व्यक्तिगत स्वार्थ से निहित था बिहार का महागठबंधन

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बिहार को युहीं राजनीती का लेबोरेटरी नहीं कहा जाता है| यहाँ से कई मर्तबा केंद्र की राजनीती तय हुई है| किरदार हमेशा बदलता रहता है| ऐसा बिल्कुल नहीं है कि जो बिहार में हो रहा है वो भारतीय राजनीती बिलकुल नया या अजूबा हो रहा है| ऐसी घटनाएँ इतिहास में भी है| प्रकाश झा साहब की एक फिल्म है ‘राजनीती’| उसमे एक बढ़िया सा जुमला है कि ‘राजनीती में फैसले सही या गलत नहीं होते, फैसले से बस मकसद पूरा होना चाहिए’| नितीश कुमार की पार्टी ‘जदयू’ एक गठबंधन वाली पार्टी है| किसके साथ गठबंधन रखना है और किससे तोड़ना यह उनपर और उनकी पार्टी पर निर्भर करता है| हमरा और आपका विचार इसपर अलग अलग जरूर हो सकता है| किसी को सही लग सकता है और किसी को गलत| जहाँ तक रही बात राजनितिक मूल्य और जनता के मैंडेट का, तो एक बात साफ़ है, भारत में कोई भी पार्टी नहीं है जो राजनितिक मूल्यों पर चल सके| आम आदमी पार्टी जब बनी थी तो लोगों को लगा था कि यह एक साफ़ सुथरी और मूल्यों से भरी पार्टी बनेगी जो राजनीती को एक नया आयाम पैदा करेगी| जब तक मूल्यों पर चली तब तक दिक्कतें होती रही| प्राइम टाइम बनता रहा|

लेकिन जैसे ही पार्टी के भीतर आंतरिक लोकतंत्र का लगाम अरविन्द केजरीवाल ने अपने हाथों लिया तब सब सही सा हो गया| नहीं तो आए दिन बागी-बागी का खेल चलता ही रहता था| इस खेल में ऐसे ऐसे लोग हीरो बन रहे थे जिनकी ना तो राजनीती में और नाही किसी सामाजिक कामों में कोई ख़ास वजूद ही नहीं है| इसलिए किसी पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र हो, पार्टी अपने फंडिंग का ब्यौरा दे, राजनितिक मूल्यों की अहमियत दी जाए आदि चीजों का कामना करना बेवकूफी मात्र है| रही बात जनता के मैंडेट और धोखा करने की तो इसका कुछ भी साफ़ नहीं है कि जनता ने असल मैंडेट किसको दिया था| वोट के आदान प्रदान से RJD और JDU जीती थी| यह सब जानते है इसमें JDU की ज्यादा हानी हुई थी| नितीश कुमार की 115 (2010 चुनाव में) सीटों वाली पार्टी 71 (2015 चुनाव में) पर पहुच गई थी| वही RJD सिर्फ वोट शेयर के जरीय 22 (2010 चुनाव में) सीटों से 80 (2015 चुनाव में) सीट तक पहुचं गए| 2010 और 2015 के बीच लालू यादव ने ऐसा क्या कर दिया था कि इतनी बढ़िया सीट पा गए| चालाकी से टिकट बटवारा और वोट प्रतिशत शिफ्ट होने का ही यह परिणाम था|

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कई जगहों पर JDU के विधायक पहले से जीते हुए थे उन्हें टिकट तक नहीं मिली थी| उन जगहों पर RJD ने अपने विधायक खड़ा करवाकर उन सीटों को जीत लिया जो कभी JDU का जीता हुआ सीट हुआ करता था| ऐसे में JDU के खुद के विधायक बागी बन बैठे और कुछ ने तो पार्टी छोड़ भाजपा में जा शामिल हुए| इसलिए मैंडेट तब तय होता जब पता होता कि जनता ने किसको वोट दिया है| RJD जो अपने आप को धर्मनिरपेक्षता का प्रतिक समझती है वो खुद उस समुदाय को धोखा देते आई है| अपने बैनर पर उर्दू में राजद लिखवा लेने और बीजेपी का नाम लेकर डरवाने से धर्मनिरपेक्षता साबित नहीं होती है| अगर सच में धर्मनिरपेक्ष है और मुस्लिम समुदाय का आदर करते है तो उन्हें कम से कम उपमुख्यमंत्री का पद अपने बेटे नहीं बल्कि अब्दुल बारी को देते| यह बात जदयू के नेता अली अनवर साहब को भी समझ लेनी चाहिए| अनवर साहब का जमीर उस वक्त कैसे इज्जाजत दे दिया जब अब्दुल बारी को शपथ के लिए दोनों के बेटे के बाद बुलाया गया| यह है राजनितिक अनादर जो मुस्लिम समाज के साथ किया है|

बात यही नहीं रूकती| इनके अलावां और भी उनके पुत्रों से कई सीनियर और दिग्गज विधायक है, जिनका श्री यादव ने नजरंदाज कर अपमानित किया है| अपने बेटे को उपमुख्यमंत्री के अलावां तीन-चार महत्वपूर्ण मंत्रिमंडल का पद तक दे डाला था| वही अब्दुल बारी को सिर्फ फाइनेंस देकर मामला टालना चाह रहे थे| यह किसी और का नहीं बल्कि श्री यादव का ही बोया हुआ शनिचर था| पुत्र मोह में श्री यादव वो सबकुछ भूल चुके है जहाँ से शुरुआत की थी| जिसकी जितनी हिस्सेदारी उसकी उतनी भागीदारी| कोई पार्टी फण्ड के बारे में नहीं पूछ रहा और नाही पार्टी के भीतर आन्तरिक लोकतंत्र के बारे में पूछ रहा| कम से कम जो वरिष्ठ लोग थे उनको तो इज्जत मिलनी चाहिए ही थी| ऐसा नहीं है कि दलबदल कोई पहली मर्तबा हो रहा है| इससे पहले भी हो चूका है| याद कीजिए उस राजनारायण को जिसने जनता पार्टी की ओर से श्रीमती इंदिरा गाँधी को चुनाव में हराया था| वही राजनारायण बाद में संजय गाँधी के साथ मिलकर फ़िल्मी स्टाइल में सरकार गिराने में भी अपनी अहम भूमिका निभाई थी|

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दूसरा उदहारण सुभ्रमनियम स्वामी साहब है| जिन्होंने सोनिया गाँधी और श्रीमती जयललिता के साथ मिलकर अटल बिहारी बाजपेई की सरकार गिराई थी| वही सुभ्रमनियम स्वामी बीजेपी में है| जयललिता और श्रीमती सोनिया गाँधी पर केस भी करते रहे है| ये वो महतवपूर्ण लोग है जिन्होंने सत्ता का अलग अलग स्वाद लेकर सरकार को प्रभावित किया है| लेकिन इससे भी अपने आप को अलग नहीं किया जा सकता कि नितीश कुमार राजनितिक महत्वकांक्षी नहीं थे| मैंने बिहार चुनाव के वक्त भी वही लिखा था जो अब लिख रहा हूँ| वो एक साफ़ सुथरी छवी के नेता भी रहे है जिसका पूरा फायदा लालू प्रसाद को अपने राजनितिक करियर को पुनर्जीवित करने में मिला है| जब कहा जाता था कि घर बनवा लो, तो जवाब होता था कि पहले बिहार तो बना लें| इससे भी कोई नहीं भाग सकता कि बिहार में अगर सबसे बढ़िया राजनितिक समय रहा है तो नितीश कुमार का बीजेपी के साथ गंठबंधन में ही रहा है| मैंने बिहार के इकनोमिक सर्वे और तमाम सरकारी दस्तावेजों को पढ़कर बिहार चुनाव से पहले इस पर विश्लेषण करने की कोशिश भी की थी|

वैसे लालू यादव अपने को जयप्रकाश नारायण और राम मनोहर लोहिया के समर्थक भी बताते है और बेनामी संपति के मालिक भी है| अगर आज जयप्रकाश नारायण और राम मनोहर लोहिया होते तो वो भी इनपर शर्म करते| लालू यादव भले ही आरोप लगा रहे हो और अपने आप को परोपकारी दिखाने की कोशिश कर रहे हो लेकिन लालू को नितीश की जरूरत थी| लालू प्रसाद पर खुद को बचाए रखने का संकट था| एक मामले में कोर्ट से उन्‍हें सजा मिल चुकी थी| वह चुनाव नहीं लड़ सकते थे| इस दौर में राबड़ी देवी को लेकर चुनाव में उतरना उनके लिए सेफ नहीं था| मीसा चुनाव हार चुकी थीं, तो लालू के पास दोनों बेटों को राजनीति के लिए तैयार करने के अलावा कोई विकल्‍प नहीं बचा था| यह तभी संभव था, जब कोई मजबूत ढाल उनके पास हो| बिहार की राजनीति में पासवान उतने प्रासंगिक नहीं बचे थे| उपेंद्र कुशवाहा का उदय हो रहा था, जो कोइरी-कुर्मी वोट बैंक के साथ लोकसभा की कुछ सीटों पर कब्‍जा जमाए थे| लालू के पास एकमात्र विकल्‍प नीतीश कुमार थे, जो उनके काम आ सकते थे| नीतीश कुमार को एक सहारे की ज़रूरत थी, जो उनके वोट बैंक के साथ मिलकर बहुमत हासिल कर सके|

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यह महज संयोग नहीं था, बल्‍कि दोनों के अपने अपने हित थे, जो दोनों को ज़िन्दा बचाए रखने के लिए ज़रूरी था| इस गठबंधन से दोनों का फायदा हुआ| लालू यादव नितीश का नरेन्द्र मोदी से खफा वाली बात से अच्छे से अवगत थे| इसलिए पास बुलाया और अपने पार्टी को पुनर्जीवित कर दिया| वही दूसरी ओर नितीश कुमार को व्यक्तिगत संतुष्टि मिल गई| नीतीश ने साबित कर दिया कि नरेंद्र मोदी की आंधी के बाजवूद बिहार में वही नेता हैं| जिस नफरत से वो भाजपा के गठबंधन से अलग हुए थे उसका बदला भी ले चुके है| इस गठबंधन में नितीश कुमार की छवी बिल्कुल फिट नहीं बैठ पा रही थी| लालू प्रसाद यादव के साथ ना तो व्यक्तित्व मेल खा रहा था और नाही राजनितिक तौर तरीके| इससे बेहतर है कि वापस लौटा जाए|

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