भारत सरकार की एक ऐसी योजना जिसे रोजगार गारंटी के तौर पर प्रत्येक वित्तीय वर्ष में किसी भी ग्रामीण परिवार के उन वयस्क सदस्यों को 100 दिन का रोजगार उपलब्ध कराती है जो प्रतिदिन 220 रुपये की सांविधिक न्यूनतम मजदूरी पर सार्वजनिक कार्य-सम्बंधित अकुशल मजदूरी करने के लिए तैयार हैं| इसी रोजगार गारंटी को महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (MNREGA) के नाम से जाना जाता है| आज यह अधिनियम खतरे में है और इसका भविष्य अधर में है|
NDA वाली केंद्र सरकार ने इसे पूरी तरह से नकार दिया है और धीरे धीरे इसे ख़त्म करने के लिए प्रयासरत है| प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी इस योजना पर अपनी असंतुष्टि जाहिर कर चुके है| इस योजना को अंतराष्ट्रीय स्तर पर कई मर्तबा सराहना भी मिल चुकी है लेकिन धन आवंटन की कमी की वजह से हाल की सरकार इसके प्रति उत्साहित नहीं है| महात्मा गाँधी राष्ट्रिय ग्रामीण रोजगार अधिनियम अपने दसवें वर्ष में प्रवेश कर रही है लेकिन आकड़ें लगातार इसे कमजोर होने का एह्सास दिलाती जा रही है|
पिछले कुछ वर्षों से इसके बजट में कटौती शुरू हुई| बजट इतनी घट गई कि 2009-10 वाली लगभग पचास हजार करोड़ वाली राशी 30 हजार करोड़ के आस पास पहुच गई| ऐसी भी बात नहीं है कि मनरेगा के लिए बहूत ज्यादा बजट दिया जाता रहा हो| देश की जीडीपी का लगभग 0.33% ही मनरेगा के लिए आवंटन हुआ करती है जो कि अपने आप में ही बहूत कम है| एक तरफ मजदूरी की रेट बढ़ती गई और आवंटन की राशी और कम होती चली गई|
इसके परिणामस्वरूप संतुलन बिगड़ा और कर्ज बढ़ते चले गए और अब उसका प्रभाव दिन के कटौती के रूप में देखा जा रहा है| 100 दिनों का रोजगार देने की गारंटी दी गई थी लेकिन उसका आधा भी नहीं दिया जा पा रहा है| मनरेगा के तहत काम करने वाले मजदूरों से जब ये पूछा जाता है कि उन्हें कितने दिन काम चाहिए तो ज्यादातर लोग सौ दिन के लिए कहते हैं और कुछ लोग तो ऐसे भी होते हैं जो सौ दिन को भी कम मानते हैं| अगर इस लिहाज से देखें तो ये गिरावट चिंता का विषय है| पिछले दो तीन साल से ये गिरावट आ रही है|
मनरेगा जैसे मुद्दों को राजनीती से दूर ही रखनी चाहिए| पहले किसी और की सरकार थी और आज किसी और की है| ऐसे कानूनों को कमजोर करने में राजनितिक प्रतिद्वंदिता भी एक बहूत बड़ी वजह है| एह एक ऐसी योजना है जिससे बहूत सारी मुद्दाओं को टारगेट करता नजर आता है| खाद्य सुरक्षा, महिला सशक्तिकरण और ग्रामीण लोगों की क्रय शक्ति को बढ़ाने जैसी बहूत सारी समस्याओं को इकठ्ठा समेटता है| लेकिन बीते गत वर्ष में दिक्कत यही रही है लागु करने के मैकेनिज्म कमजोर सा दिखता रहा है|
कानून काफी अच्छा बनाया गया है| यहाँ तक कि कानून में इस बात की भी पुष्टि की गई है कि मजदूरों का काम मांगने का पूरा पूरा हक़ है| कानूनन इन्हें 15 दिन के अन्दर उन्हें काम देना सरकार का दायित्व होता है| अगर 15 दिन में काम नहीं दे पाए तो आवेदक बेरोजगारी भत्ता पाने के हक़दार बन जाते है| हालाँकि जागरूकता के कमी की वजह से इस नियम का बहूत ही कम उपयोग किया गया है| अगर इस कानून को भी ढंग से विश्वास में लाया गया होता तो शायद कोई भी सरकार इस विषय को लेकर मनमानी नहीं कर पाती|
इस कानून की एक और बड़ी खासियत यह है कि यह योजना सही लाभार्थियों को चुनने में सक्षम रही है| ऐसा इसलिए क्युकी जो लोग गरीब नहीं है वो खुद ही इस दायरे से बाहर हो जाते है| काम से जुडी सटीक शर्ते और और संतुलित मजदूरी, आर्थिक रूप से थोड़े अच्छे मजदूरों इससे अच्छे विकल्प की ओर आकर्षित करते है| आर्थिक रूप से थोड़े अच्छे मजदूरों को ये मजदूरी काफी कम लगता है| यूरोपियन देशों में चलाए जा रहे बेरोजगारी भत्ता जैसी कल्याणकारी नीतियों से कही अच्छा था कि लोगों में बेरोजगार होने का एहसास तो नहीं करवाती थी| यह कमाकर खाने वाला आत्मविश्वास अपने आप एक बहूत बड़ी बात है|
इस योजना की एक और अच्छी बात यह है कि लम्बे समय से गाँव में जो सीजनल बेरोजगारी रही है, उसे काफी हद तक कम किया गया है| विशेषतौर पर गाँव में पूरे 12 महीने खेतों में काम तो होता नहीं है| जैसे उदहारण के तौर पर लेते है खेतों में आनाज बोने के बाद कुछ महीनों का समय निकलता है जिसमे किसानों के पास काम नहीं होता है| उन खाली दिनों वो ऐसी योजना का लाभ ले सकते है| इससे ग्रामीण अथव्यवस्था पर काफी सकारात्मक असर भी पड़ा है| लोगों के हाथों में पैसे आने लगे है|
बीते सालों से यह पता चलता है कि इसका प्रभाव काफी गंभीर रहा है| अर्थव्यवस्था के नजरिए से यह हमारे देश के लिए रीढ़ की हड्डी भी साबित हुई है| 2008 में पूरा विश्व आर्थिक संकट से जूझ रहा था लेकिन भारत पर कोई खास प्रभाव नहीं पड़ा था| उसके पीछे कारण यह था कि हमारे देश की ग्रामीण अर्थव्यवस्था काफी मजबूत थी| जब कभी संकट आता है तो सबसे पहले विदेशी निवेश वाले साथ छोड़कर भागते है खासकर वो जो स्टॉक एक्सचेंज में पैसे लगाते है| इस मजबूत ग्रामीण अर्थव्यवस्था के पीछे एक कारण ऐसी योजनाएं भी थी| यूपीए की सरकार 2004 में बनने के बाद ग्रामीण क्षेत्र की ओर थोड़ा-सा ध्यान बढ़ा था|
ऐसे स्कीम के सहारे लोगों के हाथों में कुछ पैसे आए| रोजगार कानून की वजह से लोगों को गाँव में एक तरह की गारंटी तो मिली कि 100 दिन का काम मिलेगा| जहाँ गाँवों में कोई विशेष राहत योजनाएँ नहीं चल रही थीं, स्थितियाँ और बिगड़ सकती थीं पर रोजगार कानून ने स्थितियों को संभाला| निर्यात घटने की वजह से इनमें से काफी लोग वापस जा रहे थे| वो लोग उन्हीं इलाकों में वापस जा रहे थे जहाँ स्थितियाँ पहले ही खराब थी। नक्सलवाद की समस्या थी, विकास न होने की समस्या थी, आधारभूत ढाँचे के न होने की समस्या थी| यह पूरी स्थिति विस्फोटक हो सकती थी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ और स्थिति संभली रही और इसकी वजह बना था ऐसे रोजगार गारंटी कानून|
ऐसी योजनाओं को ख़त्म करने के पीछे जो वजहें दी जाती है वो वास्तव में काफी कमजोर दिखती है| पहली बात यह कही जाती है कि ऐसी योजनाओं की वजह से कर्ज बढ़ जाता है| और धन आवंटन को इसका एक और भी कारण बताया जाता रहा है| इस प्रकार की योजनाएं कम से कम उन योजनाओं से तो बढ़िया है जहाँ यही राजनितिक पार्टियाँ सब्सिडी देने की बातें करती है| इससे कुछ काम भी हो रहा हा औ धन का विकेंद्रीकरण भी होता है| दूसरी बात यह कि 2010-11 में मनरेगा का बजट अपने चरम पर था और यह 40000 करोड़ रुपये से घटकर मौजूदा वित्तीय वर्ष में लगभग 34000 करोड़ रुपए हो गया है|
इस कार्यक्रम को चलाने में आने वाला खर्च हमेशा एक चिंता का विषय रहा है| जबकी अगर ध्यान से गौर करें तो पाएँगे कि यह जीडीपी का लगभग 0.33 प्रतिशत के आस पास है| अब इसकी तुलना उद्योग जगत को दी जाने वाली छुट से से करे तो पाएँगे कि उनको लगभग जीडीपी के लगभग 3% की छुट दी जाती है| सिर्फ हीरे और सोने के कारोबार में लगी कंपनियों को सरकार द्वारा दिए गए छुट को निहारेंगे तो पाएँगे कि मनरेगा में लगने वाले बजट का लगभग दुगना है| वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय की वेबसाइट के मुताबिक इन उद्योग में 0.7 फीसदी कामगरों के लिए रोज़गार पैदा करना लक्ष्य होता है जबकी वही मनरेगा जिसमे उनकी छुट का आधा पैसा निवेश होता है 25 फीसदी ग्रामीण परिवारों को रोज़गार दिया है|
इस योजना के कुछ चुनौतियाँ है जिसका हल ढूँढना भी अति आवश्यक है लेकिन इसे बंद करना कतई मुनासिब नहीं होगा| मै ऐसा इसलिए कह रहा हु क्युकी हम ट्रेन से ट्रेवल करते है अगर किसी दिन ट्रेन पटरी से उतर जाती है या एक्सीडेंट हो जाता है तो क्या हम ट्रेन से यात्रा करना बंद कर दे? बल्कि होना यह चाहिए कि हम बढ़िया से मूल्यांकन करे कि कहाँ कमी रह गई थी और उसे ढूंढने का प्रयास करे| इस सन्दर्भ में एक चुनौती के रूप में यह आती है कि यह योजना जिनके लिए बनाई गई है उनके डेली बेसिस पर पैसे की जरूरत होती है| दिन में अगर कमाएँगे तो शाम को खाएँगे| वो लोग महीने भर इंतजार नहीं कर सकते है|
मोदी जी यहाँ पर अपने फाइनेंसियल इन्क्लूजन का भरपूर फायदा उठा सकते है| उन्होंने जनधन खातों के तहत करोडो लोगो का खाता खुलवाया है और विपक्ष उसमे पैसे ना होने के कारण हमेशा इसे केंद्र सरकार की असफलता के रूप में देखती आई है| इससे खाता भी चालू रहेगा और प्रतिदिन के आधार पर पैसा भी मिलता रहेगा| एक और फायदा यह भी है कि जो बिचौलिए लोग मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी नहीं देते थे या उन्हें पूरा पैसा नहीं देते थे, ऐसी शिकायतों से भी निजात पाया जा सकता है अगर वो अपने बनाए हुए फाइनेंसियल इन्क्लूजन को विश्वास में लाते है|
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