दिल्ली और कश्मीर के बीच संपर्क बेहद जरूरी

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पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी कश्मीर को इंसानियत, कश्मीरियत और जम्हूरियत वाले फ़ॉर्मूले के सहारे जम्मू-कश्मीर के लिए स्वर्ण युग का सपना संजोते थे| लेकिन असलियत यह है कि आज कश्मीर घाटी धीरे-धीरे हैवानियत, वहाबियत और जिहादियत की तरफ बढ़ रहा है| अगर अभी नहीं संभले और विशेष नीति नहीं बनाई गई तो आज कुछ कश्मीरी भाई वहाबी जालसाजों में फसे है कल पूरा कश्मीर फस सकता है| पुलवामा में हुआ यह हमला इसका जीता जागता प्रमाण है| ऐसे हो रहे बदलाव के पीछे, कश्मीरी लोगों की भूमिका बहुत कम है| असल भूमिका कश्मीर की राजनितिक एस्टाब्लिश्मेंट है| मेजर गौरव आर्या अपने एक इंटरव्यू में कहते है कि 1989 के पहले फ़ौज सिर्फ LOC पर तैनात होती है| शायद ही कभी ऐसा होता था कि फ़ौज अन्दर दाखिल होती हो| लेकिन उसके बाद ऐसा क्या हुआ कि धीरे धीरे जवानों की संख्या बढ़ती गई|

गलतियाँ इतिहास से होती आई है| ट्रीटी ऑफ़ वेस्टफालिया 1648 जिसके बाद “नेशन स्टेट” का विकास हुआ, पुरे विश्व में जहाँ भी देश के अन्दर “विशेष ऑटोनोमी” यानी एक तरह का स्वतंत्र स्टेट की बात हुई है वहाँ अलगाव चिंगारी सुलगी है| ‘नेशन’ और ‘स्टेट’ के बीच यही बड़ा अंतर है| कोई भी ‘स्टेट’, नेशन के बगैर बहुत ज्यादा देर तक नहीं रह सकता| इसे प्राकृतिक नियम ही मान लीजिए| इसलिए स्वस्थ्य राष्ट्रवाद भी बेहद जरूरी होता है| आजादी के वक्त किसी भी तरह की ऑटोनोमी हैदराबाद को दी जाती जिसकी मांग उस वक्त हो रही थी, तो शायद उसकी भी यही दशा होती| एक तर्क यह उठता है कि वे वक्त वैसे थे जब हमें विलय करने के लिए कुछ ऑफर देना मज़बूरी था| लेकिन मेरा तर्क यह है कि कोई भी ऑफर परमानेंट नहीं होता| समय के साथ बदलता था| बाक़ी के राजाओं को विलय करवाने के लिए राजा के परिवार वालों को “प्रिवी पर्स” [एक तरह का राजशाही भत्ता] का वायदा किया गया था| इंदिरा गाँधी आई और उसे ख़तम कर दिया| तो क्या राजाओं के परिवार वालों ने देश से अलग होने की बात कही ?

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कश्मीर की राजनितिक एस्टिब्लिश्मेंट की ख़ास बात यह है कि वहाँ की सियासत में ‘अलगाववाद’ को हमने स्वीकारा है| इस अलगाव का दाखिला नब्बे के दौर में शुरू हुआ था| खुद सोचिए जिस पार्टी का लक्ष्य ही अलग होना है उसकी हम मजम्मत करने की बजाए बाकायदा स्वागत करते है और लोकतांत्रिक ढांचे में फिट करने की कोशिश करते है तो कैसे हो सकती है| हालाँकि उत्तरपूर्व में एक ऐसा उदहारण है लेकिन वो अपवाद मात्र ही है| लोकतंत्र की खासियत यह है कि यह बिना साझा लोकतांत्रिक सोंच के एक कदम भी आगे नहीं चला जा सकता| उदहारण के रूप में भले बीजेपी और कांग्रेस की आइडियोलॉजी अलग है लेकिन लोकतांत्रिक सोंच दोनों की साझी है| इसकी कमी कश्मीर में है| दूसरी बात, मै ‘ऑटोनोमी’ के कांसेप्ट को सिरे से बिलकुल ख़ारिज नहीं कर रहा| एक हद तक ऑटोनोमी जितनी देनी चाहिए उतनी हमने बाक़ी के राज्यों या आदिवासी क्षेत्रों में भी दी है| इसी वजह से ऐसी दिक्कतें बाक़ी के जगहों पर इतनी नहीं होती|

चुकी अलगावादी पार्टियों का गठन 1993 में होता है लेकिन भूमिका उसके पहले बनाई जा चुकी थी| अगर पुरानी कहानियों पर ढंग से विचार करेंगे तब पाएंगे कि सबकुछ सुनियोजित था| 1986 में गुलाम मोहम्मद शाह तब के मुख्यमंत्री द्वारा जम्मू के न्यू सिविल सेक्रेटेरिएट एरिया में एक पुराने मंदिर को गिराकर भव्य शाह मस्जिद बनाना, 1988 में जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट बनना, 1989 में भाजपा के नेता पंडित टीका लाल टपलू को कई लोगों के सामने मारा जाना, कश्मीरी पंडितों को रातों रात भगाना, अलगावादी पार्टी का जन्म लेना उसके बाद वहाबीयत का प्रचार प्रसार करना सब एक श्रृंखला की एक-एक कड़ी है| आपको बता दे कि जिस जज [गंजू] ने जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के नेता मकबूल भट्ट को मौत की सजा सुनाई थी, उसकी भी हत्या कर दी जाती है| नारे लगते थे – आजादी का मतलब क्या, ला इलाहा इल्लाह, अगर कश्मीर में रहना होगा, अल्लाहु अकबर कहना होगा, ऐ काफिरों, कश्मीर हमारा है, रालिव, गालिव या चालिव [धर्म परिवर्तन करो, या मरो या भाग जाओ]|

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आपको बता दे जब इस्लाम की जन्म भी नहीं हुआ था तब से ये सभी कश्मीर में रह रहे थे| लेकिन निजाम-ए-मुस्तफा की ख्वाबी पुलाव ने वहाँ के न जाने कितने लोगों की जिंदगियां तहस नहस कर दी| ये बहुत ज्यादा पुरानी बात नहीं है| 1990 से आज 2019 तक 19 वर्षों में एक नौजवान पीढ़ी को अलगावादियों ने खड़ा किया है| पहले ढंगा फैलवाया, फिर पत्थर पकडाया और अब एके 47 पकडा रहे है| ये वही कुछ बच्चे है जो नब्बे के दौर में पैदा हुए थे जो आज अपनी ताकत हमारी जवानों पर अपना रहे है| क्युकी ये बच्चे पैदा होने के बाद सिर्फ हिंसा, पथराव देखते और भारत विरोधी कहानियाँ सुनते बड़े हुए है| हमारी गलतियाँ बस इतनी मात्र है कि कोई ख़ास नीति हमने इस समस्या के लिए नहीं बनाइ| क्युकी हमें लगता है सिर्फ “विकास” मात्र से शांति की गंगा बहती है| जबकी सत्य यह है कि विकास और उग्रवाद एक दुसरे के साथ इनवर्स संबंध रखते है| विकास से उग्रवाद बढ़ता-घटता है यह तो हम सब जानते है लेकिन यह नहीं जानना चाहते कि उग्रवाद से भी विकास बढ़ता-घटता है|

यह कहना कि कश्मीर की समस्या सिर्फ राजनितिक है यह भी बेईमानी है क्युकी धर्म का सहारा शुरू से लगातार लिया जाता रहा है| कश्मीर में जब नारा लगता है कि “कश्मीर से रिश्ता क्या?…. ला इलाहा इल्लाला…. पाकिस्तान से रिश्ता क्या?…. ला इलाहा इल्लाला” तब बात समझ आती है वहाँ का तथाकथित आजादी एकमात्र ढाल है जिसके पीछे एक धार्मिक संघर्ष जोर पकड़ है| इस संघर्ष का मकसद है कश्मीर को इस्लामिक राष्ट्र बनाना| इस संघर्ष में वहाँ की सियासत भरपूर साथ दे रही है| दो-तिन इंडिकेटर है जिससे आसानी से समझा जा सकता है| पहला जो कश्मीरी बच्चे मिलिटेंट बने और पाकिस्तान गये वहाँ बाकायदा शादियाँ की, उन्हें यहाँ घर देने और बसाने का सपना दिखाकर बुलाया गया था| लेकिन चुकी भारतीय नियम के खिलाफ रहा इसलिए फायदा मिल नहीं पाया और जो लेकर आया था और ऊपर पहुँच गया| जो साथ में आई थी वो आज भी पछता रही है कि किन लोगों की वजह से अपना परिवार छोड़कर इधर आ गयी| यह भी कश्मीर की एक सच्चाई है जिसके लिए भारतीय जवान बधाई के पात्र है कि जो भी मिलिटेंट बना है वो साल भर से ज्यादा सांसे नहीं ले पाया है|

दूसरा इंडिकेटर यह है कि पूर्व से चले रोहिंग्या मुसलमानों को भारत में कहीं जगह नहीं मिला और जाकर कश्मीर स्थापित हो गए| इसके लिए बाकायदा देश के तमाम शहरों में भी नारे लगे और जुलुस निकले “आर्यों तुम वापस जाओ रोहिंग्या हमारे भाई है”| खैर मजे की बात यह है हाल में जब पुलवामा का घटना हुआ उसके बाद पाकिस्तान और सऊदी अरब ने जॉइंट स्टेटमेंट जारी कर एकबार फिर मसूद अजहर की संयुक्त राष्ट्र में पैरवी है| यह तीसरा इंडिकेटर है| सवाल उठता है सऊदी अरब क्यों? क्युकी वहाबी का जन्मदाता सऊदी ही तो है| वहाबी जालसाज इस कदर कश्मीर में हावी होने की कोशिश कर रहे है कि लोग अपने वजूद को भूलते जा रहे जिसे उनके पूर्वज पालन करते थे| सबसे बढ़िया उदाहरण पुलवामा हमलावर है| आतंकवादी के पीछे “अहमद” लगता है| क्या अहमदिया इस्लाम में “जिहाद” का जिक्र है? बिलकुल नहीं| यही अंतर तो अहमदिया और बाकी के इस्लामिक सेक्ट के बीच का फर्क है कि अहमदिया सेक्ट ने खुद्कुस करने की मजम्मत की है|

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अब अपने जवानों और अपने कश्मीरी लोगों के बीच के संबंध के बात करते है| अभी हाल में फिदायीन आतंकवादी के पिता की बातें मीडिया में चला कि जवानों ने उसको परेशान किया था जिसकी वजह से उस राह पर चला गया| हम में से किसी को भी सच्चाई नहीं पता लेकिन बहुत सारे लोग अचानक यकीन करना शुरू कर देते है| क्युकी कश्मीर में किसी भी मिलिटेंट को जस्टिफाई करने के लिए जवानों को दोषी बनाना बहूत पुरानी कवायत रही है जिसपर लोग बहूत जल्द विश्वास कर लेते है| लेकिन इसका दूसरा भी पहलु है, जहाँ भी हमारे जवानों ने गलतियाँ की है उनको बाकायदा मिलिट्री कोर्ट से सजा भी मिली है| भारतीय व्यवस्था ने कभी भी अन्याय को फलने फूलने नहीं दिया है| ये बहूत थोड़े लोग है जो लगातार कश्मीर को गर्त में धकेलने के लिए भारत के खिलाफ कहानियाँ गढ़ते है जिसका सॉफ्ट टारगेट हमारे जवान होते है|

इन कुछ लोगों की हरकतों की वजह से देश में जो प्रतिक्रिया दिखाई कश्मीरी छात्रों के खिलाफ वो वाकई निंदनीय है| क्युकी यही तो दहशतगर्दों का अंतिम लक्ष्य होता है कि कश्मीरी और भारत के बाक़ी के भाग के लोगों के बीच अंतर पैदा हो, कम्युनिकेशन ना बन पाए| जाने अनजाने में गुस्से की वजह से आप उनके शाजिस का हिस्सा बन रहे है| इसमें आपकी भी गलती नहीं है| क्युकी आपने जो कश्मीर देखा है वो या तो “बीबीसी” के आईने से देखा है या फिर “अलजजीरा” के आईने से देखा है| बाक़ी हमारे देश की मीडिया के पास इतना कहाँ फुर्सत है कि निरंतर संपर्क बनाए| पूरी दुनिया ने कश्मीर को एकतरफा दिखाया है| कश्मीर में काम कर चुके ऑफिसर, रिपोर्ट्स या फिर एक्सपर्ट्स जो वहाँ अध्ययन में अपना काफी समय दे चुके है, वो असलियत बताएँगे| उनके इंटरव्यू देखिए, उनकी किताबें पढ़िए तक असली कश्मीर का एहसास होगा|

परमाणु युग के दौर में मुझे तो बिलकुल समझ नहीं आता कि पाकिस्तान के साथ क्या करना चाहिए क्युकी इसके लिए टीवी डिबेट वाले एंकर तो है ही| टीवी चैनल वालों को यह समझ नहीं आता कि ग्राफ़िक्स बनाके झूठे सपने बेचना आसान होता है, असल में विदेश नीति बनाना बेहद मुश्किल होता है| कश्मीर हमारा अभिन्न हिस्सा है तो कुछ सुझाव कश्मीर के लिए जरूर है| पहला सिर्फ डेवलपमेंट वाले से काम नहीं चलेगा| सामानांतर हमें वहाँ संपर्क स्थापित करने चाहिए| मीडिया वाले तो ऑफिस से निकलेंगे नही| इसलिए कोई और विकल्प देखने चाहिए| चुकी AIMPLB (आल इंडियन मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड) बहुत पहले से NGO रही है| भारत सरकार की तरफ से उन्हें काफी तवज्जो मिलता है| 250 से ज्यादा मेम्बर है| मुझे लगता है इस समूह को उन्हें वहाँ तकरीरें करनी चाहिए और अपने देश और कश्मीर के रिश्ते के बारे में अवगत कराना चाहिए| AIMPLB को भी इमोशनल एक सम्मान मिलेगा और देश को भी| संपर्क बनाने के लिए ऐसे ग्रुप मुझे सबसे बेस्ट लगते है क्युकी इनकी बोलचाल साझी है और धर्म साझा है|

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ना सिर्फ AIMPLB बल्कि जितनी भी इस्लामिक संगठन है जैसे ‘गरीब नवाज़ फाउंडेशन’ सबको अपनी भूमिका निभानी चाहिए| देश के बराबर की मांग करना सबको “हक़” है लेकिन बराबर की भागीदारी निभाना भी उतना ही “फर्ज” है| क्युकी जो जहर घोली गई है कश्मीरी यूथ के खून में उसे साफ़ करना बहूत जरूरी है| पाकिस्तान पर अटैक करके यह साफ़ नहीं होगा बल्कि गिलानी, सैयद सलाउद्दीन जैसे लोगों ने जो जिहाद का दुकान चला रहे है उसका पर्दाफास करना बेहद जरूरी है| आम कश्मीरियों को असलियत का एहसास होना चाहिए| जितने भी अलगावादी है उनमें से किसी के भी बच्चे ने नाही “जिहाद” किया है और नाही जवानों पर पत्थर फेकें है| सब के सब या तो विदेश है या फिर भारत में नौकरियां कर रहे है| अलगावादी नेता सैयद सलाउद्दीन के पांच बेटे है, कम से कम एक बेटे को तो “निज़ाम ए मुस्तफा” के लिए भेजना चाहिए था| ये लोग आम कश्मीरी लोगों के बच्चों के खून में जहर घोलते है और “निज़ाम ए मुस्तफा” के झूठे ख्वाब दिखाते है| इसलिए डेलीगेशन और तकरीरों के सहारे ही संपर्क साझा जा सकता है|

ये तो हुआ तरीके जिससे नए नौजवानों को रोका जाए| लेकिन इसके अलावां कुछ प्रयास सिक्यूरिटी के तरफ से भी जरूरी रूप से किया जाना चाहिए| इसमें कोई शक नहीं कि जो सरेंडर करे, उसे मौका दिया जाए| लेकिन जो हथियार उठाए उसका डेथ वारंट उसी दिन जारी होनी चाहिए| ये सभी सरकारों में होनी चाहिए| मिलिटेंट को मारने के बाद उनके शव कभी वापस नहीं किए जाने चाहिए| जैसा की एक्सपर्ट्स बताते है जो अक्सर कश्मीर यात्रा करते है कि कुछ परिवार मिलिटेंट बनने को गर्व के रूप में देखते है| यही कारण है कि जनाजे की जुलुस में एकता का जश्न मनाते है| ऐसे सैकड़ो विडियो है जिसमे मिलिटैंट्स एके 47 लहराते दिखाई देते है| ऐसे में स्नाइपर का उपयोग क्यों नहीं किया गया ? ऐसे मौके पर ही तो काम आते है ऐसे राइफल्स| किसी भी कीमत पर यह झूठा सन्देश ना जा पाए कि हथियार गर्व का विषय है| जब राइफल्स लहराते मिलिटेंट को वही जवाब दिया गया था अगले किसी भी ना तो जनाजा यात्रा में आएँगे और नाही ऐसी भीड़ गौरवांवित होने के लिए पहुचेंगी|

अंत में ध्यान यह रहे कि देश की लड़ाई कश्मीरियो से नहीं है बल्कि दहशतगर्दों है जो पूरे समाज को गन्दा करना चाहते है| मै बस यहीं कहूँगा कि बिना कश्मीरी के ‘आईडिया ऑफ़ कश्मीर’ अधुरा है ठीक वैसे ही बिना कश्मीर ‘आईडिया ऑफ़ इंडिया’ अधुरा है|

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2 thoughts on “दिल्ली और कश्मीर के बीच संपर्क बेहद जरूरी”

  1. Incredible! Very impressive analysis Gaurav… Though I partly disagree with the means u have suggested… But as far as the suggested end is concerned I and hopefully all the indians are walking hand in hand with u!! **jai hind**

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