इस लेख में…
जब कभी नए युग का निर्माण करना हो तो हमें पूरी तरह से पुरानी बातें नहीं भूलनी चाहिए। भारत में जो सामाजिक अशांति है उसका एक कारण यह भी है। 20वीं शताब्दी के मध्य में तमाम देश आजाद हुए और सभी देशों ने अपने-अपने हिसाब से नए युग का शुरुआत किया। अफ्रीका ने “Truth and reconciliation commission” का गठन किया ताकि दशकों पुरानी सामाजिक न्याय सुनिश्चित की जा सके। ठीक इसी तर्ज पर भारत में आरक्षण का प्रावधान किया गया ताकि हिन्दू समाज के अन्दर सामाजिक न्याय सुनिश्चित किया जा सके। भारत का यह कदम निश्चित तौर पर अनिवार्य था लेकिन इतिहास के एक दुसरे पक्ष को दरकिनार कर दिया गया। भारत के हजारों वर्षों की गुलामी पर चिंतन नहीं किया गया। इस पक्ष को ढकने की कोशिशें की गई लेकिन संचार की क्रांति के आगे ढकी हुई चादर छोटी पड़ गई।
आज समाज उन्ही पहलुओं पर सवाल करते है जिसका हमारे पास जवाब नहीं होता तो उन्हें “ट्रोल” का नाम देकर बहिष्कृत करने की कोशिश करते है। 21वीं सदी के भारत उन सवालों का जवाब चाहता है। उनपर चिंतन करने की बातें करता है। पंडित नेहरु अपने किताब, “भारत की खोज” के अंदर एक बहुत सही बात लिखते है – “जो लोग इतिहास से नहीं सीखते वे इसे दोहराने के लिए अभिशप्त हैं।” यह जरूरी है उन्हें उनकी इतिहास बताई जाए ताकि वो दोहराने से बचे। यह सत्य है कि सभी लोग अभिव्यक्ति के आजादी के हक़दार है। चीजों को देखने का सबका अपना नजरिया है। लेकिन ऐसी क्या बातें थी जिसने हमें हजारों वर्षों तक आत्महीनता में रखा? दो-चार-दस साल तक समझा जा सकता है लेकिन हजारों साल? यह सवाल फिर से चिंतन करने के लिए उत्तेजित करता है।
आजादी के बाद हम कहाँ चुक गए?
कल्पना कीजिए कि आज पूरी पृथ्वी का विनाश हो जाता है। लेकिन अंडमान निकोबार द्वीप समूह के कुछ ‘जारवा’ और ‘ओन्ग’ जनजाति के कुछ लोग पृथ्वी पर बच जाते है। कभी वो भारत आते है और लैपटॉप जैसी चीजों से रूबरू होते है ठीक वैसे ही जैसे हम लोग हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की सभ्यता से 20वीं शताब्दी में हम लोग रूबरू हुए। आज हड़प्पा के स्तर का विकास हमने कर लिया है। इसलिए हमलोग उन वस्तुओं की तुलना आज कर पाते है। लेकिन अगर हमारा विकास उन सभ्यताओं के समक्ष नहीं होता तो क्या हम कर पाते? क्या ‘जारवा’ और ‘ओन्ग’ जनजाति के लोग ‘लैपटॉप’ की तुलना अपने जीवन से करके समझ पाएंगे? नहीं क्युकी उस स्तर पर ये समाज अभी विकसित नहीं हुए है। ठीक ऐसे ही हमारी यह सभ्यता उतनी विकसित नहीं हुई है कि श्री कृष्ण के काल को सही मायने में समझ सके।
अगर श्री कृष्ण के सहारे हमने प्रश्नों पर गौर किया होता तो बहुत सारे सवालों के जवाब मिलते। आज अकसर लोग पंडित नेहरु के नीतियों में कमियां निकलते है कोसते है। एक हद तक सही भी है और गलत भी। सही इस लिहाज से है कि आप वर्तमान और भविष्य को लेकर चिंतित है। किसी भी समस्या को हल करने का पहला चरण होता है गलतियाँ स्वीकार्य करना। गलत इस लिहाज से है कि आप उस समय और परिस्थिति (Time and Space) के अनुसार चीजों को नहीं समझ रहे है। इसके लिए आपको इतिहास के सहारे भूतकाल में जाके सोचने की कला आनी चाहिए। इसलिए उस समय के सामाजिक, आर्थिक और वैश्विक परिस्थितियों से अवगत होना चाहिए। इसके लिए तब के समस्या को आज के वक्त के चश्में से देखना बंद करना होगा।
फिर ऐसे में एक वाजिब सवाल खड़ा होता है – तो फिर आजादी के बाद हमने इस बारे में चिंतन क्यों नहीं की? श्रीकृष्ण को क्यों समझा? इसका उत्तर हमें लिआव ओगार्ड के किताब “The Cultural Defense of Nations” से मिलता है। इन्होंने भारत और अफ्रीका के सन्दर्भ में कहा है कि ये देश आजाद जरूर हुए लेकिन मानसिक गुलामी पूरी तरह से नहीं गया। यह बहुत प्राकृतिक है। आप कभी दो हजार किलोमीटर से ज्यादा ट्रेन में यात्रा करने के बाद जब उतरेंगे तो आपको उतरने के बाद भी यह महसूस होगा कि आप ट्रेन में ही है। क्रमागत उन्नति (evolution) में जीव-जंतु या पेड़-पौधा वातावरण के अनुसार अपने आप को ढाल लेता है। यह लाखों वर्षों से उसी वातावरण में रहने के परिणामस्वरूप होता है। हजारों सालों की गुलामी से एक वर्ष में पूरी तरह मुक्त होने की कामना करना मृगतृष्णा के समान है।
युद्ध से मोह भंग क्यों नहीं होना चाहिए
अब सवाल खड़ा होता है कि हमने क्या गलतियाँ की? – हमने लड़ना छोड़ दिया। हमारे युद्ध बंद करने से अगर सच में पूरी दुनिया से युद्ध बंद हो जाता है तो शायद यह उचित होता कि युद्ध बंद कर दिया जाए। लेकिन यह वास्तविक जीवन में संभव नहीं है। इसके उलट होगा यह कि हम युद्ध बंद कर देंगे तो कोई और हमपर युद्ध जारी रखेगा। उदाहरण के तौर पर पंडित नेहरु, शीतयुद्ध के समय गुट निरपेक्ष निति के जरिए नि:संदेह एक तीसरी दुनिया (Third world) बनाने की कोशिश किए और एक हद तक वे सफल भी रहे। लेकिन उसका दुष्परिणाम यह हुआ कि चीन हमारे ऊपर युद्ध जारी रखा जिसका नतीजा हमने 1962 के युद्ध में भुगता। अंततः पंडित नेहरु ने खुद इस बात को स्वीकार्य किया कि चीन के सन्दर्भ में किसी भी तरह से हम गुट निरपेक्ष नहीं होंगे। सही मायने में रक्षा पर ध्यान देना हमने 1962 के बाद शुरू किया।
युद्ध का एक महत्वपूर्ण अंग होता है जासूसी। भारत-चीन युद्ध के 6 साल बाद, 1968 में रामनाथ काव के नेतृत्व में R&AW की स्थापना की गई। भारतीय राजनीतिक दर्शन में जासूसी की सलाह कौटिल्य ने प्राचीन काल में ही दे दिया था। लेकिन हम उनकी बात को ना तो गुलामी के वक्त समझ पाए और नाहीं आजाद भारत में समझ पाए। इसका परिणाम हमने भारत-चीन युद्ध में भुगता। लेकिन जैसे ही हमने जासूसी को अमल में लिया, उसके बाद हमने एक भी युद्ध नहीं हारे। गठन के चार साल के भीतर R&AW ने अपनी कार्यशैली भारत-पाकिस्तान युद्ध 1971 में दिखाया। शायद यह बात चीन समझ चुका है इसलिए पूर्ण रूप से युद्ध से जाने से हमेशा बचता है। आज के भारत में और तब के भारत में काफी अंतर है। एक डर यह भी है कि अगर परिणाम चीन के पक्ष में ना आए तो शायद 1962 के विजेता का ख़िताब सर से उतर जाएगा।
बहरहाल, भारत की गुलामी का प्रतिबिम्ब इसके दर्शनशास्त्र पर भी पड़ा है। जितने भी दार्शनिक विकास हुए उसमें बेशर्त अहिंसा की बातें की गई है – चाहे महात्मा गाँधी हो या विनोबा भावे। सम्राट अशोक के सहारे कथन को आज भी न्यायोचित ठहराया जाता है। यहाँ पर एक वाजिब सवाल खड़ा होता है। क्या सम्राट अशोक के युद्ध बंद कर देने से युद्ध बंद हो गया? – शायद नहीं। भारतीय राजाओं ने युद्ध से मोहभंग जरूर किया जिसका परिणाम यह हुआ कि विदेशी आक्रान्ताओं ने एक के बाद एक हमारे घर में घुसते चले गए – तुर्क, मंगोल, उजबेक, ग्रीक, मुग़ल, फ्रेंच, ब्रिटिश इत्यादि। हम भारतीय उनके सेनाओं के हिस्सा बनकर एक-दूसरों के लिए लड़ते रहे। इससे बड़ी मुर्खता और क्या हो सकता है। मान सिंह का मुग़ल खेमे में होना और भारतीय सेनाओं का विश्व युद्ध में लड़ना कुछ उदाहरण है। इससे अच्छा होता कि हम अपनी लड़ाई जारी रखते। कम से कम अपना स्वाभिमान बचा रहता।
क्या हम युधखोर हो जाए?
इसका मतलब यह कतई नहीं है कि हम युधखोर हो जाए। क्युकी इसका दुष्परिणाम भी भयानक होता है जिसकी कल्पना करना मुश्किल है। तो फिर क्या करे? युधखोर न बने लेकिन युद्ध के लिए हमेशा तैयार रहे। कभी भी समाज में हम इस बात का ढिंढोरा न पीटे कि हमने युद्ध करना छोड़ दिया है। युद्ध पूरी तरह से छोड़ देना कोई बहुत बहादुरी की बात नहीं है। यह बेवकूफी का प्रतिक है। हमारे इतिहासकारों ने बेशक इसे ‘बहादुरी’ का तमगा देकर हमें बौना बना दिया है। हमारे अंदर सभ्यताओं के विकास की समझ विकसित करनी पड़ेगी। लोक कल्याण के लिए शांति और युद्ध दोनों की जरूरत पड़ती है। भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि जिस चीज से जन का हित होता है वो करना चाहिए – यह हित अगर युद्ध से पुरा होता है तो युद्ध सही और शांति से पुरा होता है तो शांति सही।
हमें अमेरिका और रूस से सीखना चाहिए। दुसरे विश्वयुद्ध में अमेरिका और रूस दोनों एक खेमे में थे। तथाकथित भारतीय सोच के अनुसार इन दोनों के बीच कभी युद्ध होनी ही नहीं चाहिए। लेकिन दुसरे विश्व युद्ध में फासीवाद की हार ने युद्ध के नए आयाम को न्योता दिया। इस न्योता को रूस और अमेरिका ने बेझिझक स्वीकार्य किया। हालाँकि दोनों देश परमाणु संपन्न देश थे, इसके बावजूद युद्ध के एक अलग रास्ता निकाला, जिसे शीत युद्ध कहा जाता है। वो खुद युद्ध नहीं लडे लेकिन युद्ध जारी रखा। अतः दुसरे विश्वयुद्ध के बाद उपनिवेशवाद तो ख़तम हो गया लेकिन पश्चिमी साम्राज्यवाद और युद्ध समान रूप से जारी रहा। युद्ध को परमाणु शक्ति भी नहीं रोक पाया है। यह जारी रहेगा, बस इसके प्रारूप बदलते रहेंगे। संभव है कि आगे का युद्ध ‘स्पेस’ में लड़ा जाए लेकिन निश्चित तौर पर लड़ा जाएगा।
बहरहाल आज शायद हम इसकी अनुभूति नहीं कर पा रहे है लेकिन हमलोग आज भी युद्ध में है। जैसे शीत युद्ध ख़तम होता है, वैसे ही अलग-थलग पड़े इस्लामिक सोच पश्चिमी सभ्यता को चुनौती देते दिखती है। 9/11 जैसी घटना अमेरिका को जड़ से हिला देती है। अमेरिका इस कदर परेशान हो जाता है कि पश्चिम एशिया में बहुत खून और अंधाधुन पैसा बहाते चला जाता है। इसी बीच चीन अपनी जड़ें जमा रहा होता है। 21वीं शताब्दी के दुसरे दशक से चीन अपनी प्रभुत्व का दावा ठोकने लगता है। इसी बीच रूस क्रिमीआ पर कब्ज़ा करके, 2014 में अपनी ताकत की उपस्थिति दर्ज कराता है। करोना काल के बाद शक्ति प्रदर्शन के बीच एक बार फिर रूस अपने पड़ोसी उक्रेन पर हमला करता है। इसलिए युद्ध हमेशा जारी रहेगा। समय के अनुसार इसके प्रारूप बदलते रहेंगे। यह प्रारूप उस समय के ताकत का प्रतिबिम्ब होगा।
हमारा चित्त अहिंसक होना चाहिए
हमें युधखोर नहीं बनना लेकिन युद्ध की तैयारी में लगे रहना है। युद्ध की परिस्तिथि कभी भी पैदा हो सकती है। युद्ध में जीत-हार हथियारों और सैनिकों से ज्यादा मानसिक ताकत पर निर्भर करता है। इसका मतलब यह बिलकुल नहीं कि हमलोग पूरी तरह से हिंसक हो जाए। हमारा चित्त अहिंसक होना चाहिए। शांति के लिए अगर हिंसा का रास्ता अख्तियार करना पड़े, तो हमें पीछे नहीं हटना चाहिए। लोक कल्याण जिस भी रास्ते से होकर गुजरे – हिंसा या अहिंसा – उसका स्वागत करना चाहिए। भारत के लोग और उनका आत्मविश्वास, विषम परिस्तिथियों के लिए तैयारी और दूरदृष्टि भारतीय सभ्यता को अपने शिखर पर पहुचाने की काबिलियत रखता है।
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