मैंने 24 अक्टूबर वाला ‘द लल्लनटॉप’ का लेख “छठ में पूजा के नाम पर कई लोग ऐसा पाप करते हैं कि भगवान भी रो देते होंगे!” पढ़ा| लिखने का लहिजा मुझे बेहद गन्दा लगा जो मुझे लेखक और इसके सहयोगी को मेल करने से नहीं रोक पाया| मुझे ख़ुशी इस बात की है बाद में उस आर्टिकल को बहुत जगह एडिट कर दिया| अब जो लेख मौजूद है उसमे थोड़ी तार्किकता नजर आ रही है| बाद में एडिट करके ‘बहुत साफ-सफाई से मनाया जाने वाला त्योहार है छठ’ नाम से पैराग्राफ को जोड़कर थोडा लेख को लेख जैसा बनाया| हालाँकि इसके बाद भी कुछ विरोधाभाष को वैसा ही छोड़ दिया| उनके अनुसार क्या सच में छठ जो मनाई जाती है इसमें गंदे पानी को भगवान् के पास पहुचाने के लिए मनाते है? लल्लनटॉप स्टाइल में लिखने की होड़ ने उनलोगों को अपमानजनक शब्द चुनने को मजबूर कर दिया| सपने में आने वाली चीजों को सुबह आर्टिकल बनाने की प्रक्रिया ने दुसरे समाज की भावनाओं की अनादर कर रही है| स्वाति का लिखा लेख उसी का एक हिस्सा था|
नास्तिक होना अच्छी बात है लेकिन ‘आस्तिक’ लोगो का मजाक उडाना क्या नास्तिकता का कोई अंतिम शर्त है? पानी गन्दा है तो क्या हम पूर्वांचल के लोग अपने समाज और संस्कृति को मानना छोड़ दे? अगर पानी गन्दा है और लोग वहाँ छठ मना रहे है इसमें छठ मानाने वाले लोगो की कोई भी गलती नहीं है| नाही छठ पूजा में किसी प्रकार का ढोंग और छलावा है| मोहतरमा अपनी (मीडिया) और सरकार की नाकामियों को छुपाने के लिए छठ पूजा को निशाना बना रही है| वो गन्दा इन्ही लोगो की वजह से है हम लोगों की वजह से नहीं है| ये तो सरकार से पूछना चाहिए न कि क्यों सारी कंपनियां अपना कचरे को साफ़ करने के बजाए के सीधे नदी में क्यों डंप करती है? तब तो इन्ही मीडिया को शाइनिंग इंडिया और जीडीपी नजर आता है| ये बात तो लोकहित में पूछा जाना चाहिए था कि आखिर सरकार ने इसपर क्यों ध्यान नहीं दिया? इससे हमें पूजा करने में परेशानियाँ होती है| बात इसपर होनी चाहिए थी| लेकिन मोहतरमा ने तो छठ पूजा को ही न जाने ढोंगी और दिखावे से लेकर क्या क्या डाला|
स्वाति लिखती है कि ‘लोग मिठाई और फुल शायद इसलिए चढाते होंगे क्युकी ऐसा लगता है कि यह लोगो तक पहुचती है| इस तर्क से देखें, तो अगर भक्त नाले में उतरकर पूजा करे, तो वो गंदगी भी पहुंचती होगी भगवान तक|’ यह विरोधाभाष अभी भी साईट पर है| हालांकि उनका लिखने का टॉपिक सही था लेकिन अपने आप को शिफ्ट कहीं और ही कर लिया| इसलिए मैंने मेल में कुछ प्रश्न पूछा था| अगर सच में यह पर्व ढोंग का पर्व है तो इसी आधार पर बाकी के समाज का भी मूल्यांकन किया जाना चाहिए| पहला तो यही था कि गन्दगी इन्हें दुसरे समाज में क्यों नहीं दिखती? दुसरे समाज में बकरीद पर किए जाने वाला जानवरों की बलि पर कभी ऐसा कभी लेख मैंने नहीं देखा है| क्यों कोई भगवान बायोडायवर्सिटी को नुक्सान पहुचाने के लिए कहता है क्या? देखा जाए तो यह भी विरोधाभाषी बातें है| हमलोग जो दिवाली मनाते है क्या भगवान पटाखे फोड़ के पर्यावरण के नुकसान पहुचाने से खुश होते है क्या? उनके कांसेप्ट के अनुसार यह भी ढोंग ही होनी चाहिए|
और भी बहुत सारे उदाहरण है जो विरोधाभाष को खड़ी करती है| गणेश पूजा जो महाराष्ट्र में मनाई जाती है वहां जोर जोर से DJ बजता है, सुबह मस्जिद में आजान पढ़ा जाता है और होली में जबरन दूसरों को परेशान किया जाता है कपडे गंदे किए जाते है| इस थ्योरी के अनुसार यह भी ढोंग के केटेगरी में ही आना चाहिए? लेकिन ये बातें लोगों की भावनाओं और सम्मान के साथ जुडी है| अगर मैं भी इसी लहिजे में लिखूं तो शायद बहुत लोग विरोध करेंगे| मै ऐसा नहीं लिख सकता क्युकी मै इस देश की विविधता की खूबसूरती से अच्छी तरह वाकिफ हूँ| मुझे लगता है ऐसे लेखकों को कभी नॉएडा के दफ्तर से निकलना चाहिए और असली भारत से रूबरू होनी चाहिए| आप जानकर आशचर्य करेंगे कि हमारे देश में एक समाज ऐसा है जो हर सुबह पेड़ की पूजा करता है फिर काम पर निकलता है| ऐसे कई आदिवासी समूह है| देश का एक तबका सांप, पेड़, गाय जैसी अलग अलग चीजों को पूजता है जिसमे उसकी आस्था है| यदि वो आस्था रखता है तो आपका और हमारा कुछ हक़ नहीं बनता कि आप किसी समाज के अंदरूनी मामले में दखल दें|
सच में मैडम स्वाति को गंदे पानी को लेकर चिंता ही है तो इन्हें उनपर लिखना चाहिए जो इस पानी को पीते है| पूर्वांचल के लोग तो अपनी आस्था और संस्कृति को संजोने और अर्ग देने के लिए के लिए गंदे पानी में सिर्फ उतरते है| मध्यप्रदेश में एक आदिवासी समाज है ‘शहरीया आदिवासी’ कभी वहाँ जाना चाहिए और उन्हें कवर करना चाहिए| वहाँ की औरतें मटके के उप्पर दुप्पटा लगाके पानी छान के पीती है जो काई से भरा तलाब होता है| फिर हुकूमत से पूछिए ऐसा क्यों है? पानी में उतरने को घीन मानकर और गन्दा समझकर इन्होने ‘छठ पर्व’ को ही ढोंगी करार दे दिया था| उन्हीं के कांसेप्ट के अनुसार तो मानव जाती भी एक ढोंग होनी चाहिए जो लोग आदिवासी है क्युकी मजबूरन गंदे पानी को पिने के लिए मजबूर है| जैसे यहाँ पर गन्दा पानी चर्चा का मुख्य हिस्सा है न कि मानव जाती ठीक वैसे ही गन्दा पानी नॉएडा में भी चर्चा का मुख्य केंद्र है न कि छठ पूजा किसी भी प्रकार का ढोंग है| कोई भी त्यौहार ऐसा नहीं है जिसका दूसरा पहलु नहीं है| छठ में ‘छठ पूजा’ की वजह से कोई दिक्कत नहीं होती है| बाक़ी के चीजों की वजह से छठ पूजा में दिक्कत आती है|
यमुना को एक पवित्र नदी माना जाता है वो अगर गन्दी है इसमें हमारा कोई कसूर नहीं है| कसूर आपलोगों का है जो हुकूमत से इसके बारे में बात करने से हमेशा डरते रहे है| इसी देश के सर्वोच्च न्यायलय ने नदी को एक सिटीजन की दर्जा दी है| जो उसकी फंडामेंटल अधिकार की वकालत करता है| छठ पूजा एक ऐसा त्यौहार है जो धर्म से परे है| आपको शायद मालूम नहीं होगा कि छठ पूजा एक बड़े मुस्लिम तबके द्वारा भी मनाई जाती है| लेकिन आपको यह सब कहाँ दिखेगा आपको तो सिर्फ नॉएडा का नाला दिखता है| मुझे लगता है कि कभी भी कुछ लिखा जाए तो दोनों पक्षों को सामने रख कर लिखा जाना चाहिए| क्युकी सेलेक्टिव और आधी अधूरी बातें निश्चित रूप से बहुत ज्यादा ख़राब होती है| लोगों में समझ की विकास नहीं करवा पाती है| हालाँकि बाद में एडिट करने के बाद लेख को सही कर दिया| मुझे अच्छा लगा कि उसे एक लेख जैसा बनाया नहीं तो ऐसा लग रहा था जैसे किसी राजा का एकतरफा फरमान हो कि यह ढोंग है और दिखावा है|
बाद में इससे जुडी स्वास्थ्य और इस पूजा के स्वच्छता वाली बिंदु को जोड़ा तब जाकर लगा कि हाँ अब लेख का कोई बिंदु है जो लोगों के सामने रखना चाह रही है| ये अपने फेसबुक पोस्ट पर लिखती फिर भी मै इग्नोर कर देता| लेकिन इन्होने एक ऐसे जगह पर लिखा है जो सार्वजनिक मंच है| यहाँ पर बहुत लोग पढ़ते है| खासकर मै जरूर पढता हूँ| मेरे जैसे तमाम नौजवान पढ़ते होंगे| सिर्फ इसलिए क्युकी बातें रिसर्च के बाद लिखी और पब्लिश की जाती है| लेकिन ऐसे किसी ख़ास समाज को टारगेट करके सस्ती लोकप्रियता बटोरने की कोशिश होगी तो यह दुर्भाग्यपूर्ण होगा क्युकी लल्लनटॉप से मेरी उम्मीदें बिल्कुल अलग रही है| आपको लिखना ही था तो आप जाते और एक छठ को कवर करते फिर लिखते तो आप सच लिख पाते| ऑफिस में बैठे ख्वाबी पुलाव ‘ऐसा हो सकता है… वैसा हो सकता है…. की नौबत नहीं आती| इन्हें जैसे लोग पूर्वी भारत (बिहार और पूर्वी उत्तरप्रदेश, झाखंड) को लेकर स्टीरियोटाइप माइंडसेट बनाया हुआ है| क्युकी ऐसे लोगों को हमारे अंदर सिर्फ गंदगी ही दिखती है|
मुझे लगता है कि लल्लनटॉप को समाज के हर वर्ग के समाज और संस्कृति की इज्जत करनी चाहिए| चाहे वो समाज मुस्लिम का हो, चाहे हिन्दू का हो, चाहे उत्तरपूर्व का हो, चाहे कश्मीर का हो, चाहे आदिवासियों का हो| विविधता हमारी खूबसूरती है| यह खूबसूरती बने रहनी चाहिए|
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