भारत सरकार द्वारा एक दिशा-निर्देश दिया गया है जिसमे यह कहा गया है कि 2030 के बाद सिर्फ और सिर्फ इलेक्ट्रिक गाड़ियाँ ही बेचीं जाएंगी| ऑटोमोटिव इंडस्ट्रीज में एकदम से खलबली मची है| सब अपने अपने रास्ते अख्तियार कर रहे है जिससे वो आगे की रोड मैप तैयार कर सके| ऑटोमोटिव इंडस्ट्रीज का ध्यान सिर्फ और सिर्फ इलेक्ट्रिक गाड़ियों पर जा टिका है| ऐसे में बहुत सारे सवाल खड़े हो रहे है| पहला सवाल यह है कि इलेक्ट्रिक व्हीकल का कांसेप्ट भारत के लिए कैसा होगा? दूसरा सवाल इससे लघु उद्योग और छोटे-छोटे स्टार्टअप पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा? तीसरा, क्या एलेक्ट्रिव व्हीकल पर्यावरण के नज़रिए से सबसे उत्तम स्टेप है एमिशन को कम करने के लिए? चौथा, क्या भारत इसके लिए लिए तैयार है? पांचवां भारत के अर्थव्यवस्था पर कैसा प्रभाव पड़ेगा? छठा, इलेक्ट्रिक व्हीकल कहीं ऐसा तो नहीं कि 21 वीं शताब्दी के नए राजनितिक दाव के बीच हम फंस रहे है? एक-एक करके हम सारे सवालों के जवाब ढूंढने और समझने की कोशिश करते है|
इसके लिए भारत सरकार की तरफ से कुछ प्लान किया गया है और रोडमैप तैयार किया गया है| नेशनल इलेक्ट्रिसिटी मोबिलिटी मिशन प्लान नाम से योजना का रूप दिया गया है| इसका लक्ष्य यह तय किया गया है कि 60 से 70 लाख नई इलेक्ट्रिक गाड़ियों को तैयार किया जाए| सरकारी ओब्जेक्टिव की माने तो उनके चार मुख्य बिंदु है| पहला है कि पर्यावरण पर पड़ रहे नकारात्मक प्रभाव को यह एक चुनौती वाला स्टेप साबित होगा| दूसरा बिंदु है घरेलु उत्पादक क्षमता में वृद्धि होगी| तीसरा यह दिया हुआ है कि नॉइज़ गाड़ियों का पहले के अपेक्षा कम होगा| चौथा यह कि राष्ट्रिय उर्जा सुरक्षा के नजरिए से इलेक्ट्रिक व्हीकल मिशन का प्लान बेहतरीन है| ये चारों बिंदु कितना हद तक ठोस है, इस लेख में इसपर भी विमर्श किया जाएगा|
सरकार द्वारा जारी किए गए उपरोक्त सभी बिन्दुओं पर एक एक करके बातें की जाएंगी| पहले बिंदु जिसमें यह कहा गया है कि इससे पर्यावरण को लाभ होगा| एमिशन कम होगा| यह बात सही भी है क्युकी भारत हमेशा से अंतराष्ट्रीय स्तर पर अपने कमिटमेंटस को लेकर जागरूक रहा है और जवाबदेही भी रहा भी रहा है| पेरिस समझौते में किए गए वादों को पूरा करना भी भारत का ही दायित्व है| इसलिए जरूरी है कि एमिशन को कम किया जाए| लेकिन यहाँ मेरी चिंता यह है कि हो सकता है कि गाड़ियों से निकलने वाली एमिशन कम हो जाए लेकिन ‘वेल टू रोड’ एफिशिएंसी शायद और घट जाए| इसके पीछे कारण यह है कि इलेक्ट्रिक व्हीकल चलाने के लिए आखिरकार बैटरी को चार्ज तो करना ही पड़ेगा| चार्ज करने के लिए भी उर्जा की जरूरत होगी| हमारी नवीनकरणीय उर्जा की उतनी क्षमता नहीं है बिजली पैदा कर सके जो घर और गाड़ी दोनों के लिए पर्याप्त हो|
यहाँ पर दो नकारात्मक प्रभाव पड़ सकते है| पहला समाजिक और दूसरा पर्यावरणीय| पहला सामाजिक यह पड़ेगा कि गाँव-देहात में जिस तरह से बिजली की पहुच बढ़ी है हो सकता है उसकी कटौती शुरू होनी शुरू हो जाए| क्युकी उत्पादन का कोई और श्रोत है नहीं और उपभोक्ता की डिमांड और बढती ही चली जाएगी, ऐसे में शहरी क्षेत्रों में बढ़ती जरूरतों को पूरा करने के लिए गाँव और शहरों के बीच कहीं फिर से बिजली की अंतर पैदा न हो जाए| दूसरा, एकबार को मान भी लेते है कि भारत सरकार इसकी डिमांड को पूरी करने के लिए और तत्पर हो जिससे कहीं कटौती न करना पड़े| ऐसे में सरकार को भारी मात्रा में कोयले का उपयोग करके बिजली बनानी पड़े| अगर ऐसा होता है तो कोयले का उपयोग कर बिजली बनाना और फिर उस बिजली से चार्ज करके गाड़ीयों को रोड पर दौड़ना मुर्खता से सिवाय और कुछ नहीं हो सकता है| ऐसा इसलिए क्युकी यह तय बात है कि पर्यावरण के नजरिया से कोयला बाक़ी के फ्यूल पेट्रोल और डीजल के मुकाबले बहुत ज्यादा हानिकारक होता है| यानी कि ज्यादा एमिशन देता है| कहीं ऐसा न हो कि घूम फिर के फिर से जिसको कम करने के लिए कदम उठा रहे है उसका और अधिक बढ़ना शुरू जाए|
ऐसे में यहाँ एक बढ़िया सवाल यह पैदा होता है कि सौरउर्जा और बाक़ी के उर्जा के नवीकरणीय श्रोतों से भी तो बिजली का उत्पादन कर ही सकते है फिर मै बार-बार कोयले के बारे में जिक्र क्यों कर रहा हूँ? ऐसे में मेरा जवाब एकदम सीधा यही होगा कि आज भी उर्जा के मुख्य श्रोतों में सबसे ज्यादा कोयले की सहभागिता होती है| एनर्जी कॉन्ट्रिब्यूशन में कोयले से 55%, 30% आयल, 9% नेचुरल गैस और मात्र 2% नवीकरणीय उर्जा का कॉन्ट्रिब्यूशन होता है| इसके अलावां कोयले में उर्जा प्रदान करने की क्षमता नवीकरणीय उर्जा से ज्यादा होता है| वायु उर्जा के केस में मौसम सही हुआ और हवा बही तभी उर्जा पैदा होती है| सौर उर्जा के केस में अगर अच्छी धुप निकली तभी उर्जा पैदा होती है| कहीं न कहीं नवीकरणीय उर्जा बाक़ी के पैरामीटर पर निर्भर रही है| कोयले से उत्पन्न उर्जा आसानी से कंट्रोल की जा सकती है| यही कारण है कि ज्यादातर इंडस्ट्रीज कोयले को सबसे ज्यादा महत्ता देते है| कितनी भी बाक़ी के उर्जा के श्रोत क्यों न आ जाए लेकिन कोयले के पोटेंशियल को नकारना शायद बहुत आसान नहीं है|
ऐसे में अगर इलेक्ट्रिक व्हीकल का आगमन प्राथमिक रूप से होता है तो शायद हो सकता है कि भारत में कोयले की खपत और अधिक बढे| इसके दो नकारात्मक प्रभाव पड़ेंगे| पहला आर्थिक प्रभाव पड़ेगा| कोयले की बढती खपत को पूरा करने के लिए कोयले की मांग और बढ़ेगी| हो सकता है कि ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों से आयात होने वाले कोयले में वृद्धि हो| ऐसे में डॉलर की खर्च बहुत ज्यादा बढ़ जाएगी| यह आर्थिक रूप से भारत से लिए सही नहीं होगा| यहाँ पर एक और काउंटर प्रश्न यह खड़ा ही किया जा सकता है कि पहले भी तो क्रूड आयल का आयात करते ही रहे है| इसका जवाब यही होगा कि यहाँ खर्चे डबल हो जाएँगे| पहला, पहले सिर्फ हम क्रूड आयल का आयात करते थे लेकिन अब कोयले के साथ साथ बैटरी में उपयोग होने वाले लिथियम का भी आयात करना पड़ेगा क्युकी भारत के पास लिथियम का कोई श्रोत नहीं है| दूसरा, क्रूड आयल की कीमत अंतराष्ट्रीय बाजार में दिनों दिन घटती जा रही है| इसकी मांग और कम होती जाएगी क्युकी दुनिया के बाकी के देशों में इसकी खपत कम हो रही है| जबकी दूसरी तरफ 2013 के मुकाबले लिथियम की कीमत में दुगने से ज्यादा की उछाल पाई गई है|
इसका दूसरा नकारात्मक प्रभाव यह पड़ेगा कि शायद हो सकता है कि अगर ओवरआल देखे तो इलेक्ट्रिक व्हीकल का कांसेप्ट और ज्यादा एमिशन छोड़े| रोड पर गाड़ी के माध्यम से शायद हो सकता है कि कम हो लेकिन बिजली उत्पादन क्षेत्र में बढ़ते दबाव के कारण कोयले का शोषण हो, जोकि पर्यावरण के लिए ज्यादा हानिकारक हो सकता है| यह लोगों का भ्रम मात्र है कि पूरी तरह से इलेक्ट्रिक पर हम शिफ्ट हो सकते है| शहरों में ऑफिस आने जाने की नजर शायद कुछ दिन तक चल जाए लेकिन ऑफरोडिंग साधनों की मांगे पूरी न कर पाए| अगर करती भी है तो बहुत ज्यादा मेंटेनेंस मांगेगी| हो सकता है टेस्टिंग और शुरू में उस स्तर के पॉवर टार्क दिखे लेकिन बहुत ज्यादा दिन तक उसे चला पाना वास्तव में मुश्किल होगा| सबसे ज्यादा एमिशन ट्रक से होता है क्युकी बेसक आज बिना बीएस नियम वाले ट्रक बन गए है लेकिन बहुत सारे पुराने ट्रक बीएस नियम के पहले के है| भारत सरकार एक बार यह VVMP(वोलंटरी व्हीकल फ्लीट मॉडर्नआइजेसन प्रोग्राम) लांच किया था, जिसमें यह कहा गया था कि पुरानी गाड़ियों को सब्सिडी के तहत स्क्रैप करवाया जाएगा लेकिन लागू नहीं किया गया|
इसके अलावां इससे सबसे ज्यादा प्रभावित भारत का लघु उद्योग होगा| इलेक्ट्रिक व्हीकल आने की वजह से I.C. इंजन गाड़ी से बाहर आ जाएगा| लेकिन इंजन बहुत सारे पार्ट्स से मिलकर बना होता है जिसके अलग अलग छोटे-छोटे लघु उद्योग है जो नकारात्मक रूप से प्रभावित होंगे| इंजन में उपयोग होने वाला पिस्टन, पिस्टन रिंग, सिलिंडर, वाल्व आदि बहुत सारे पार्ट्स के जो भी लघु उद्योग होने वो बंद होने के कगार पर होंगे क्युकी डिमांड अचानक से ख़त्म हो जाएगी| ऐसे में इससे जुड़े लोग निश्चित रूप से बेरोजगार होंगे| दूसरी ओर कहा यह जाता है जैसा कि सरकार ने अपने योजना के ऑब्जेक्टिव में लिखा है कि घरेलु उत्पादक के लिए मौका होगा| पार्ट्स के उद्योग बंद करके नए बैटरी के लघु उद्योग को पोटेंशियल के रूप में देखना शायद उचित नहीं है| लोगों को शिफ्ट करना भी आसान नहीं होगा| मैकेनिकल इंजिनियर की डिमांड ना के बराबर हो जाएगी| डायनामिक्स और एयरोडायनामिक आदि में बेसक स्कोप बना रहेगा लेकिन इंजन की मटेरियल टेक्नोलॉजी का पतन हो जाएगा| इससे सम्बंधित लोगों पर दबाव होगा कि वो इलेक्ट्रिक और मेकाट्रोनिक इंजिनियर के बराबर इलेक्ट्रिक का ज्ञान खुद विकसित करे नहीं तो उन्हें निकाले जाने की भी संभावनाएं है|
अंतिम सवाल जिसमें यह शक रहता है कि कहीं हम 21वीं शताब्दी के दुनिया के नए राजनितिक समीकरण का हिस्सा तो नहीं बन रहे है| यह शक जायज भी है| ऐसा इसलिए क्युकी यह मोमेंटम दुनिया में बनाई गई है कि इलेक्ट्रिक व्हीकल की तरफ से बढे| तीसरी औद्योगिक क्रांति में निश्चित रूप से चीन और अमेरिका का फायदा हुआ था| चौथी औद्योगिक क्रांति को भी अपने हक़ में कर लेने की चाह है| इसके पीछे कराण है यह है कि बैटरी में उपयोग होने वाले लिथियम की 95% क्षमता चाइना और अमेरिका के पास ही है| थोडा बहुत ऑस्ट्रेलिया के पास भी क्षमता थी लेकिन अब धीरे-धीरे निवेश बढाकर चाइना और जापान दोनों देशों ने उसके श्रोतों पर भी कब्ज़ा किया हुआ है| उदा. चाइना द्वारा ऑस्ट्रेलिया का Talison Lithium plant खरीदा जाना इसका प्रमाण है| क्रूड आयल से अमेरिका और चीन दोनों का इंटरेस्ट लगभग ख़त्म हो गया है| यही कारण है मिडिल ईस्ट की राजनीती से अमेरिका ज्यादा सरोकार नहीं रखता| इसके पीछे कारण है कि अमेरिका को शेल गैस ने कहीं न कहीं स्वतंत्र बनाया है| इलेक्ट्रिक गाड़ी के सबसे ज्यादा वकालत करने वाले यही देश है क्युकी लिथियम के नजरिए से ये दोनों देश धनी है|
पहली औद्योगिक क्रांति के दौरान कोयले और स्टीम की शक्ति का इस्तेमाल किया गया, इंग्लैंड में शुरू हुई इस क्रांति के कारण शक्ति का केंद्र यूरोप की तरफ झुक गया| इससे पहले 17वीं शताब्दी तक भारत और चीन को सबसे धनी देशों में गिना जाता था| दूसरी औद्योगिक क्रांति के दौरान बिजली और तेल (ईंधन) का इस्तेमाल हुआ| इस बार शक्ति का केंद्र यूरोप से हटा और अमेरिका की तरफ चला गया| तीसरी औद्योगिक क्रांति इलेक्ट्रॉनिक्स और इंफारमेशन टेक्नोलॉजी के प्रयोग से अमेरिका और जापान फायदा हुआ| चीन को भी इस क्रांति से फायदा मिला और उसने उत्पादन में अपना वर्चस्व बनाया| लेकिन अब चौथी औद्योगिक क्रांति भारत के हक मे होगी और इस क्रांति के मुख्य स्तंभ डाटा कनेक्टिविटी, कंप्यूटिंग और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस हैं| मैं मानता हूं कि भविष्य में इंटेलिजेंट सर्विसेस का सबसे बड़ा बाजार होगा| भारत आज सुपर इंटेलिजेंस के दौर में पहुंच चुका है| भारत पूरी दुनिया को इंटेलिजेंट सर्विसेस मुहैया करा सकता है| जरूरत इस बात की है कि भारत VVMP जैसे प्रोग्राम को लांच करे और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के माध्यम से एमिशन को कम करे| क्रूड आयल की घटती डिमांड को पोटेंशियल के तौर पर समझे और इसका पूरा पूरा फायदा उठाते हुए अर्थव्यवस्था की विकास करे|
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