जब भी बाबा भीम राव आंबेडकर जी के जन्म आवेला तब भारत के राजनीती में एक प्रकार के गरमाहट आ जाला, सब राजनितिक पार्टी अपना अपना तरीका से उहाँ के अपना पक्ष में करे के कोशिश करे लागेला | लेकिन अबकी गर्मी उठल बा उहाँ के जयंती या पुण्यतिथि से ना, बलुक लगले भईल जातिगत अउरी आर्थिक जनगड़ना आ गुजरात के पटेल समुदाय, राजस्थान के गुर्जर समुदाय, महाराष्ट्र के मराठा समुदाय के आरक्षण के मांग से आ हरियाणा के जाट समुदाय के मांग प सुप्रीम कोर्ट के फैसला से, जवन की फिर से सतहीकरण करत मंडलीकरण के सतह तक पहुच गईल बा |
सोशल मीडिया प खासकर करके एकर बोखार आसानी से देखल जा सकत बा, अइसन लागत बा मानी कुछ दिन तक बहस करे के कुछ मशाला मिल गईल होखे | इ एक प्रकार के बड़ा ही विवादित मुद्दा पाहिले भी रहल बा अउरी आज भी बा | हमहू छोट रही त लागत रहे अइसन काहे होला ? इ जाती आधारित ना होखल चाहत रहे बल्कि आर्थिक आधार पर होखल चाहत रहे | लेकिन जईसे जईसे बड होखत गईनी पढ़त गईनी सारा सवाल के जवाब धीरे धीरे ही सही, लेकिन मिलत गईल |
आरक्षण के असल मायने
सबसे पाहिले बात इ शुरू कहाँ से भईल ? इ ह का ? एकरा के एगो उदहारण से समझे के कोशिश कईल जाई | जईसे गीता, महात्मा गाँधी जी पढले रहले आ नाथूराम गोडसे भी लेकिन ओह दुनो लोग के इंटरप्रिटेशन अपना अपना हिसाब से अलग अलग रहल | एकदम ओकरे लेखा, जईसे कुरान के, स्वात वैली में स्तिथ फैजुल्लाह भी पढले अउरी मलाला भी, लेकिन ओह दुनो लोग के भी इंटरप्रिटेशन अपना-अपना हिसाब से बा | ठीक ओसही आजादी के पाहिले, 1935 के पुना पैक्ट्स में भारत के एगो जातिविहीन राष्ट्र के कल्पना कईल गईल रहे |
ओही जातिविहीन राष्ट्र बनावे के खातिर, दोसरा लब्ज में कही त एगो यूनिफार्म प्लेटफ़ॉर्म प लावे खातिर एगो जातिगत आरक्षण के व्यवस्था कईल रहे ताकी भारत के जातिगत बेडियन से दूर कईल जा सके | ओह लक्ष्य के पावे खातिर आरक्षण के माध्यम बनावल गईल रहे लेकिन समय के अनुसार सब लोग ओकरा के अपना अपना हिसाब से इन्टरप्रेट करके ओकरा के डिफाइन कईलस, जवना के नकारात्मक प्रभाव पडल आ दवाई के साइडइफ़ेक्ट सामाजिक अन्धविश्वास अउरी राजनितिक ध्रुवीकरण के रूप में हो गईल | आरक्षण कवनो कल्याणकारी आ सुविधा देवे वाला निति ना ह, बल्कि एगो नागरिक पहचान आ राजनितिक पहचान देवे के माध्यम ह जवना से जातिविहीन राष्ट्र के कल्पना कईल जा सके |
आज भी हर आदमी के अलग अलग विचार मिली एह मुद्दा प, पहिला आदमी कही कि जेकरा के आरक्षण देवल जाला उ आर्थिक रूप से अतना कमजोर रहेला कि आज के आधुनिक प्रतिस्पर्धा के सामना ना कर पावेला एही आरक्षण देवल जाला | एही बात प हजार आदमी टूट के क्रॉस क्वेश्चन करेला कि आर्थिक रूप से कमजोर त उच्च जाती में भी लोग रहेला | दोसरका आदमी सामाजिक परिपेक्ष में पूरा कहानी के समझावे के कोशिश करेला कि उ लोग सामाजिक रूप से बहूत पिछडल रहल बा एह से आरक्षण जरूरी बा, एहू प तमाम तरह से क्रोस क्वेश्चन पूछात रहल बा |
तिसरका आदमी एकरा के डिफाइन करेला परोपकारी आ कल्याणकारी नजरिया से, कि बहूत साल से दलित जाती के साथे सामान्य व्यवहार नइखे भईल ढेर भेदभाव भईल बा, एह से राजनितिक आरक्षण जरूरी बा | हमरा समझ से तीनो तरीका डिफाइन करे के बहूत ठीक नइखे, काहे कि समाज में उहे असमानता पैदा कर रहल बा जेकरा के ख़त्म करे खातिर हमनी के पूर्वज भरपूर कोशिश कईले रहन जा | जबकी सच्चाई इ बा कि आरक्षण के उद्देश्य जातिविहीन राष्ट्र के कल्पना ह ना कि कवनो असमानता पैदा करे के जरिया |
आर्थिक आरक्षण के चुनौती
हमरा लागेला कि हमनी के पूर्वज पूना पैक्ट के समय कबो सपनो में ना सोचले होइहे जा कि जवन माध्यम आरक्षण वाला उ लोग ढूंढ रहल बा जातिगत असमानता ख़त्म करे खातिर, ओकर साइड इफ़ेक्ट एतना भयंकर होई कि आवे वाला समय में राजनितिक वोट बैंक मात्र बन के रह जाई | राजनितिक हस्तक्षेप बहूत बरियार रूप से हावी बा एह मुद्दा प, लेकिन अगर पाहिले के अपेक्षाकृत आज के सामाजिक असमानता के इमानदारी से विश्लेषण करम त एह निर्णय प जरूर पहुचम कि सामाजिक असमानता कम जरूर भईल बा | हम एह से कहत बानी काहे कि पाहिले जवन मौखिक आ व्यावहारिक हिंसा होत रहे जाती के नाम प उ काफी हद तक कम भईल बा एह में कवनो दू राय नइखे |
लेकिन एक दू उदहारण खाली पेश करके पूरा थ्योरी ध्वस्त कईल भी ठीक चीज नइखे | एगो अउर बात बा अगर एकर प्रभाव व्यापक रूप में नकारात्मक रहित त आज तक इ चलल ना रहित | काहे कि आरक्षण एगो भागीदारी ह जहाँ आके उ आदमी आपन बात मंच प आके रख सकेला एकरा के एगो उदहारण से समझल जा सकत बा | जईसे कवनो औरत आपन हर व्यक्तिगत चीज के अभिव्यक्ति पुरुष से ना कर सके, एही से महिला खातिर कोई ना कोई रिप्रेजेन्टेटिव होखे के चाही अउरी बा भी चाहे पुलिस में होखे या संसद में (संसद में थोडा कम बा लेकिन बा) |
लोग कहेला कि आरक्षण जातिगत काहे बा ? आर्थिक आधार प काहे नईखे ? पाहिले इ बताई कि आर्थिक आधार प देवे वाला कवन पैमाना बा ? आज ले आर्थिक आधार प जवन भी सुविधा देल गईल बा लोग के ओकर एफिशिएंसी का बा ? BPL(Below Poverty Line) वाला रेखा भी साफ़ नइखे | एह मुद्दा प भी बरियार डिबेट होखत आइल बा कवनो नया बात नइखे | जमीनी स्तर प एगो अउर बात आइल बा, उ इ कि गाँव में जेकरा भीरी BPL कार्ड होखे के चाही ओकरा भीरी नइखे लेकिन जे सामाजिक आ आर्थिक रूप से संपन्न बा उ अत्यधिक लाभ के चक्कर में गैर कानूनी तरीका से बनवा रहल बा |
आर्थिक आधार प अगर दिआई त एह बात प भी आशंका बनल रही कि कही अइसन मत हो जाव कि बुकिंग पिछड़ा लोग के नाम प होखे आ डिलीवरी संपन्न लोग के | दुसरका बात जे आर्थिक रूप से कमजोर बा ओकरा के सुविधा के जरूरत बा ना कि आरक्षण के, एह से आर्थिक रूप से पिछडल लोग के सुविधा के मांग करे के चाही सरकार से, ना कि आरक्षण खातिर | एह तर्क प आसानी से महारष्ट्र के मराठा समुदाय, हरियाणा के जाट समुदाय अउरी गुजरात के पटेल समुदाय के मांग के आसानी से नाकारल जा सकेला | पटेल, जाट आ मराठा समुदाय के लोग गाँव में भले आर्थिक रूप से कमजोर होखस लेकिन सामाजिक रूप से आज भी बरियार बा |
आरक्षण के प्रभाव
अगर एकर प्रभाव के विवेचना कईल जाव त एकरा के दू रूप में देखल जा सकेला पहिला इ कि प्रभाव सकारात्मक जरूर पडल बा उ बात अलग बा कि धीरे रहल बा | कई लोग के बयान आवेला कि गरीबी के कवनो जाती ना होला | इ सब खाली भाषणबाजी करे खातिर ठीक बा काहे कि अगर गरीबी के कवनो जाती ना होखे त इ बताई कि निचे गईला बा गरीबी बढ़त आ ऊपर गईला प घटत काहे जाला ? कवनो ना कवनो सम्बन्ध जरूर बा | एही से हम फिर दोहरावत बानी कि एगो सेन्सस के रूप में देखे के जरूरत बा, ना कि एगो दू गो उदहारण के | समय के साथे राजनितिक रूप से भागीदारी भी मिलल बा ओही आरक्षण के प्रमाण भी बा |
उत्तरप्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश, आंध्रप्रदेश के राजनीती एकर गवाह बा | दुसरका प्रभाव नाराकरात्मक रूप से इ पडल जा रहल बा कि तमाम जाती आपन संगठन बना के पिछड़ेपन के होड़ में आगे देखावे के कोशिश कर रहल बा | ताजा उदहारण के रूप में गुजरात में चल रह पटेल समुदाय, राजस्थान के गुर्जर समुदाय के आरक्षण के मांग आदि | संगठन सुझाव ढूंढे के कोशिश नइखे करत, आपन जाती के खामी के मूल्यांकन नइखे कईल चाहत, बल्कि खाली पिछड़ेपन साबित करे खातिर साक्ष्य ढूढ रहल बिया जवन दुर्भाग्यपूर्ण बा | उ इ सब एह से करत बा काहे कि आरक्षण ओकरा सुझाव के रूप में लउकत बा जवन कि मृगतृष्णा ह तमाम संगठन खातिर जे एह तरह से सोच रखेला |
अंत में एगो सुझाव आ निष्कर्ष के रूप में हम इहे कहल चाहब कि सबसे पाहिले लोग के मानसिकता बदले के जरूरत बा | दूसरा बात इ कि साइक्लिक प्रोसेस चलत रखे के काम बा जवन नइखे होत | मतलब इ कि जेकरा के आरक्षण देवल गईल बा ओकर समय समय प मूल्यांकन कईल जरूरी बा कि ओकरा में केतना सुधार भईल बा ठीक ओकरे लेखा जईसे कवनो छात्र के पढाई के मूल्यांकन ओकर टेस्ट लेके कईल जाला | टेस्टिंग जेतना जरूरी बा ओतने जरूरी बा ओकर परिणाम प एक्शन लेवल | माने इ कि अगर सुधार आवता त ओकरा के हटावल जाव अउरी अगर कवन समुदाय परिस्तिथि के अनुसार सामाजिक आ सांस्कृतिक रूप से पिछड़ रहल बा, ओकरा के जोडल जाव |
लेकिन हो का रहल बा कि खाली जोडल जा रहल हटावल कवनो नइखे जात | तीसरा बात कि खाली एगो निति से तमाम तरह से विभिन्न लक्ष्य के भेदल नइखे जा सकत एह से अगर कवनो अउरी विकल्प आ पैमाना लउकत बा त ओकरा तरफ ईमानदारी से काम करे के जरूरत बा | लोग के इ बात दिमाग से निकाल देवे के चाही कि आरक्षण कवनो गरीबी उन्मुलयन आ कल्याणकारी नीति ह | चौथा बात इ कि आरक्षण देवे वाला लाइन हमेशा साफ़ रहो यानी कि कही अइसन मत हो जाव कि होड़ के चक्कर में कवनो अन्य समुदाय खातिर अन्याय मत हो जाव |
नोट :- हमार इ लेख आखर पत्रिका के सितम्बर अंक में छप चुकल बा|
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