वैसे तो भोजपुरी में फ़ैल रहे अश्लीलता के विरोध में काफी लम्बे समय से संघर्ष चल रहा है| लेकिन हाल के दिनों में यह मामला काफी जोर पकड़ चुका है| तमाम लोग खुल के सामने आ रहे है और अपने-अपने पक्ष को लिख रहे है| इसका एक माध्यम लल्लनटॉप बना है| लेख और विडियो के माध्यम से पक्ष और विपक्ष काफी जोरों पर है| इस बार केंद्र में भोजपुरी गायिका कल्पना पटवारी है| जैसे हर मुद्दे के दो पक्ष होते है वैसे ही इसके भी दो पक्ष है| मै बस समय का इन्तजार कर रहा था कि सही समय आए तो तमाम लोगों के सवालों का जवाब देते हुए अपने पक्ष को लिखूं| इस लेख के लिए सिर्फ एह ही डिस्क्लेमर है कि धैर्य रखें और शुरू से लेकर अंत तक पढ़े बिना टिपण्णी न दे क्युकी लेख थोड़ा लम्बा है| इस लेख में लल्लनटॉप पर छपे दो लोगों (शाश्वत उपाध्याय और अविनाश दास) के लेखों पर मेरी अपनी प्रतिक्रिया है| खासकर अविनाश जी ने जातिगत दृष्टिकोण, भाषाई के अन्दर विविधता, संस्कृति की उदारता और भाषाई शैली के सहारे अश्लीलता को ढकने की कोशिश है जिसपर मेरी असहमतियां जिसे मैंने अपने तर्कों से दर्ज किया है|
13 जनवरी को लल्लनटॉप पर ही अविनाश दास की एक लेख “बांधने की कोशिश की तो मर जाएगी भाषा” हमारे बीच आया था| उनकी कुछ बातों को केंद्र में लेते हुए अपनी असहमति जताने की कोशिश करूँगा| उन्होंने एक बात सही कही कि “भाषा को अविरल बहने दो| बांधने की कोशिश की जाएगी, तो वह ऐसे ही मर जाएगी, जैसे नदियां मर रही हैं” सही बात है भाषा को अविरल बहना चाहिए लेकिन इस बात का ध्यान रखना चाहिए वो नदी गन्दी न हो| गंदे नाले और व्यवसाय से भरे बाजार के केमिकल से नदियों को दूर रखना भी जरूरी है| भाषा की विविधता के रूप में जब अश्लीलता को रखते है तो मुझे आश्चर्य होता है कि आप जैसे बड़ा पत्रकार ऐसी गलती कैसे कर सकता है| भाषाई विविधता यह होनी चाहिए कि कोई पूर्वी गाए, कोई कजरी गाए, कोई सोहर गाए, कोई झूमर गाए, कोई निर्गुण गाए, कोई वैवाहिक गीत गाए, कोई बिरहा गाए, कोई पिंड़िया गाए, कोई चईता गाए, कोई फगुआ गाए, कोई जँतसार गाए| भोजपुरी की भाषाई विविधता असल रूप में यही है|
अगर कोई इसमें से किसी के खिलाफ विरोध करता तो आपकी बातें जायज मान लेता कि भाषाओ को बांधने की कोशिश की जा रही है| आप जिसको विविधता में गिन रहे है वो फूहरपन है, जिसे कोई भी व्यक्ति अपने परिवार के साथ नहीं सुन सकता है| अविनाश दास जी ने लिखा है कि “उन्हें(विरोध करने वाले लोगों) यह समझना चाहिए कि सवाल कल्पना बनाम संस्कृति का नहीं बल्कि संस्कृति की उदार समझ बनाम संस्कृति की संकीर्ण समझ का है”| अविनाश जी अश्लीलता के खिलाफ हो रहे विरोध को छिपाने के लिए आप डिस्कोर्स बदलने की कोशिश कर रहे है| यह मसला ना तो कल्पना बनाम संस्कृति का है और नाही संस्कृति की उदार समझ बनाम संस्कृति की संकीर्ण समझ का है| यह संघर्ष भोजपुरी में फ़ैल रहे अश्लीलता बनाम स्वच्छ और मीठी भोजपुरिया संस्कृति की है| इत्तेफाक कहिए कि इस चल रहे लम्बे संघर्ष में कल्पना केंद्र में आई है| पहले कोई और आया था हो सकता है आने वाले समय में इसका केंद्र कोई और हो जो फूहरपन को संस्कृति बताकर समाज में जहर घोल रहा है|
10 जनवरी को लल्लनटॉप पर छपे इन्ही द्वारा लिखे एक लेख “भोजपुरी गायिका कल्पना के साथ अछूत-सा बर्ताव हो रहा है”| भाषाई विमर्श में जातिगत दृष्टिकोण को घुसाना निंदनीय है| इससे जाती और स्त्री दोनों विमर्श कमजोर पड़ता है| जातिगत और लैंगिक विमर्श बनाकार कल्पना पटवारी द्वारा फैलाए गंध को ढकना हास्यापद है| मै अपनी बताऊँ तो इस घटना से पहले मुझे खुद पता नहीं था कि कल्पना पटवारी किस जाती से आती है| लेकिन इतना जरूर जनता था कि अश्लीलता की महासंग्राम की एक खिलाडी यह भी रही है| इसलिए जातिगत चीजें कल्पना पटवारी को और कमजोर बनाएगी अगर वो ऐसी चीजों को अपने तर्क के रूप में जोडती है| आगे अपने लेख में लिखते है कि “भाषा में शुचिता का आग्रह एक ब्राह्मणवादी अप्रोच है| शृंगार की एक शास्त्रीय शैली होती है, एक भदेस शैली| न तो शास्त्रीय शैली के लिए वाहवाही रिज़र्व होनी चाहिए, न भदेस शैली के लिए भर्त्सना ही एकमात्र विकल्प होनी चाहिए”| मेरी असहमति तो पहले इस बात पर होगी कि भाषा में शुचिता का आग्रह एक ब्राह्मणवादी अप्रोच है|
ब्राह्मणवाद किसी खास जाती से सरोकार नहीं रखता है| ब्राह्मणवाद वो होता है जो हर संसाधन पर अपना हक़ बताए| इसमें किसी भी जाती का हो सकता है| कल्पना खुद भिखारी ठाकुर जैसे महान शख्स पर किए गए शिक्षाविदों और शोधार्थियों के कामों को कमतर करते हुए उनकी विरासत की इकलौती उत्तराधिकारी होने का दावा कर रही है| इसके हिसाब से तो कल्पना पटवारी का जो एप्रोच है वो ब्राह्मणवादी शैली का है| विरोध में समानता होनी चाहिए| चाहे वो किसी भी जात या धर्म का क्यों न हो| रही बात भदेस शैली की तो यह सार्थक शब्द और शैली है जिसे फूहरपन से साथ जोड़ इसे आप भी सिर्फ इसलिए दूषित कर रहे है ताकी उनके अश्लील गीतों को ढक सके| आपकी बात सही है कि हर भाषा में बहुजन और अभिजात की अभिव्यक्ति के बीच संघर्ष बहुत प्राचीन है| लेकिन संघर्ष गानों के सहारे होने चाहिए ना कि अश्लील गानों को जातिगत कम्बल से ढककर| इसके लिए छोटा सा उदाहरण देना चाहूँगा शारदा सिन्हा जी ने एक गीत गाया था “हमसे ना होई बनिहरिया ए मालिक”| हिंदी में “मालिक हमसे बंधुआगिरी नहीं होगी|” असल प्रतिरोध का स्वर यह है| कहाँ कोई विरोध करता है बल्कि हम जैसे नौजवान ऐसे गीतों को अपने कलेजे से लगाए रहते है|
इसके अलावां, कल यानी 14 जनवरी को लल्लनटॉप पर इसी श्रंखला के कड़ी में एक पक्ष के रूप में शाश्वत उपाध्याय की एक लेख “कल्पना से सवाल करने वाले प्रियंका चोपड़ा पर चुप क्यों हैं?” आई थी| पहली बात जैसा की मैंने ऊपर लिखा है कि “इस बार केंद्र में कल्पना पटवारी है”| विरोध करने वाले पक्ष के लोग हमेशा से भोजपुरी में अश्लीलता को लेकर लम्बे समय से विरोध करते रहे है| आरा में अश्लीलता मुक्त भोजपुरी एसोसिएशन यानि (AMBA) ने विनय बिहारी एंड कंपनी पर अश्लील गीत के मामले में मुकदमा किया था, आपको यह मालूम होना चाहिए| आपको शायद पता ही होगा कि कुछ महिना पहले AMBA ने ही उसी आरा में खुशबू उत्तम का किस तरह से सार्वजिक रूप से प्रोग्राम से दौरान विरोध किया था| जिसके बाद खुशबू ने वहीं कहा कि वे ऐसा नहीं करेंगी और फिर जैसे ही आरा से पटना पहुंची, अपना स्वर बदल लिया| इसके अलावां भोजपुरी के अश्लील लेखक विनय बिहारी को भभुआ में हुआ विरोध भी शायद आपको याद होगा| ऐसे दर्जनों घटनाएँ है जहाँ अश्लीलता के खिलाफ विरोध हुआ था|
दूसरी बात, शाश्वत की पूरी कहानी को ज़ूम आउट करके देखा जाए तो एक बात यह समझ आती है| जैसे कल्पना पटवारी से किसी ने बहला फुसलाकर अश्लील गीत गवाया और मोहतरमा को 2011 में जाकर नींद खुली, अरे! ये सब तो गलत हो रहा था| उसके बाद से मार्मिक तरीके से उनके किए का कीर्तन कर-करके शास्वत यह सिद्ध करना चाह रहे है जैसे भोजपुरी गीत-संगीत का उद्धार वही कर रही है| ये चीजें तो एकदम बच्चों वाली हो गई| मतलब ऐसे कौन से संगीत में वो मग्न हो गई थी कि उनके बोल समझ नहीं आ रहे थे कि वो क्या बोल रही है| यह कैसे संभव हो सकता है कि उनको बोल का बिलकुल इल्म ना था| कोई भी गायक जब किसी दुसरे भाषा के गीत को गाता है तो सबसे पहले उसका अर्थ समझता है| बिना अर्थ समझे गीत का भाव आ ही नहीं सकता है| भोजपुरी में इनके द्वारा गाए गीतों के भाव इतने सामानांतर है कि किसी अनजान को यह कह पाना मुश्किल होगा कि वो भोजपुरिया नहीं है| इसलिए ये सब बातें की उनको भाषा का ज्ञान नहीं था और दुसरे लोगों के उनका उपयोग कर लिया टाइप चीजें मनगढ़ंत और सहानुभूति पाने जैसी चीजें है|
तीसरी बात, शाश्वत आपके लेख से एक और बात निकल कर यह आई जिसे एक लाइन में यह कहा जा सकता है कि “वो पहले गाती थी अब नहीं गाती है”| यह तो वही वाली बात हो गई कि पहले तम्बाकू का दुकान करो और बाद में उसका हॉस्पिटल खोलकर अपने आप को परोपकारी साबित करो| कुछ दुकान फ्री में रखो ताकी लोगों को लगे कि हाँ परोपकारी काम कर रहे हो और बाक़ी का तो व्यवसाय हईए है| आगे अपने लेख में लिखते है कि “कल्पना सवाल करती हैं कि अगर इस गीत के बोल द्विअर्थी हैं तो इसको लिखने वाला भी तो उतना ही दोषी है| इस गीत के 40 मिलियन व्यू हैं| वहीं उनके अल्बम ‘ताजमहल’ के 10000 व्यू हैं| आखिर दोष किसका है और कितना है? सुनने वाले का या फिर गाने वाले का|” पहली बात, लिखने वाले को निर्दोष किसने कहा? विनय बिहारी का विरोध भी तो लिखने की वजह से ही होता आया है| दूसरी बात, जनता को तम्बाकू पसंद है तो जनता के पसंद का हवाला देकर और उन्हें दोषी ठहरा के इसकी खेती करना कहाँ तक जायज है?
चौथी बात, लेखक लिख रहा है तो गीतकार गा रहा है| श्रोता सुन रहा है तो गीतकार गा रहा है| इसका मतलब यह कैसे हो सकता है कि सब दोषी है गीतकार एकदम निर्दोष है| मतलब यह कैसी विवंडना है| जबकि सत्य यही है कि गायकों का ही आवाज बाजार में आता है| जनता से सीधा संवाद को आखिरकार गायक ही करता है| लेख के अगले पैराग्राफ में दावा किया गया है कि “2011 से उन्होंने ने खुद को भी सेंसर कर लिया है| वो बताती हैं कि उन्होंने अश्लील गीतों को गाना बन्द कर दिया है| इससे कई स्तरों पर उन्हें परेशानीयों का सामना करना पड़ा|” यहाँ पर एक सवाल खड़ा होता है| जब भी भरत शर्मा या शारदा सिन्हा जैसे लोग जब मंच पर जाते है तब किसी भी प्रकार के अश्लील गाने के डिमांड क्यों नहीं होती? क्युकी उन्होंने अपना वैसा बाजार कभी बनाया ही नहीं| अपने वसुलों और आदर्शों से कभी समझौता किया ही नहीं| इस बात से खुद कल्पना भी सोच सकती है कि लोग उन्हें कैसे गानों के लिए आमंत्रित करते है|
अब जब लोग इनसे अश्लील गाने सुनने की डिमांड कर रहे हैं तो इन्हें बुरा लग रहा है| जबकी सत्य यही है कि यह इन्ही का फैलाया हुआ शनिचर है| को किया है उसी का परिणाम वो झेल रही है| आपकी अंतिम बात जिसकी वजह से आपके लेख का शीर्षक पड़ा है “कल्पना से सवाल करने वाले प्रियंका चोपड़ा पर चुप क्यों हैं?” यहाँ दो बातें है| पहली बात की दिवार फिल्म के माफिक यह बोलना कि पहले उससे साइन, पहले उससे लेकर आओ तो वो मुर्खता वाली बातें होगी| मुझे लग रहा है अभी जो केंद्र में उस पर अछेसे बात होनी चाहिए| दूसरी बात आपको ज्ञान के लिए बता दूँ कि इसी लल्लनटॉप पर 7 मई 2017 को “अश्लील, फूहड़ और गन्दा सिनेमा मतलब भोजपुरी सिनेमा” नामक लेख के माध्यम से नितिन जी ने अपना विरोध दर्ज करवाया था| उस लेख में प्रियंका चोपड़ा का सन्दर्भ आया था|
असम से यहाँ गाने क्यों आई? क्युकी उनको पता है कि भोजपुरी क्षेत्र एक बाजार है और उन्हें खुद को यहाँ बेचना है इसलिए थोड़ा चर्चा में रहने के लिए भोजपुरी और आठवीं अनुसूची टाईप बातें कर लेते हैं| कल्पना पटवारी को बहुत अच्छे से पता है कि उन्होंने भोजपुरी के साथ बहुत गलत किया है और अश्लील गीत गाए है| एकसिरे से इस बात को नकार तो नहीं सकती कि उन्होंने अश्लील गीत नहीं गाए है| डिजिटल का जमाना है जहाँ यू ट्यूब और फेसबुक जैसे माध्यम के सहारे साक्ष्यों को रख कर उनको झूठा साबित करता रहेगा| इसलिए अपने अश्लील सफ़र को एक अच्छे मोड़ देकर भोजपुरी सम्राट भरत शर्मा और ‘शारदा सिन्हा’ जैसे लोगों की सूची में आना चाहती है| उन्हें शायद इस बात का डर है कि आने वाले समय में उन्हें भोजपुरी के खलनायक के रूप में न देखने लगे| इस प्रक्रिया में वो स्वीकार्य तो करती है कि गलत गाया है लेकिन अगले लाइन में यह भी लिखती है कि उनका इसमें कोई दोष नहीं है| लेकिन उनके समर्थक के साथ सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि वो अभी तक यह नहीं मानते कि उन्होंने कभी अश्लील गाया भी है|
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