एल्विन टोफ्लर की एक बहुत ही अच्छी कीताब है ‘फ्यूचर शॉक’| यह कोई नई किताब नहीं है बल्कि लगभग 30 साल पुरानी है| इस किताब में बारे में मैंने ARAI (ऑटोमोटिव रिसर्च एसोसिएशन ऑफ़ इंडिया) के सदस्य से जाना जब वो हमें संबोधित करने आए थे| इस किताब का सार बताते हुए कहते है कि जो समय के साथ संवाद नहीं करेगा और बदलाव को नहीं स्वीकारेगा उसे भविष्य में शॉक झेलना पड़ सकता है| उन्होंने अपने परिवार का एक उदहारण देते है कि उनका बेटा रात को 11 बजे अपने दोस्त के बर्थडे पार्टी में जाता है और वापस 1 बजे रात को आता है| उन्होंने अपने समय में शायद ऐसा नहीं देखा था लेकिन इस बदलाव को वो ख़ुशी के स्वीकारना पसंद करते है क्युकी भविष्य के शॉक से वो बचना चाहते है|
मै कुछ बातें उत्तरप्रदेश के एक तात्कालिक कार्यवाई के सन्दर्भ में रखना चाहूँगा| उत्तरप्रदेश में जनता बीजेपी को भारी बहुमत देकर सरकार चलाने की आज्ञा देती है| कानूनन यह बीजेपी का विशेषाधिकार है कि उनका विधायक या उनकी पार्टी किसको मुख्यमंत्री बनाती है| यह मुख्यमंत्री का विशेषाधिकार है कि वो अपने मंत्रिमडल का गठन करे| इस पर किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए| सरकार बनते ही उसका मूल्यांकन करना भी असहज लगता है|
लेकिन जो भी फैसला लिया जाए उसपर अलग अलग पक्ष होना और उसको अभिव्यक्त करना कोई गलत बात नहीं है| लगभग डेढ़ साल पहले मैंने एक लेख ‘अर्थशास्त्र और धर्मशास्त्र में उलझा मांस उद्योग’ अपने ब्लॉग पर लिखा था| मैंने ऐसा शीर्षक इसलिए दिया था क्युकी उस समय उलझने सिर्फ इसलिए थी क्युकी बीजेपी बैकफूट पर खेल रही थी| आज जब फ्रंटफूट पर खेल रही है तब इस बात का एहसास होता है कि धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र पर हावी हो चुका है|
हमारा देश एक विविधताओं से भरा देश है, जहाँ का खान-पान, बोल-चाल, रहन-सहन, पहनावा-ओढावा सब कुछ दुरी के हिसाब से बदलती रहती है| अगर हम खान-पान की बाते करे तो शाकाहारियों और मांसाहारियों के बीच फर्क तो है ही, लेकिन मांसाहारियों के बीच भी अलग अलग प्रकार के खांचे बटे हुए है| भारतीय बाजार के नजरिया से देखा जाय तो बीफ उद्योग और इसका निर्यात बहूत पुरानी बात नही है| हमारे देश में अंतिम दो दशको से इसका प्रभाव काफी बढा है, जिसे एक अच्छी अर्थव्यवस्था की रीढ़ के रूप में भी देखा जा सकता है|
अमेरिका के कृषि विभाग के डेटा के मुताबिक, पांच वर्षो में कई बड़े देशो को पीछे छोड़ते हुए भारत दुनिया का नंबर एक देश बना है जिसमे ब्राजील और ऑस्ट्रेलिया जैसे प्रमुख निर्यातक देश भी शामिल है| अगर हम आकड़ो की तरफ नजर गडाएंगे तो पाएंगे कि वित्त वर्ष 2014-15 में भारत ने 24 लाख टन बीफ का मांस निर्यात किया था| वहीं, ब्राजील ने इस दौरान 20 लाख टन और ऑस्ट्रेलिया ने 15 लाख टन बीफ निर्यात किया था| दुनिया में निर्यात होने वाले कुल बीफ में 58.7 फीसदी की हिस्सेदारी इन्हीं तीन देशों की है, जिसमें अकेले भारत 23.5 फीसीदी बीफ निर्यात करता है|
ध्यान देने वाली बात यह है कि आस्था की वजह से विदेशो में एक्सपोर्ट होने वाली मासों में गौ मांस का निर्यात नियमतः बिल्कुल नही होता| सामान्यतः तीन प्रकार की मीट का निर्यात होता है जिसमे पहला प्रकार भैंसों की मांस का है जो ज्यादातर वियतनाम, थाईलैंड, और मलेशिया जैसे देशो में निर्यात होता है| दूसरे केटेगरी में बकरे और भेंडीयो का मांस आता है और तीसरे प्रकार में पोल्ट्री का मांस आता है जिसे अलग अलग देशो में निर्यात किया जाता है|
एक और विडम्बना धार्मिक परिपेक्ष में आता है कि ज्यादातर मुसलमान ही इस तरह का कारोबार करते है, जबकी सच्चाई यह है कि ज्यादातर कंपनियों के मालिक हिन्दू धर्म से सम्बन्ध रखते है| अब सवाल यह है कि जब प्रोफेशनल ढंग से इसे इकनोमिक पोटेंशियल के रूप में देखा जा रहा है तो इसपर बैन का क्या मतलब निकलता है? आखिर सरकार बदलाव को स्वीकारने से पीछे क्यों हट रही है| इसके लिए बाकायदा एपीडा जैसी संस्थाएं है जो लाइसेंस देने का काम करती है|
एपीडा के नियम कानून बहुत ही पारदर्शी है| इसमें इस बात को तय किया गया है कि जिन बड़े जानवरों का उपयोग किया जाता है वो दुधारू नहीं होनी चाहिए| वो मिल्चिंग पीरियड में नहीं होनी चाहिए| एपीडा में इस बात की भी पुष्टि की गई है कि सिर्फ उन्ही जानवरों का मांस उपयोग किया जाता है जिनका किसानों के लिए कोई उपयोग नहीं है और मेडिकली फिट हो जिससे उपभोक्ता के स्वस्थ्य पर बुरा असर न पड़े| पशुओ के निर्ममता का भी बखूबी ध्यान रखा जाता है और पूरी तरह से जांच पड़ताल कर लेने के बाद ही मांस निकालने का काम किया जाता है| इसलिए किसानो पर पड़ने वाली असर की बातें फीकी पड़ जाती है| उल्टे किसानों को अनुपयोगी पशुओ को बेचने से एक पूंजी उन्हें मिल जाती है जिससे वे नए पशुओ को आसानी से खरीदकर दूध उत्पादन में मदद कर सकते है|
इसके अलावां बाईप्रोडक्ट में निकलने वाले हड्डियों का मेडिसिन बनाने के लिए और चमडो का तमाम वस्तुएं बनाने के लिए उपयोग किया जाता है| निकलने वाले ब्लड को मत्स्यपालन करने वाले किसानो के लिए काम आ जाता है जिसे मछलियों को आहार के रूप में दिया जाता है क्युकी उसमे प्रोटीन की मात्रा ज्यादा पाई जाती है| यही नहीं पर्यावरण को भी ध्यान में रखते हुए उसके बाईप्रोडक्ट्स को डिकोमपोज करने का प्रावधान भी नियम का एक हिस्सा है|
इसके अलावां एक अनुमान लगाया जाता है कि इससे दूध उत्पादन पर बहुत असर पड़ेगा| जबकी आकंडे इस सोच को तोडती नजर आती है| अगर हम कृषि मंत्रालय के आकडे को मिलाएंगे तो पाएँगे कि 2007-2008 में दूध उत्पादन भारत में 10.7 करोड़ टन था वही 2010-2011 में बढ़कर 12.11 और 2011-2012 में 12.80 करोड़ टन हो गया| तो यह कहना बिल्कुल गलत होगा कि मीट निर्यात से दूध उत्पादन पर कोई बूरा असर पड़ा है|
तमाम धर्मों के लोग इसके उपभोगता है| भारत में पशुओं की संख्या काफी है लेकिन उपभोक्ता कम है| ऐसे में इसलिए मुझे लगता है कि मांस उद्योग को एक पोटेंशियल के रूप में देखा जाना चाहिए| आप बेसक इस लोकतंत्र के राजा है जो शाकाहारी है लेकिन अगर प्रजा मांसाहारी है तो इसमें लोकतान्त्रिक राजा को कोई ख़ास दिक्कत नहीं होनी चाहिए| मेरे घर में मेरे पिताजी मांसाहारी है लेकिन मै और मेरे बड़े भाई शुद्ध शाकाहारी है| मेरे पिताजी को हमसे कोई दिक्कत नहीं है| आने वाले समय में हमारी संताने अगर मांसाहारी होती है तो भी हमें दिक्कत नहीं होनी चाहिए| बदलाव के संवाद करना ही बेवकूफी और बहादुरी के फर्क को समझाता है| नहीं तो एल्विन टोफ्लर के विचार जे मुताबिक हमें भविष्य का शॉक झेलने के लिए हमें तैयार रहना होगा|
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