी जल विवाद बढ़िया उदहारण है जो दर्शाता है कि हमेशा आवाजें उठाई गई लेकिन कभी राजनीती की शिकार हुई तो कभी लोकतंत्र की खामियों की| परिणाम यह हुआ कि देश की तमाम नदियाँ केंद्र और राज्य के बीच सैंडविच बनकर रह गई और उद्योग उसमे कचरा डाल कर दूषित करता गया| खैर पिछले साल इसपर पहल हुई जिसमे यह इस बात पर चर्चा हुई कि इसे कनकरंट लिस्ट में डाला जाए|

मेरे समझ से तीसरी गलती हुई कि किसानों को आजादी के बाद से उलझाया ही गया| उसे हमेशा लालच देकर झींटा गया| मै एक उदहारण की मदद से अपनी बात रखूँगा कि कैसे किसानों को नीतिगत लाभ देकर उसकी स्तिथि और बदत्तर की गई| किसानों को यूरिया पर बेपनाह सब्सिडी दी गई| यह किसानों के भला करने के उद्देश्य तो एकमात्र बहाना था| इसमें भी जबरजस्त राजनीती और बाजारवाद इसी कांग्रेस ने पैदा किया था| यूरिया खाद पर सब्सिडीयाँ दी गई जिससे किसान आसानी से खरीद सके| और सब्सिडी का पैसा सरकार उत्पादन के आधार पर सीधे कंपनी के मालिकों के जेब में भरी जाती थी|

सवाल यह उठता है कि क्या खेती के लिए सिर्फ यूरिया ही काफी है? बाक़ी के खाद जैसे NPK और पोटाश पर क्यों नहीं मिला| यह एक बात हो गई| दूसरी बात अपने दोहरे मुनाफे के लिए सरकार ने सब्सिडी तो दे दिया लेकिन इसका एक नकारात्मक प्रभाव खेती पर पड़ा| सस्ते मिलने की वजह से किसानों ने अंधाधुंन इसी खाद का उपयोग किया| इससे मिट्टी में यूरिया की मात्रा इतनी बढ़ गई कि उत्पादन पर इसका असर दिखने लगा| वो तो शुक्र है जो हाइब्रिड जैसे बीजों का उपयोग शुरू हो गया जिसने इस समस्या को ढक लिया नहीं तो स्तिथि और भयानक हो सकती थी|

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किसी भी क्षेत्र में अब जितनी भी कानूनें बन रही है उसमे उस योजना या प्लान के बारे में शिक्षित करने वाला कंपोनेंट बहुत ही महत्वपूर्ण हो चूका है| कृषि के क्षेत्र में कांग्रेस ने हमेशा इसे इग्नोर किया है जिसका परिणाम हमारे सामने है| किसानों को कभी शिक्षित करने का कोई ऐसा प्लान नहीं बन पाया जो जमीनी स्तर पर उतारा जा सके| हालाँकि सरकार ने एक मर्तबा कोशिश की थी कि कृषि के लिए सुझाव दूरदर्शन के माध्यम से लोगों तक पहुचाया जा सके लेकिन इसका कुछ ख़ास असर नहीं दिखा| वास्तविकता यह है कि भारत में खेती की जमीने हर जगह अलग अलग है जहाँ पर अलग अलग पोटेंशियल है| किसानों को ये बातें नहीं बताई गई और नहीं कुछ उस प्रकार की योजनाएं बनी जो उस मुताबिक हो| इसे समझने के लिए एक उदाहरण लेते है| तमिलनाडु और कर्नाटक के बीच हाइट, फीट पर कावेरी नदी की लड़ाइयाँ तो हुई लेकिन फसलों पर ध्यान नहीं दिया गया|

जब यह सवाल तमिलनाडु पक्ष से पूछा जाता है कि क्या साल में तीन-तीन फसले उगाना तर्कसंगत है? तमिलनाडु पक्ष के लोग उत्तर देते है कि अंग्रेजो के ज़माने से कावेरी नदी का पानी ही उपयोग करके साल में तीन-तीन खेती करते आए है| और जो भी तीन खेतियाँ करते है उसमे पानी की भरपूर जरूरत होती है| जिन्हें अंग्रेजी में ‘वाटर हंगर क्रॉप’ कहते है| ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कर्नाटक पानी से बम-बम है| दिक्कत उसे भी है| तमिलनाडु पानी को बहुत सावधानी से उपयोग करने के बजाए अंधाधुंन शोषण करते रहे है| और डेल्टा बनाने के सह पर पूरा पानी समुद्र में भी बहाते है|

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आजादी के बाद भी तमिलनाडु का एक विषम तरह की खेती करना और इतिहास की दुहाई देना कहाँ तक जायज है? यही नहीं सरकार ने भी ऐसा करने के लिए बल दिया| चुनिन्दा फसलों पर MSP लगाई जिससे लोगों ने सुरक्षा की वजह से सिर्फ उन्ही फसलों को उगाया जिसे बाद में जाकर किसी गोदाम आदि में सड़ा पाया जाता है| संतुलित खेती की आवश्यकता है| किसान दाल दलहन और तिलहन की खेती करे जो हमारे आयात को कम कर सकेगा| इसके फलस्वरूप वित्तीय घाटा में भी कमी आएगी| इसमें अपेक्षाकृत पानी की कम जरूरत होती है और लाभ भी ज्यादा है|

कांग्रेस के समय एक और बड़ी गलती हुई थी कि पानी की अच्छी व्यवस्था नहीं करवा पाई थी| अनुपम मिश्र जी ने अपने किताब में राजस्थान के पानी व्यवस्था को लेकर बहुत ज्यादा खुश रहे थे| पानी के पहरुआ कहे जाने वाले मिश्र जी का कहना था कि यहाँ पानी नहीं होने पर भी लोग कितना बढ़िया से व्यवस्थित करते है जबकि जहाँ है वहाँ पर लोग बर्बाद करते है| हालाँकि महाराष्ट्र में सरकार ने खासकर विदर्भा और मराठवाडा के लिए बढ़िया पानी व्यवस्था के कुछ अच्छे कदम जरूर उठाए है|

लेकिन ज्यादातर जगह को इग्नोर किया जाता है| पानी की सुनियोजित व्यवस्था नहीं हो पाने के कराण फसले प्रभावित होती है और उत्पादन अपेक्षित नहीं हो पाती है और किसान ऋण जाल में फसते चले जाते है| जब ऐसा समय आता है तो एक कर्ज माफ़ी जैसे खतरनाक राजनितिक हथियार हथियार का उपयोग करके भरपूर राजनीती की जाती है| यह सबको पता है कि कर्ज माफ़ी किसानों की समस्याओं का हल नहीं है| इससे अर्थव्यस्था भी प्रभावित होती है और भविष्य में मिलने वाला किसानों का ऋण भी उतना ही प्रभावित होता है|

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