आज शाम को मेरे मित्रो ने एक विमर्श के लिए बुलाया था| केन्द्रीय मुद्दा था ‘कावेरी डिस्प्यूटस’| यह एक बड़ा ही गंभीर मसला है जिसे सुलझाना काफी आवश्यक है| यह मसला कोई तात्कालिक भी नहीं है| अगर इसके ऐतिहासिक पहलु की तरफ झाकने की कोशिश करेंगे तो पाएंगे कि यह समस्या अंग्रेजो से पहले राजाओं के समय से शुरू हुई थी| तब मद्रास और मैसूर रियासत हुआ करती थी| उसके बाद अंग्रेजों ने कावेरी को केंद्र में रखकर हमेशा उलझाए रखा|
अंग्रेजो का कानून उनके हित के अनुसार ही बना करते थे ना कि भारत देश के| यूरोपीय बाजार में जिस चीज की मांग होती थी उसी फसल को जबरन उगवाने को मजबूर करते थे| नील की खेती उसका एक नमूना मात्र है| स्वाभाविक सी बात है कि कावेरी नदी के लिए जो समझौता तैयार किया होगा वो भी उनके हित के मुताबिक ही होगा| फिर सवाल खड़ा होता है कि हम आज भी उस ज़माने की बटवारें की दुहाई क्यों देते है|
जब देश आजाद हुआ था तब समस्या यह थी कि खेती और उद्योग में किसे प्राथमिक बल के रूप में देखे? सत्ता के नशे में पश्चिमी देशो का अनुसरण करने में बिल्कुल पीछे नहीं रहे| यह देश के ऊपर निर्भर करता है कि गुलामी के बाद आजाद देश किस फैक्टर को प्राथमिकता देता है| हो सकता है जिस देश की अनुसरण किया होगा वहां की जलवायु भूमि खेतिसंगत हो ही नहीं| लेकिन हमारा तो था न? जबकी एक बात और यह भी है कि उद्योग लायक हमारे पास कोई संसाधन तक नहीं थे और नाही स्किल्ड लोग फिर उद्योग को क्यों चुना गया?
अगर खेती को उस समय प्राथमिकता दी गई होती तो शायद कावेरी नदी जैसे हजारों नदियों के झगड़ो का समाधान भी किया गया होता| समय के अनुसार हम खेती से उद्योग और बाक़ी के सेवाओं की ओर शिफ्ट कर सकते थे| लेकिन अब उल्टा कर रहे है| पहले उद्योग और सेवा के बारें में खूब चिंता की और खेती-बारी के तरफ नजर उठाके देखना भी मुनासिब नहीं समझा| और आज इसका ठीक उल्टा कर रहे है|
यह समय ऐसा है जहाँ उद्योग और सेवाओं को बल दिया जाना चाहिए तब किसानों को केंद्र में रखकर राजनीती कर रहे है| एक सच्चाई यह भी है सबसे ज्यादा श्रमिक खेती में लगे हुए है और सबसे कम आउटपुट खेती से ही आता है| सबसे कम लोग सेवाओं में लगे हुए है जहाँ से सबसे ज्यादा धन आता है| मेरे समझ से यह मसला फीट-हाइट और सेंटीमीटर की है ही नहीं| दिक्कत है कि आज तक ऐसे मामलों के लिए ठोस आमूल परिवर्तन नहीं किया गया| कानूने बनी तो लेकिन फिट हाइट तक सिमित रह गई|
जब यह सवाल तमिलनाडु पक्ष से पूछा जाता है कि क्या साल में तीन-तीन फसले उगाना तर्कसंगत है? तमिलनाडु पक्ष के लोग उत्तर देते है कि अंग्रेजो के ज़माने से कावेरी नदी का पानी ही उपयोग करके साल में तीन-तीन खेती करते आए है| और जो भी तीन खेतियाँ करते है उसमे पानी की भरपूर जरूरत होती है| ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कर्नाटक पानी से बम-बम है| दिक्कत उसे भी है| तमिलनाडु पानी को बहुत सावधानी से उपयोग करने के बजाए अंधाधुंन शोषण करते है| और डेल्टा बनाने के सह पर पूरा पानी समुद्र में भी बहाते है|
आवश्यकता है किसानो को खेती के तरीकों के बारे में अवगत कराने की| साल में तीन बार धान उगाने से बेहतर है कम पानी वाले समय में ऐसे पौधों की बुआई करे जिसमे कम पानी की लागत हो| संतुलित खेती भी कावेरी नदी का हल हो सकता है| दाल दलहन और तिलहन की खेती करे जो हमारे आयत को कम कर सकेगा| इसमें अपेक्षाकृत पानी की कम जरूरत होती है| इससे होता क्या है अंधाधुंन एक ही फसल की उगाई करते है जब कोई खरीदता नहीं तो सरकार द्वारा आयोजित राजनितिक रूप से परिपूर्ण MSP का सहारा लेकर सरकार के घर में जगह ना होने पर भी डंप करने की कोशिश करते है|
इसके फलस्वरूप सरकार गोदामों के आभाव में बाहर रखने पर मजबूर होती है जो बाद में बारिश के मौसम में सड गल कर ख़त्म हो जाते है| इसका कोई भी प्रोडक्टीव ग्रोथ नहीं दिखता उल्टे पानी की समस्या खड़ी कर देते है| हिंसा और सरकारी सम्पतियों को नुक्सान मारना अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने जैसा है| यह कोई हल नहीं है| जो सरकारी सम्पति ख़राब हो रही है वो दुबारा रिपेयर तो होनी है ही और पैसे भी हमारे ही लगने है| क्युकी पैसे पेड़ पर लगते नहीं|
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