हम स्वराज की रिचा नवल, हमी नवोदय हो

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जब कभी कुछ चीजें ख़त्म करने के लिए कोशिश की जाती है वो अचानक नहीं होती| वो सब चीजें आहिस्ता-आहिस्ता एक प्रक्रिया के तहत होता है| हमारे देश पार्टी सिस्टम की यह खामी कहिए या फिर पोटेंशियल, जो तय करते है वो हर परीस्तिथि में उससे चिपके रहते है| इसी को वो पार्टी का सिधांत कहते है| यह एक अलग चर्चा का विषय है| मेरी चिंता है कि जहाँ से मैंने अपनी माध्यमिक शिक्षा पूरी की है वहाँ पर चुप-चाप और अप्रत्यक्ष रूप से सरकारी हमले किए जा रहे है| अभी न्यूज़ यह आई है कि नवोदय विद्यालय में अध्ययनरत कक्षा नौ से 12वीं तक के छात्रों की फीस तीन गुना तक बढ़ा दी गई है| सरकारी कर्मचारी को अपने बच्चे के लिए साढ़े सात गुना अधिक भुगतान करना पड़ेगा| छात्राएं, अनुसूचित जाति व बीपीएल श्रेणी के विद्यार्थी से कोई फीस नहीं ली जाएगी| एक पार्टी है जिसने इसका जन्म दिया| दूसरी पार्टी है जो ऐसी संस्था के प्रति हमेशा से असहमति व्यक्त करती आई है| दोनों पार्टियों के सैधांतिक लड़ाई के बीच कभी JNV लेबोरेटरी का मेढ़क बनता है तो कभी JNU, दोनों में सिर्फ एक अक्षर का अंतर है|

जिन लोगो को नवोदय विद्यालय के बारें में पता नहीं है उनकों बता दे कि मूल रूप से नवोदय विद्यालय भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा चलाई जाने वाली पूरी तरह से आवासीय, सह शिक्षा, केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड, नई दिल्ली से संबद्ध शिक्षण परियोजना है जिसे राजीव गाँधी द्वारा चालु किया गया था| ये विद्यालय पूरी तरह से आवासीय एवं निःशुल्क विद्यालय होते हैं जहाँ विद्यार्थियों को नि:शुल्क आवास, भोजन, शिक्षा एवं खेलकूद सामग्री उपलब्ध कराई जाती है| इसकी खासियत यह है कि हर जिले में एक नवोदय विद्यालय होता है जो मेधावी छात्रों को अपनी ओर आकर्षित कर उसे तरासना शुरू करता है| बच्चे पांचवीं कक्षा में छोटे बच्चे के रूप में जाते है और 12वीं करने के बाद मूंछे लिए बाहर आते है| कुल मिलाके हम नवोदयनस असली अभिभावक नवोदय ही होता है| कब-कब में हम नवोदय परिवार का हिस्सा बन जाते है पता भी नहीं चलता है| ये चीजें पूरी जिन्दगी अपने साथ चलती है| हम चाहे किसी भी जिले से पढ़े हो लेकिन एक नवोदयनस दुसरे से मिलता है तो एक अलग और सुखद अनुभव होता है| ऐसा मैंने महसूस किया है|

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भारत में कहीं का नवोदय क्यों न हो जाने के बाद सब एक जैसा लगता है| नवोदय की बनावट से लेकर रहने की शैली तक, सब एक जैसा होता है| इसकी बहुत बड़ी इम्पोर्टेंस रही है कि किसी भी क्षेत्र में किसी भी प्रकार से भेदभाव नहीं करता है| एकदम खुलेपन सोच वाली यह संस्था निरंतर एक से बढ़कर एक हीरे को तरासा है जो एक छोटे से गाँव और परिवार से आते है| भारत के अलग-अलग क्षेत्रों और संस्कृति वाले छात्रों को एक साथ रूबरू होने का मौका मिलता है| हर नवोदय विद्यालय में माइग्रेशन की निति है जिसमें छात्र एक साल भारत के अन्य राज्य से किसी नवोदय से जुड़ा होता है| एक सांस्कृतिक और सामाजिक आदान प्रदान होता है| कुल मिला के कहा जा सकता है कि भारत के शैक्षणिक संस्थाओं में अगर सरकार की सबसे बढ़िया व्यवस्था है तो वो जवाहर नवोदय विद्यालय है| विद्यालय स्तर पर शैक्षणिक संस्थाओं में सरकार की एक मात्र संस्था है जो आज भी जवाबदेह और पारदर्शी है| ऐसे संस्था को ख़त्म करने की निरंतर कोशिश की जा रही है|

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अब आते है अपने केंद्र बिंदु पर| लोग बड़े आसानी से दलील देते है कि प्राइवेट स्कूल के छात्रों के फीस के मुकाबले यह कुछ भी नहीं है| संतोष करने के लिए प्राइवेट स्कूल बनाम नवोदय विद्यालय को रखकर तुलना करके बहुत जल्द इस निष्कर्ष पर पहुचं जाते है कि यह ज्यादा नहीं है| मेरा सीधा सा सवाल यह है कि इसकी तुलना इसके सिधांत से क्यों नहीं होती| अगर देखे तो पहले जो पैसे देते ही नहीं थे उसके मुकाबले यह कितनी बड़ी राशि है| इसका परिणाम यह होता है कि समयनुसार धीरे-धीरे सरकार इसकी राशी बढ़ाए चली जाती है| पहले कुछ भी नहीं था, फिर दो सौ हुआ, अब छः सौ हुआ है और आने वाले समय में छः हजार हो जाएगा| किसी संस्था को ख़त्म करने का यह सरकारी पैटर्न रहा है| अपने पद का उपयोग करके पहले हमले करेगी| उसके बाद जब इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा तो एक समिति का गठन करेगी जो इसके सिधांत और जमीनी स्तर पर किए जा रहे डिलीवरी का निरिक्षण करेगी| रिपोर्ट उम्मीद मुताबिक नहीं आएगा और फिर संस्था को ख़त्म करने या फिर नए उदारवाद के PPP मॉडल में फिट कर किसी प्राइवेट कंपनी के हाथों सौप देगी जैसे आज बहुत सारे PSUs या बाकि के संस्थाओं का किया है|

हो सकता है कि आज यह देखकर संतोषजनक लग रहा होगा कि छात्राएं, अनुसूचित जाति व बीपीएल श्रेणी के विद्यार्थी से कोई फीस नहीं ली जा रही है| अगर यही पैटर्न रहा तो कल उनसे भी वसूली शुरू होगी| अंतर सिर्फ इतना होगा कि सामान्य वर्ग से थोड़ी कम वसूली जाएगी| दलील वही रहेगी कि सामान्य वर्ग का 6 हजार दे रहा है तो आपलोग हजार तो दे ही सकते है| कॉलम के दुसरे हिस्से में तुलनात्मक अध्ययन का खिलाडी बदल जाएगा| दूसरी बात प्राइवेट स्कूल से अगर तुलना हो ही रही है तो बाक़ी के स्तर पर भी किए जाए| जिस पार्टी की केंद्र में सरकार है वो हमेशा से नवोदय विद्यालय को शक के नजर में रखा है| इसके लिए यह कोई नई बात नहीं है| जो दलील JNU को लेकर दी जाती है वही JNV को भी देते रहे है| टैक्स का पैसा बर्बाद होता है ऐसे संस्थानों पर| मै तो सुन-सुन के थक चूका हूँ| अगर सच में टैक्स भरने वाले लोगों के पैसों की इतनी चिंता है तो बस एक छोटा सा काम कर दे कि राजनितिक पार्टियों को ‘सुचना के अधिकार’ RTI के अन्दर ला दे| ये सात-सात हजार करोड़ रूपए जो चुनावी रैलियों में लगते है वो किसके अभिभावक कमा के दे जाते है या फिर कौन इतना बड़ा दानवीर कर्ण है यह बात मुझे आज तक समझ नहीं आई| हजारों करोड़ों रूपए का गबन करके बैठते है तब पैसे बर्बाद नहीं होते|

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वही शैक्षिण संस्था जिसने ग्रामीण क्षेत्रों में एक अच्छा उदाहरण प्रस्तुत किया है और अच्छी शिक्षा, गुणवत्ता की शिक्षा और उन्मुक्त वातावरण में शिक्षा देती रही है वहाँ पैसों की बर्बादी नजर आती है| मै गर्व और दादागिरी के साथ एक बात जरूर कर सकता हूँ कि अगर ढंग से ऑडिटिंग की जाए तो नवोदय विद्यालय जैसे संस्था देश की एक बेहतरीन संस्था है| ऑडिटिंग का मतलब सिर्फ ‘इकनोमिक’ नहीं बल्कि ‘सोशल’ भी| तब अंदाजा अपने आप लग जाएगा कि नवोदय आखिरकार इस देश को देता क्या है| मैंने कई जगह नवोदय के छात्रों को अच्छे-अच्छे संस्थानों और जगहों पर पाया है| एकदम ताजा उदहारण देता हूँ| कल रविश कुमार ने एक किताब “जब नील का दाग मिटा : चंपारण 1917” पढ़कर उसका छोटा रिव्यु देते हुए पढने के लिए सलाह दिया| जब इसके लेखक पियूष मित्र से संपर्क बनाने की कोशिश की जिससे मुझे भी वो किताब मिल सके तब पता चला कि ये भईया तो अपने नवोदय परिवार के ही सदस्य है| थोड़ी बातें हुई और किताब के लिए रिक्वेस्ट डाल दी| ऐसे बहुत सारे सदस्यों से मुलाकात होती है जो कहीं न कहीं सर उचां करते नजर ही आए है|

देश में अगर सबसे ज्यादा पीछे समाज पढाई लिखाई के नजरिए से है तो ओ ग्रामीण समाज है| सुविधा और पहुँच मुख्य कारण रहा है| नवोदय की परेफरेंस आज भी ग्रामीण समाज को ज्यादा रहता है| नवोदय विद्यालयों में 75 प्रतिशत ग्रामीण और 25 प्रतिशत शहरी बच्चों को प्रवेश दिया जाता है| ऐसे में अगर ऐसे संस्थाओं पर आर्थिक हमले होते है जिससे कमजोर किया जा सके तो मै समझता हूँ कि यह ग्रामीण समाज पर यह हमला है| आज जब हम बड़े हो गए और पैसे के बहुत सारे श्रोत नजर आ रहे, तो हो सकता है कि यह रकम बहुत छोटी लगे| लेकिन मै ऐसे नवोदय के कई छात्रों को देखा है जिसका इंजीनियरिंग के लिए परिणाम आ चूका है और NIT में एडमिशन के लिए जहाँ सबसे कम फीस होती है वहाँ भी चूका पाने में असमर्थ नजर आ रहा था| ऐसे में सरकार के पास कोई ऐसे राहत बॉक्स नहीं है जहाँ वो एप्रोच कर सके| नवोदय को लेकर साधारणतः एक वातावरण बनाई जाती है जैसे कोई परोपकारी निति के रूप में लागू किया है और पढ़ने वाले के प्रति ‘हसिए वाली’ भावनाएं बनाई जाती है| मैंने यह चीज कई शिक्षकों में भी पाया है| जबकी सच्चाई यह है कि बच्चे अपने प्रतिभा के बल पर परीक्षा पास करके जाते है ना कि किसी परोपकारी देन की वजह से जाते है|

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वास्तविक रूप में यह हमारे देश की बदलती सत्ता और प्रशासन का परिणाम है| आजादी के पहले देखे तो एक ओर राजा हुआ करता था और दूसरी ओर प्रजा| प्रजा राजा के ऊपर ऐसे निर्भर रहता जैसे राजा ने परोपकार नहीं किया तो प्रजा मर जाएगी| दूसरा फेज आया है अंग्रेजों का, इस फेज की खासियत ये रही किसी भी तरह से लॉ और आर्डर को मेन्टेन करके रखा| शोषणकारी निति वाली अंग्रेजी हुकूमत का लक्ष्य साफ़ था कि उसे किसी भी सूरत-ए-हाल में शासन करना ही है| तमाम नीतियाँ बनाई और यहाँ के लोगों का, यहाँ की अर्थव्यवस्था का और यहाँ के संसाधनों का भरपूर शोषण किया| तीसरे फेज आजादी के बाद के नेहरु एरा का आता है| तुरंत आजादी मिली थी| लोगों का कल्याण कर देश को आगे बढाने का जज्बा था| नीतियाँ ऐसी बनी जो ‘कुछ लोग’ नहीं बल्कि एक बड़े मास के लिए कल्याणकारी हो| उन नीतियों में सबके हित निहित होता था| असल रूप से वही असली लोकतांत्रिक नीतियाँ थी|

लेकिन जो चौथा फेज आया नब्बे के बाद का जिसमें उदारीकरण और वैश्विकरण का आगमन हुआ| इस फेज में सरकार और जनता के संबंध को व्यापार बना दिया| लोकतांत्रिक मूल्य यह कहता है कि अगर मूलभूत चीजें जैसे पानी आदि मुफ्त में जनता को देने में असमर्थ रही है तो यह सरकार के गाल पर बड़ा तमाचा है| वही 21वीं सदी के व्यापारिक व्यावहारिकता यह कहती है कि पैसे नहीं है तो प्यासे मरो| ये सारे नियम और बदलाव इसी शासन प्रणाली और व्यावहारिकता का एक अंग है| यह कहती है कि पैसे नहीं है तो मत पढ़ो और कुछ साल बाद उनके घर आकर झाड़ू मारो|

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