जब-जब अंतराष्ट्रीय राजनीती नरम होने को आती है तब-तब अमेरिका सामने आकर नेतृत्व करते हुए लोगों के बीच नया मुद्दा ला देता है| नया मुद्दा न मिलने प पुराने मुद्दों को झाड़-पोछ करने सामने रख देता है| इसका असर वैश्विक स्तर पर अलग-अलग देशों में आर्थिक, सामाजिक और एथिकल रूप में पड़ता है| खासकर जिससे उसको दिक्कत होती है उसे कड़े हाथों लेता है| एक पैटर्न रहा है| अमेरिका पाकिस्तान में सर्जिकल स्ट्राइक करता है और अलकायदा प्रमुख ओसामा को मार गिराता है| वहीं दूसरी ओर मुंबई हमले के आरोपियों प कुछ ख़ास बोलने से हिचकता है|
ऐसा करने के पीछे उसका संगठित हथियार व्यापार मुख्य कारण सा बन जाता है| जब जब अमेरिका को इसकी शक्ति को चुनौती मिलती है तब तब ध्यान भटकाने के लिए उत्पाद मचाता है| संयुक्त राष्ट्र में वोटिंग होती है और मुंह के भर गिरता है जहाँ समर्थन में 9 वोट और विरोध में 128 वोट मिलता है जिससे वहाँ अलग—थलग सा दिखाई देता है| जब-जब स्तिथि गड़बड़ा कर बात स्थाई सदस्यता पर पहुँचती है तब-तब ‘वीटो’ नामक देशी कट्टा का उपयोग करके सबको चुप कराने की कोशिश करता है| यरूशलम इस बार अंतराष्ट्रीय राजनीती के केंद्र में है|
अभी थोड़े दिन पहले अमेरिकी राष्ट्रपति ने द्वि-राष्ट्र की अवधारणा को ख़ारिज करते हुए यरुशलम को इजराइल की राजधानी के रूप में मान्यता दी है| द्वि-राष्ट्र का कांसेप्ट यूनाइटेड नेशन द्वारा दिया गया था| इस कांसेप्ट के अंतर्गत इजरायल और फिलिस्तीन को दो अलग देश और यरुशलम को अंतराष्ट्रीय शहर बनाने की बात कही थी|
इजरायल और फिलिस्तीन के बीच चल रहे लम्बे विवाद को दरकिनार करते हुए पूरी दादागिरी के साथ अमेरिका यरुशलम को इजरायल के हवाले करने की कोशिश कर रहा है| राष्ट्रपति ट्रंप ने अमरीकी दूतावास को तेल अवीव से यरूशलम स्थापित करने पर अपनी सहमती दे दी है| ऐसा करना एक बार से फिर से मध्य पूर्व के हालात को उकसाने जैसा है| ऐसा इसलिए क्युकी इसराइलियों और फ़लस्तीनियों के पवित्र शहर यरूशलम को लेकर विवाद बहुत पुराना और ग़हरा रहा है|
यह दुनिया का सबसे प्राचीनतम और विवादित शहर रहा है| कई मर्तबा इस शहर को कब्जाया गया, ध्वस्त किया गया और फिर बसाया गया| यह शहर इस्लाम, यहूदी और ईसाई धर्मों में बेहद अहम स्थान रखता है| पैगंबर इब्राहीम को अपने इतिहास से जोड़ने वाले ये तीनों ही धर्म यरूशलम को अपना पवित्र स्थान मानते हैं| यही कारण है कि सदियों से यह शहर विवाद का एक केंद्र रहा है|
दुनिया में अगर सबसे खतरनाक कोई मोह है तो वो है “अध्यात्मिक मोह”| यह भौतिक मोह से बहुत ज्यादा खतरनाक है| यह मोह ना सिर्फ अपने देश बल्कि पुरे विश्व में अपनी हिंसात्मक प्रभाव को दर्शाता रहा है| ज्यादातर देश में मुख्य रूप से दो धार्मिक वेरिएबल होते है जहाँ अक्सर संघर्ष देखने को मिलता है| वहीं जब तीन वेरिएबल वाला समीकरण बन जाए तो और उलझा और खतरनाक सा साबित होता है| यरुशलम इस्लाम, यहूदी और ईसाई धर्मों का अपने ‘अध्यात्मिक’ मोह का संघर्ष है|
ईसाई लोगों के नजरिए से यह एक महत्वपूर्ण रहा है| ईसाई हिस्से में पवित्र सेपुलकर चर्च है, जो दुनियाभर के ईसाइयों के लिए आस्था का केंद्र रहा है| ईसाई लोगों का मानना है कि यह एक ऐसी जगह है, जो ईसा मसीह के कहानी का केंद्र है| यहाँ जीसस लम्बे समय तक रुके थे और बीमार लोगों की सेवा किया था| ईसाई परंपराओं के अनुसार यह माना जाता है कि ईसा को यहीं सूली पर लटकाया गया था| इसे कुछ लोग “गोलगोथा” कहते हैं| इसी को “कैलवेरी की पहाड़ी” कहा जाता है| उनका स्तंभ सेपुलकर में अंदर है, यहीं वो जगह भी है जहां ईसा फिर जीवित हो गए थे| इस चर्च का प्रबंधन संयुक्त तौर पर ईसाइयों के अलग-अलग संप्रदाय करते हैं| ये दुनियाभर के करोड़ो ईसाइयों का मुख्य तीर्थस्थल है, जो ईसा के खाली मकबरे की यात्रा करते हैं और यहां प्रार्थना करते हैं|
दुसरी तरफ इस शहर से मुसलमान लोगों का भी हित जुड़ा हुआ है| यहीं पर डोम ऑफ़ द रॉक और मस्जिद अल अक़्सा स्थित है| यह एक पठार पर स्थित है जिसे मुस्लिम ‘हरम अल शरीफ़’ या पवित्र स्थान कहते हैं| ये मस्जिद इस्लाम की तीसरी सबसे पवित्र जगह है, इसकी देखरेख और प्रशासन का ज़िम्मा भी एक इस्लामिक ट्रस्ट करता है, जिसे वक़्फ़ कहा जाता है| मुसलमान लोगों का मानना है कि पैगंबर अपनी एक रात की रात्रि यात्रा में मक्का से यहीं आए थे| यहां पैगंबरों की आत्माओं के साथ चर्चा की थी| क़ुब्बतुल सख़रह से कुछ ही की दूरी पर एक आधारशिला रखी गई है जिसके बारे में मुसलमान मानते हैं कि मोहम्मद ने यहीं से जन्नत की यात्रा की थी| मुसलमान साल भर यहां आते हैं लेकिन पवित्र रमज़ान के महीने में हर शुक्रवार को मस्जिद में हज़ारों मुसलमान नमाज करने के लिए एकत्रित होते हैं|
इसमें तीसरा पक्ष यहूदी लोगों का आता है| यहूदी इलाके में “कोटेल” या पश्चिमी दीवार का घर है| यह माना जाता है कि यहां कभी पवित्र मंदिर खड़ा था, ये दीवार उसी बची हुई निशानी है| इस स्थल के भीतर यहूदियों की सबसे पवित्रतम जगह ”होली ऑफ होलीज” स्तिथ है| यहूदी मानते हैं यहीं पर सबसे पहली उस शिला की नींव रखी गई थी, जिस पर दुनिया का निर्माण हुआ| यहीं पर पैगंबर इब्राहिम ने अपने बेटे इश्हाक की कुर्बानी देने की तैयारी की थी| पश्चिमी दीवार, ”होली ऑफ होलीज” की वो सबसे क़रीबी जगह है, जहां से यहूदी प्रार्थना करते है| इसका प्रबंध पश्चिमी दीवार के रब्बी करते हैं| यहां हर साल दुनियाभर से लाखों यहूदी यहां आते हैं और ख़ुद को अपनी विरासत से जोड़ते रहे हैं|
अगर मान्यताओं से हट के थोड़ी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि देखे तो यरूशलम को यहूदियों का राजा डेविड ने इसे अपना राजधानी बनाया था| इसके बाद डेविड का पुत्र सोलोमन इसका राजा बना जिसने यहाँ यहूदी मंदिर बनाया था| इस मंदिर को बाद में रोमनों ने नष्ट कर दिया था| यरूशलम को ईसाईयों, यहूदियों और मुस्लिमों ने हमेशा से अपने आन बान शान से जोड़कर रखा| इतिहासकार यह मानते है कि 11वीं सदी से लेकर 13वीं तक ईसाईयों और मुस्लिमों के बीच 200 सालों तक संघर्ष चला जिसे सामान्यतः धर्म युद्ध कहा गया|
इस धर्मयुद्ध के दौरान यहूदी वहाँ से विस्थापित हो गए| 19वीं शताब्दी में ‘यहूदी राष्ट्रवाद’ का विचार सामने आया जिसके बाद से यहूदियों ने यरूशलम को मातृभूमि मानने और प्राप्त करने के लिए संकल्प लिया| इसके बाद प्रथम विश्व युद्ध के दौरान यरूशलम पर ब्रिटेन का कब्ज़ा हुआ| अंग्रेजों ने इन्हें अपने फायदे के लिए उपयोग किया| ब्रिटेन ने यहूदियों को पुनः बसाने का लालच देकर प्रथम विश्व युद्ध में अपने पक्ष में कर दिया|
इस दौरान यहूदी लोग व्यवस्थित तरीके से यरूशलम में प्रवेश करते गए| धीरे-धीरे यहूदियों की आबादी बढती गई और मुस्लिम कमजोर होते गए| द्वितीय विश्व युद्ध को ख़त्म होने के बाद 1946 में अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रूमेन ने विस्थापित यहूदी लोगों को फिलिस्तीन में बसाने की बातें सामने रखा| ब्रिटेन इस पर तैयार नहीं था| ब्रिटेन के असहमति के बावजूद 1948 में इजरायल अपने आप को स्वतंत्र राष्ट्र घोषित कर दिया| बहुत जल्द अमेरिका ने इसपर सहमती जाहिर कर मान्यता दे दी| इसके ठीक बाद 1948 में अरब देशों और इजराइल के बीच पहला युद्ध हुआ| इसका परिणाम यह हुआ कि पश्चिमी यरूशलम इजराइल के और पूर्वी यरूशलम जोर्डन के कब्जे में चला गया| इसके बाद फिर 1967 में अरब-इजराइल के बीच युद्ध हुआ जिसमें इजराइल ने पुरे यरूशलम पर कब्ज़ा कर लिया|
असल कहानी यही से शुरू हुई| इस युद्ध के बाद इजराइल ने पश्चिमी यरूशलम में संसद भवन, सर्वोच्च न्यायलय और राष्ट्रपति-प्रधानमत्री समेत नेताओं के सरकारी आवास बना डाले| वहीं विश्व के अलग-अलग देशों के दूतावास तेल हबीब में ही स्थापित है| 67 वाले युद्ध के बाद भी पूर्वी हिस्से का कुछ भाग फिलिस्तीन के कब्जे में रह गया| तब से अब तक यरूशलम को लेकर संघर्ष चलता आया है|
अब सवाल यह खड़ा होता है कि अमेरिका के ऐसे निर्णय के पीछे क्या कारण है? क्या यह अचानक है या बहुत पहले से चलता आ रहा है? इसके पीछे राजनितिक हित रहा है जैसे भारत में राम मंदिर को लेकर रहा है| हालाँकि वर्ष 1995 में अमेरिकी कांग्रेस ने यरूशलम दूतावास अधिनियम पारित किया था| इस अधिनियम का सीधा सा लक्ष्य यह था कि अमेरिकी दूतावास को तेल हबीब से यरूशलम ले जाया जाएगा और यरूशलम को इजराइल की राजधानी घोषित कर दी जाएगी|
अमेरिका के तीन राष्ट्रपतियों बिल क्लिंटन, जार्ज बुश और बराक ओबामा ने इसे स्थगित रखा था| स्थगित के पीछे कारण यह रहा है कि पूरी अमेरिकी हुकूमत एकमत नहीं रही है| यहाँ तक कि रक्षामंत्रालय पेंटागन और विदेश मंत्री भी बहुत ज्यादा इसके पक्ष में नहीं रहे है| अमेरिका के नए राष्ट्रपति थोड़े गर्दा टाइप आदमी है जो कमिटमेंट की प्रधानता सबसे ज्यादा देते है| परिणाम यह हुआ कि ट्रम्प ने इसे स्थगित करने से मना कर दिया| श्री ट्रम्प ने इसे चुनावी घोषणापत्र में इसे डाला था| इसके पीछे उनका लक्ष्य था कि वो इवेंजलिकल (यहूदी) वोट को अपने पक्ष में कर सके| ठीक वैसे ही जैसे भारत की एक पार्टी हिन्दू लोगों को अपने पक्ष में करने के लिए राम मंदिर से लिए वायदे करते रहे है| यही कारण है कि चुनाव के दौरान यहूदी लोगों ने ना सिर्फ वोट बल्कि चुनावी फण्ड देकर ट्रम्प का समर्थन किया था|
दूसरा लक्ष्य यह हो सकता है कि अमेरिका एशिया की राजनीती में तेल और हथियार के व्यापार के माध्यम से अपनी पकड़ मजबूत बनाने की कोशिश कर रहा हो| इस्लामिक स्टेट जैसे आतंकवादियों का सीरिया में विफल होना और उत्तर कोरिया का अमेरिका को खुले रूप से चुनौती देना कहीं न कहीं अमेरिकी शक्ति में कमी की ओर इशारा करता है| उत्तर कोरिया अगर पूर्व में उलझाने में कामयाब रहा तो हो सकता है कि विवाद क्षेत्र, विचारधारा और हथियारों का संगठित बाजार में बहुत बड़ा अंतर देखने को मिले जिसका सीधा फायदा चाइना और रूस को जाएगा|
ऐसे में आतंकवाद के नाम पर सुरक्षा का मॉडल का भूगोल भी बदल सकता है| ऐसे में अमेरिका यह बिलकुल नहीं चाहेगा कि हथियारों का संगठित बाजार उसके हाथ से जाए| इसलिए पुरे विश्व का पूर्व के ध्यान भटकाने लिए मिडिल ईस्ट का कार्ड एकबार फिर खेल रहा है| इसबार यरूशलम इसका माध्यम है|
इस एक्शन पर रूस, चीन, यूरोपियन यूनियन और ब्रिटिश जैसे बड़े देशों अपनी नाराजगी जाहिर की है| फ्रांस, जर्मनी, इटली और स्वीडेन भी अमेरिका के इस फैसले के साथ खड़ा नहीं है| अमेरिका के इस एकतरफे फैसले से ना सिर्फ वैश्विक अशांति होगी बल्कि आतंकवादी और उग्रवादी घटनाएं बढेंगी| वैश्विक अर्थव्यवस्था पर भी इसका बुरा असर होगा जिसमें देश लोक कल्याण के पैसों का उपयोग हथियार खरीदने में करेंगे|
सबसे अच्छी बात यह है भारत सरकार ने एक बढ़िया फैसला लिया जिसमें अमेरिका का कॉपी करते नहीं पाया गया| सही बात है भारत किसी दुसरे देश के बारे में निर्णय लेने के लिए किसी तीसरे के फैसलों का क्यों इम्पोर्टेंस दे| भारत का रिश्ता इजराइल और फिलिस्तीन दोनों से अच्छा रहा है| जब भी मिडिल ईस्ट में अस्थिरता होती है तब-तब भारतीय लोगों को शरण और मदद इन्ही देशों से मिलती है|
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