प्रेम बहुत ही सार्थक शब्द है| ओशो जी का कहना है – “प्रेम में ईर्ष्या हो तो प्रेम ही नहीं है| ईर्ष्या सूचक है प्रेम के अभाव की| यह तो ऐसा ही हुआ, जैसा दीया जले और अँधेरा हो| दीया जले तो अँधेरा होना नहीं चाहिए| अँधेरे का न हो जाना ही दीए के जलने का प्रमाण है| ईर्ष्या का मिट जाना ही प्रेम का प्रमाण है| ईर्ष्या अँधेरे जैसी है और प्रेम प्रकाश जैसा है|” जब प्रेम के अन्दर इर्ष्या की जगह नहीं है तो बाहर होने का सवाल ही पैदा नहीं होता| बजरंग दल जैसी जितनी भी खुराफाती समूह है जो सामान्यतः प्रेम से वंचित होते है, उन्हें इस कसौटी को समझना होगा|
जिस भारतीय संस्कृति को बचाने की आड़ में असामाजिक कृत्य करते है उसी भारतीय संस्कृति का इतिहास प्रेम का गवाह रहा है| अक्सर फिल्मों में ऐसा दिखाया जाता है कि आतंकवादी किसी नौजवान को यह कहकर आत्मघाती हमले करने के लिए तैयार करते है कि जब ऊपर जाएगा तो तमाम तरह की भौतिक सुविधाएँ मिलेंगी, अनलिमिटेड चिकेन बिरयानी मिलेगा| ठीक वैसे ही इन प्रेम विरोधी समूहों का बॉस बस यह कह देता है कि ‘वैलेंटाइन डे’ मनाने से भारतीय संस्कृति खतरे में पड जाएगी| बिना पढ़े-लिखे, सोचे समझे मुर्ख डंडा लिए निकल जाते है|
प्रेम एक मज़बूत आकर्षण और निजी जुड़ाव की भावना है| प्रेम विरासत में मिली है और इसका अंत असंभव है| हमारे आराध्य देवी देवता से लेकर राजा महराजा तक सबने इसकी अनुभूति पाई है| इन्ही के सामानांतर एक इतिहास से जुडी कहानी है| एक ऐसे राजा की कहानी जिसके प्रेम को असफल करने के लिए अथक प्रयास किया गया लेकिन विरोधी अपने ही कृत्यों से खुद हार गए| आज के समय में जिस प्रकार के प्रेम विरोधी समूह और लोग है इन्ही से सामानांतर सच्ची कहानी है|
कहानी है पृथ्वीराज चौहान की और संयोगिता की| पृथ्वीराज चौहान और संयोगिता की प्रेम कहानी राजस्थान के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित है| 12वीं सदी के उत्तरार्ध में पृथ्वीराज चौहान दिल्ली के प्रबल शासक हुए़| वहीं, संयोगिता कन्नौज के राजा जयचंद की बेटी थी़| दोनों के बीच अटूट प्यार था़| लेकिन जयचंद पृथ्वीराज के गौरव और उनकी आन से ईर्ष्या रखता था, इसलिए अपनी बेटी की शादी उनसे करने का पक्षधर नहीं था़|
दिल्ली के अंतिम हिंदू शासक पृथ्वीराज चौहान ऐसे वीर योद्धा थे, जिन्होंने बचपन में ही अपने हाथों से शेर का जबड़ा फाड़ दिया था| इतना ही नहीं, शब्दभेदी बाण चलाने के लिए भी वह इतिहास में मशहूर हैं| “चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण, ता ऊपर सुल्तान है मत चुको चौहान|” बहुत बाद में पृथ्वीराज अपने कवी के इसी इशारे पर अचूक शब्दभेदी बाण से गोरी को मार गिराए जाने का यह किस्सा भी बहुत मशहूर है| पृथ्वीराज एक महान योद्धा होने के साथ-साथ एक प्रेमी भी थे|
जब पृथ्वीराज चौहान दिल्ली के शासक बन गये उसके बाद चित्रकार बड़े बड़े राजा महराजाओं से चित्र लेकर कन्नौज आया| पृथ्वीराज चौहान का चित्र देख कर सभी स्त्रियां उनके आकर्षण की वशीभूत हो गयीं| जब संयोगिता ने पृथ्वीराज का यह चित्र देखा, तब उसने मन ही मन यह वचन ले लिया कि वह पृथ्वीराज को ही अपना वर चुनेंगी| वह चित्रकार जब दिल्ली गया तब वह संयोगिता का चित्र भी अपने साथ ले गया था| संयोगिता की खूबसूरती ने पृथ्वीराज चौहान को भी मोहित कर दिया| दोनों ने ही एक-दूसरे से विवाह करने की ठान ली|
इस बीच कन्नौज के राजा जयचंद ने अपनी पुत्री संयोगिता के स्वयंवर की घोषणा कर दी| इधर राजकुमारी के मन में पृथ्वीराज के प्रति प्रेम हिलोरे ले रहा था| वहीं दूसरी तरफ पिता जयचंद पृथ्वीराज की सफलता से अत्यंत भयभीत था और उनके गौरव और उनकी आन से ईर्ष्या रखता था| इसलिए उसने इस स्वयंवर में पृथ्वीराज को निमंत्रण नहीं भेजा| लेकिन इसके बावजूद, सिर्फ संयोगिता की खातिर पृथ्वीराज ने उस स्वयंवर में शामिल होने का निश्चय कर लिया|
इस बात से बेखबर जयचंद ने पृथ्वीराज का अपमान करने के उद्देश्य से जयचंद ने स्वयंवर कक्ष के बाहर मुख्य द्वार पर उनकी मूर्ति को ऐसे लगवा दी, जैसे कोई द्वारपाल खड़ा हो| स्वयंवर के दिन जब महल में देश के कोने-कोने से राजकुमार उपस्थित हुए, तब संयोगिता को कहीं भी पृथ्वीराज नजर नहीं आये| स्वयंवरकाल में जब संयोगिता हाथ में वरमाला लिये उपस्थित राजाओं को देख रही थी, तब द्वार पर स्थित पृथ्वीराज की मूर्ति को उसने देखा। संयोगिता ने मूर्ति के समीप जा कर वरमाला पृथ्वीराज की मूर्ति के कण्ठ में पहना दी|
इस तरह से जयचंद अपने कृत्यों से ही खुद प्रेम के समक्ष हार गए| चुकी जयचन्द ने पृथ्वीराज को स्वयंवर में आमंत्रित नहीं किया और उसने द्वारपाल के स्थान पर पृथ्वीराज की प्रतिमा स्थापित कर दी थी| दूसरी ओर जब संयोगिता ने जाना कि, पृथ्वीराज स्वयंवर में अनुपस्थित रहेंगे, तो उसने पृथ्वीराज को बुलाने के लिये दूत भेजा| दूत का सन्देश पाए पृथ्वीराज चौहान कनौज आए और अपनी दुलहिनिया इन्द्रप्रस्त ले गए|
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